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गुरुवार, 14 जून 2018

साहित्य त्रिवेणी २० किरण श्रीवास्तव, मीना धर द्विवेदी -बालशिक्षा में छंद

बाल मन पर छंद का प्रभाव  
प्रो. किरण श्रीवास्तव, मीना धर
परिचय: प्रो. किरण श्रीवास्तव: वनस्पति विज्ञान से परास्नातक, म.प्र. छत्तीसगढ़ में महाविद्यालयीन शिक्षा में प्राध्यापक. म.प्र. लोक सेवा योग में द्वितीय स्थान। वनस्पति विज्ञान में अनेक शोध लेख, हिंदी-अंग्रेजी कविता लेखन। संपर्क: डी १०५ शैलेन्द्र नगर, रायपुर छत्तीसगढ़।                            मीना धर: हिन्दी से परास्नातक, संप्रति अध्यापन, स्वतंत्र लेखन, प्रकाशन: साझा संकलनों, पत्र-पत्रिकाओं में, अंतर्मन ब्लॉग, उपलब्धि: शोभना ब्लॉग रत्न, ‘साहित्यगरिमा’,‘विशिष्ट हिन्दी सेवी’ सम्मान तथा अन्य, संपर्क: ४३७, दामोदर नगर, बर्रा, कानपुर-२०८०२७, चलभाष: ०९८३८९४४ ७१८, ईमेल  meenadhardwivedi1967@gmail.com 
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पिंगल नियमों में बँधी अभिव्यक्ति जिसमे यति, गति, तुक, मात्रा, विराम अदि का ध्यान रखा जाए, छंद कहलाती है। प्रश्न यह है कि यह सब एक छोटे से बच्चे के कोमल मन मस्तिष्क में कैसे समाए ? बाल मन जिज्ञासु होता है पर कोमल भी।  जिज्ञासा सीखने की आतुरता उत्पन्न करती है पर कठिन नियमों को जल्दी आत्मसात करना बच्चे के लिए संभव नहीं होता। उसके नन्हें-कोमल मन को छंदों से कैसे परिचित कराया जाए? यह प्रश्न एक बाल शिक्षक के मन में उठना स्वाभाविक हैं।  एक शिशु जब जन्म लेता है तो उसका पहला स्पर्श माँ से होता है। वह माँ के स्पर्श में जो सुख पाता है, वही उसका पहला छंद है जिसका माध्यम स्पर्श है। पूर्वानुभव न होने पर भी वह माँ के प्रथम स्पर्श में निहित ममता की भावना को आत्मसात कर आनंदित होता है। माँ शिशु के प्रथम स्पर्श से आनंदित हो उसके माथे पर हाथ फेरते हुए जो कुछ गुनगुनाती है, भले ही उनमें सार्थक शब्द, गति-यति न हो, बिंब-प्रतीक न हों या हों भी तो उनकी समझ शिशु में न हो, वह ध्वनि ही शिशु को सुनाई देता प्रथम छंद है। (शिशु-जन्म के समय हुआ रुदन भी आरोह-अवरोह से युक्त होता है. भिन्न-भिन्न शिशुओं के रुदन में भी भिन्नता अनुभव की जा सकती है जिसका विविध छंदों से ध्वनि-साम्य अध्ययन का विषय है। -सं.)  माँ के बंद होठों से नि:सृत होती ध्वनि में  गति-यति, तुक, विराम होता भी है तो काव्यशास्त्र के विधानानुसार नहीं,वात्सल्य की भावनानुसार होता है। शिशु के लिए यही छंद है | उसी छंद के रस में डूबा वह माँ की गोद में दुनिया जहान से बेखबर सुख की नींद सो जाता है।  जैसे-जैसे वह बड़ा होता है उसके लिए चिड़ियों की चहक, कोयल की कूक में जो सुर है, लय है वही उसका छंद है, वर्षा की बूँदों की छम-छम उसका छंद है, पवन के वेग से पत्तों की खनक ही उसका छंद है,जिसमे कहीं कोई व्याकरण का नियम नहीं है (प्रकृति अपने नियमों से चलती है। कोई संगीतकार इन ध्वनियों में किसी राग़ या छंदकार किसी छंद की प्रतीति कर सकता है -सं.) ।शैशवावस्था में बाल मन इन्हीं ध्वनियों से लय को आत्मसात करता है जो उसके लिए छंद की तरह है।  
बाल-मन का छंद से दूसरा परिचय विद्यालय में होता है। बचपन की कुछ धुंधली सी यादें हैं जब हमारी कक्षा वृक्षों की छाँव में लगा करती थी, चटाइयों के रोल खोलकर हम सब छात्र-छात्राएँ मिल कर बिछाते और उसी पर कतारबद्ध बैठते, एक कक्षा में सिर्फ एक ही लकड़ी की कुर्सी होती थी जिसपर मास्साब बैठते थे और उनके हाथ में पतली नीम की छड़ी हुआ करती थी। मुझे आज भी याद है, अपने विद्यालय की पहली प्रार्थना (जो आज-कल लुप्त सी हो गयी है) जो गाते हुए हम ऐसे भक्ति रस में डूबते थे कि राष्ट्रगान के लिए आँखें न खुलती थीं। वह प्रार्थना आज भी कंठस्थ है:
वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्त्तव्य मार्ग पर डट जावें।
पर-सेवा पर-उपकार में हम, जग-जीवन सफल बना जावें॥ (१६-१६ मात्रिक पंक्तियाँ- चौपाई छंद)
प्रार्थना, राष्ट्रगान और भारतमाता की जय के बाद पहली कक्षा हिंदी की होती थी। मात्रा ज्ञान देने के भी छंद का ही सहारा लिया जाता था। 'राजा आ राजा / मामा ला बाजा / कर मामा ढम-ढम, नच राजा छम-छम ( दस मात्रिक दैशिक जातीय छंद)। बड़ी ई की मात्रा सिखाने के लिए 'मछली जल की रानी है' (मानव जातीय, सखी छंद), 'चुहिया रानी बड़ी सयानी' (संस्कारीजातीय, पादाकुलक छंद), ओ की मात्रा सिखाने के लिए ’उठो लाल अब आँखें खोलो’ (संस्कारीजातीय, अरिल्ल छंद) आदि गीत सिखाए, याद कराए और गवाए जाते थे। मात्रा या वर्ण गिने बिना रहीम और कबीर के दोहे हम सस्वर गा कर याद किया करते थे। तब हमें लेश मात्र भी ज्ञान नही था कि यह दोहा छंद है, इसमें चार चरण और १३-११ की मात्राएँ भी होती हैं। 'लोट रहा सागर चरणों में, सर पर मुकुट हिमालय / जन्म भूमि हम सबकी प्यारी / भारत माता की जय' (यौगिक जातीय कर्णा छंद), यह कदंब का पेड़ अगर माँ, होता यमुना तीरे / मैं भी उस पर बैठ कन्हैया, बनता धीरे-धीरे (यौगिक जातीय कर्णा छंद) आदि कवितायें आज नहीं पढ़ाई जा रहीं किंतु जिन्होंने इन्हें पढ़ा है वे आजन्म भुला नहीं सकते। छंद में रूचि हो या न हो किंतु लय को भुलाना संभव नहीं होता। लय से ही गीत याद आ जाता है। 'यादों की बारात' शीर्षक चलचित्र में बिछड़े भाई बचपन में साथ गाए गीत की धुन वाद्य पर सुनकर ही बरसों बाद एक दूसरे को पहचान पाए थे। यह भी देखा गया है कि बीमार बच्चे के कानों में अपनी माँ से सूनी लोरी के बोल पड़े तो वह कष्ट होते हुए भी उसकी पीड़ा की अनुभूति कम करता है। 
पहले  बच्चों को सात वर्ष, फिर पाँच वर्ष की आयु के बाद ही विद्यालय भेजा जाता था। आजकल बच्चा ढाई-तीन वर्ष की उम्र में विद्यालय नहीं गया तो वह अपनी शिक्षा की दौड़ में पिछड़ा माना जाता है। आज की शिक्षा ज्ञान के लिए नहीं बल्कि धनार्जन के लिए ली और दी जा रही है किंतु जो बात आज नहीं बदली वह है 'प्रार्थना' जो बच्चा पहले दिन ही सबके खड़े हो हाथ जोड़कर गाता है, भले ही भाषा कोई भी हो यहीं उसका परिचय होता है स्कूल के पहले छंद से। 
बाल-मन पर छंद की तीसरी छाप कक्षा में पड़ती है। अध्यापिका ‘तितली रानी इतने सुन्दर पंख कहाँ से लाई हो’ आदि कविताएँ गाती है तो बच्चा सुर में सुर मिलाकर मात्रा, यति, गति, तुक, विराम आदि के ज्ञान के बिना भी छंदों को आत्मसात करता है। बाल मन में सीखने की तीव्र ललक होती है। (प्रतिभावान बच्चे घर / शाला में सुनी हुई लय के आधार पर खुद भी तुकबंदी करते हैं। पूज्य बुआश्री महीयसी महादेवी जी ने मुझे बताया था कि वे अपनी माँ का साथ  भजन गुनगुनाते हुए ही कविता लिखना सीखीं। एक दिन उनकी माँ ठाकुर जी को स्नान-चंदन-श्रृंगार पश्चात् भोग लगा रही थीं तभी उनके मुँह से पहली कविता नि:सृत हुई: 'माँ के ठाकुर जी भोले हैं / ठंडे पानी से नहलातीं / गीला चन्दन उन्हें लगतीं / उनका भोग स्वयं खा जातीं / फिर भी कभी नहीं बोले हैं' -सं.)  
समस्या तब आती है जब शिक्षक उसे व्याकरण के आधार पर सिखाने का प्रयास करते हैं, तब सीखना बच्चे के लिए कठिन हो जाता है | बच्चे को लालित्यपूर्ण ढंग से सिखाया जाए तो वह आजीवन नहीं भूलता। ( मुझे शालेय शिक्षा के समय ख्यात कवि श्री सुरेश उपाध्याय से हिंदी पढ़ने का सौभाग्य मिला। तब अलंकारों की परिभाषा दोहों में सीखी थी जो आजीवन पते के रूप में साथ है: 'एक वर्ण की आवृत्ति, होवे बारम्बार / कहते हैं कविजन उसे, अनुप्रासालंकार' -सं) 
बच्चे को सीधे-सीधे छंद-प्रकार, उनकी पहचान,  विधान बताने पर वह शीघ्र ही ऊब जाता है और उसके लिए सीखना बोझिल हो जाता है। वह विद्यालय जाने से कतराने लगता है | इसलिए शिक्षक और माता-पिता दोनों का दायित्व है कि सरस और रुचिपूर्ण शिक्षा के माध्यम से बच्चे का सर्वांगीण विकास करें। आज की शिक्षा व्यवसायिक हो गई है।विद्यालय में निरंतर नीरस पढ़ाई और घर में पूरे दिन गृह-कार्य करता बच्चा वह रोबोट या रट्टू तोता बन कर रह जाता है। 
बाल-आचरण और छंद:  
सीखने की कोई उम्र नहीं होती परंतु बालपन में सीखे हुए का मन पर प्रभाव हमेशा बना रहता है। बच्चे छंदों में लिखी कविताओं के माध्यम से सदाचरण, सुनीति, प्रकृति के उपकार, पर्यावरण के प्रति दायित्व आदि छंदों के माध्यम से समझें तो अपनी भूमिका बाल्यकाल से ही समझ और निभा सकेंगे। बच्चा ही देश का भविष्य है। वह कैसा नागरिक बनेगा इसकी नींव बचपन में ही पड़ जाती है और इस नींव को मजबूत करने में छन्दों का विशेष योगदान है। बाल शिक्षा में छंद उतना ही महत्व रखता है जितना कि भोजन में नमक का जो कहीं नहीं दिखता पर जिसके बिना भोजन बेस्वाद हो जाता है। 'हम भारत के वीर सिपाही, मिलकर कदम बढ़ाएँगे / कितनी भी मुश्किल आ जाए / कभी नहीं घबराएँगे' (महातैथिक जातीय, ताटंक छंद) जैसे गीत गाते हुए कदमताल या परेड करने से बालमन में विकसित होता हुआ अनुशासन और ऐक्य भाव ही अनुशासित किशोर और युवक को जन्म देता है।
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