३. बुंदेली वाचिक काव्य में छंद
आचार्य संजीव वर्मा ‘साल
वाचिक काव्य-परंपरा को लोकगीत भी कहा जाता है।
इनमें जन-मन की अभिव्यक्ति का निश्छल रूप सामने आता है। मानव जीवन का कोई ऐसा पक्ष
नहीं है जिस लोकगीत न कहे गए हों। लोकगीतों को ग्राम्य-गीत भी कहा गया है। लोकगीत
आम जनों की अभिव्यक्ति है, जिसे पढ़कर ख़ास जन अपनी अभिव्यक्ति को परिमार्जित करते
हैं किंतु इससे लोक-साहित्य का कुछ भला नहीं होता, अपितु उसे हानि ही होती है। प्रख्यात
लोक संस्कृति अध्येता देवेंद्र सत्यार्थी के अनुसार ‘लोकगीत प्रकृति के उदगार हैं,
इनमें अलंकार नहीं रस है, छंद नहीं लय है, लालित्य नहीं माधुर्य है।‘ कवींद्र रवींद्रनाथ
ठाकुर ने ‘लोक साहित्य को मानव के अर्ध चेतन मन की स्वच्छंद रचना कहा है। आचार्य
हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में: ‘लोकमानस गीतों को जन्म देते समय उन्हीं
भावों से स्पंदित और आंदोलित हुआ है जिनसे कालिदास और भवभूति हुए थे। देश के हर
अंचल के लोकगीत लगभग एक सी भावनाएँ-कामनाएँ, उल्लास-विषाद, सुख-दुःख, आशा-निराशा
की अभिव्यक्ति करते हैं। वे अनेकता में एकता की सृष्टि करते हैं। बुंदेली लोकगीतों
में श्रृंगार, वीर तथा करुण रस की प्रधानता है। छंद इन लोकगीतों का श्वास -
प्रश्वास है।
फागों में छंद
फाग हिंदी भाषी प्रदेशों का लोकप्रिय लोकगीत है। मध्य प्रदेश के जबलपुर, सागर, नर्मदापुरम,
रीवा, शहडोल, छिंदवाड़ा व ग्वालियर संभागों में उत्तर प्रदेश
के झांसी, आगरा संभागों में फाग गायन की परंपरा चिरकालिक है। बृज भूमि में
लीलाविहारी आनंदकंद श्रीकृष्ण और राधारानी की लीलाओं के फाग तथा बुंदेलखंड में
महाकवि ईसुरी रचित फाग गाँव-गाँव में गाए जाते हैं। अगहन पूस की कड़कड़ाती सर्दियों
का अंत, माघ की मादक-महकती बयारें, ऋतुराज बसंत का धरागमन, basantbasanबसंतपंचमी,
मादल, ढोलक, टिमकी पर थाप, झाँझ-मँजीरा की झंकार और लोकगायकों के कंठ-स्वरों से
फूटती स्वर-लहरियाँ, झूमते-इठलाते फगुहारों की टोलियाँ, मन-बहलाव का साधन मात्र
नहीं सुमधुर सनातन लोक परंपरा का पुनार्गायन है। फाग गीत पारस्परिक मनोमालिन्य को
दूरकर सद्भाव, साहचर्य और सहकार के नए पृष्ठ खोलते रहे हैं। सूर, खुसरो, कबीर,
तुलसी, मीरा, ईसुरी आदि के फाग-गीतों में आदि देव शिव, विष्णु के अवतार राम और
श्याम ही नहीं, ग्र्राम्य बल रजऊ भी मनमोहिनी भाव-मुद्राओं के साथ विराजित हैं। इस
फागों में श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत और शांत आदि
सभी रसों का समावेश है। फाग गायन सामूहिक रूप से किया जाता है। वादक गायकों के
मध्य में होते हैं। मुख्य गायक फाग की ध्रुव-पंक्ति उठाता है। ध्रुव पंक्ति को सब
मिलकर ३-४ बार दुहराते हैं। फिर मुख्य गायक अगली
पंक्ति गाता है। फिर ध्रुव पंक्ति सब मिलकर दुहराते हैं।
फाग-गीत पदों के रूप में रचे और गाए गए हैं।
पद के आरंभ में मुखड़े की एक ध्रुव पंक्ति होती है जिसके बाद एक से लेकर ५
पंक्तियों तक के अंतरे होते हैं। अंतरों की संख्या निर्धारित नहीं है। ध्रुव पंक्ति
में सामान्यत: १२ से १६ मात्राएँ तथा पदांत गुरु होता है। अंतरे में सामान्यत: २८
से ३२ मात्राओं की पंक्तियाँ होती है जिनका तुकांत ध्रुव पंक्ति के समान होता है। हर
अंतरे के बाद ध्रुव पंक्ति दुहराई जाती है।
निम्न पारंपरिक फाग में ध्रुव पंक्ति १६ मात्रिक है जबकि अंतरे की पंक्तियाँ २८
मात्रिक है, १६-१२ पर यति तथा पदांत में गुरु गुरु है। मुखड़ा में आदित्य जातीय छंद
है जबकि अंतरा यौगिक जातीय सार छंद में है।
प्रथमै श्री गणेश को गैये।। / गंगा-जमुना
सरस्वती को, संगम घाट नहैये।। / काशीपुरी मुक्ति का द्वारा, तहाँ कछुक दिन रहिये।।
/ पाच पैग परिकरमा कै कै, तन के पाप कटैये।। / हरिद्वार से जल भरि लैये, बैजनाथ को
जैये।। / अच्छत चार बेल की पाती, हर-हर कहि नहवैये।।
कुछ फागों में ध्रुव पंक्ति और अंतरा समान
पदभार के देखे गए हैं। निम्न फाग में ध्रुव पंक्ति तथा अंतरा ३० मात्रिक महातैथिक
जातीय ताटंक छंद में हैं। १६-१४ पर यति और पदांत में मगण है।
सदा अनंद रहै यहु द्वारे, मोहन खेलें होरी हो।
/ इकवर खेलें कुँवर कन्हैया, इकवर राधा गोरी हो। / मारत आवें गुलाब-छड़ियाँ, पछरत
राधा गोरी हो। / डफ लै खेलें कुँवर कन्हैया, रँग लै राधा गोरी हो। / कहे-सुने का
माख न मान्यों, बरस-बरस कै होरी हो। / बनी रहै भाइन की जोरी, नित उठ खेलें होरी हो।
पदों को लेकर समय-समय पर खड़ी हिंदी में भी
प्रयोग होते रहे हैं। संजीव वर्मा ‘सलिल’ रचित हिंदी वंदना की फाग देखें जिसमें
ध्रुव पंक्ति तथा अंतरा ३० मात्रिक महातैथिक जातीय ताटंक छंद में हैं। १६-१४ पर
यति और पदांत में मगण है: ‘हिंदी का हो जय-जय कारा, दुनिया बोले हिंदी हो। /
स्वर-व्यंजन शब्दाक्षर सार्थक, मधु-रस घोले हिंदी हो। / शब्द-शक्तियाँ, शब्द-भेद
मिल भावों को अभिव्यक्त करें। / अलंकार-रस-छंद अमिय पी, घर-घर डोले हिंदी हो। /
विधि; विज्ञान; यांत्रिकी; भेषज, दर्शन; कला; गणित; वाणिज्य। / हिंदी में
अभिव्यक्ति श्रेष्ठतम, मधु-रस ढोले हिंदी हो। / मात्रिक-वार्णिक; वैदिक-लौकिक,
वाचिक छंद करोड़ों है। / गति-यति; नियम-विधान न भूले, मन-मन झूले हिंदी हो।’
श्री राजेन्द्र वर्मा ने पद विधा के छंद
विधान को लेकर ‘जीवन है अनमोल’ कृति का सृजन किया है जिसमें ५२ पद हैं। उन्होंने मुखड़ा या टेक में १२ से २०
मात्राएँ, तथा पदावली में समान मात्राओं की ५ से ११ पंक्तियाँ (विषम सम मात्रिक
छंद, प्रथम चरण १६ मात्रा, द्वितीय चरण १०-१५ मात्रा, तुकांत नियम-मुक्त) होना
प्रतिपादित किया है। कभी-कभी मुखड़े में डेढ़ पंक्तियाँ भी होती हैं। मुखड़े और
पदावली समतुकांती भी होते हैं और भिन्न तुकांती भी। राजेन्द्र जी ने सामाजिक
विसंगतियों पर तीखे व्यंग्य प्रहार करते पदों से फाग-गीतों को एक नया आयाम दिया
है: ‘बापू! अंग्रेजी का राग। / सत्तर वर्षों से इंग्लिश के, सिर पर साजे ताज। /
बड़ी शान से हिंदी पर ही गिरा रही है गाज। संसद-न्यायालय को आती है हिंदी में लाज।
/ हिंदी में बातें करते पर करें न कोई काज। जब तक हिंदी में शिक्षा का नहीं सजेगा
साज। / तब तक व्यर्थ गँवाएंगे हम, भाषिक साज-समाज।‘
फाग उल्लास और राग का लोकगीत है। फागों के इस
रूप में ध्रुव पंक्ति ३२ मात्रिक लाक्षणिक जातीय छंद में होती है जिसमें १९-१३ पर
यति तथा प्रथम भाग के अंत में दो गुरु का विधान होता है। आवश्यकतानुसार पहले अथवा दूसरे
गुरु को दो लघु से बदल लिया जाता है। इस फाग के गायन हेतु गायक दो दलों में बँट
जाते हैं। वादक दोनों दलों के मध्य में होते हैं। मुख्य गायक ध्रुव पंक्ति का १९
मात्रिक पहला भाग गाता है। लय परिवर्तन के साथ ३-४ बार आवृत्ति के बाद, सब गायक
ध्रुव पंक्ति का १३ मात्रिक शेष भाग मिलकर गाते हैं। ‘अरे हाँ’, ‘बालमा’, ‘सैंया
हो’ अथवा अन्य शब्दों का उद्घोष कर प्रथम भाग के अंतिम शब्दों को दुहराया जाता है।
साथ ही वादक गण अपने वाद्यों को पूरे जोश के साथ बजाते हैं। एक अद्भुत समा बंध
जाता है। ध्रुव पंक्ति के प्रथमार्ध को दोनों दल दो-दो बार दुहराते हैं। अब अंतरा
गायन के गायक-वादक सब शांत हो जाते हैं। कोई एक गायक उच्च स्वर में अंतरे की
पंक्ति गाता है। अंतरा गायन एक या एक से अधिक गायक भी कर सकते हैं। अंतरा सामान्यत: ४ पंक्तियों का
होता है। प्रथम दो पंक्तियाँ रोला छंद (११-१३, पदांत दो गुरु) तथा शेष दो
पंक्तियाँ २४ मात्रिक होती हैं जिनके अंत में गुरु-लघु मात्राओं का विधान है।
अंतरा-संख्या का कोई विधान नहीं है। फागों का शिवावतारी, रामावतारी, कृष्णावतारी,
सुराजी, मतवारी, श्रृंगारी, किसानी, व्यवहारी आदि नामकरण विषयानुसार किया जाता है।
फाग-गायन-स्पर्धा में एक दल के गायक गाते-गाते दूसरे दल की और बढ़ते हुए उसे पीछे
खदेड़ते जाते हैं, फिर दूसरा दल भी यही प्रक्रिया करता है। इसे दौड़ा की फाग कहते
हैं।
शारदावातारी फाग का एक अंतरा देखें: ध्रुव
पंक्ति: शारदा शरण तुम्हारी आए हैं, कर दो वीणा झंकार (१९-१३) / अंतरा: दइयो माता
ज्ञान, शरण में हैं अज्ञानी (११-१३)/ हम बच्चों की लाज, राखियो मात भवानी
२(११-१३), / करें विनय आचार्यगण, तुमसें बारम्बार (१३-११) / कृपा करो संगीत की बह
जावै रसधार २( १३-११), शारदा शरण तुम्हारी आए हैं। - आचार्य भागवत दुबे
देश में मत फैलाओ कचरा रे!, सब मिलकर कर लो
साफ़ (१९-१३)/ मिलकर कर लो साफ़, बने तब उज्ज्वल भारत (११-१३) / सेहत हो न ख़राब, ज़िन्दगी
होय न गारत (११-१३) / शौचालय निर्माण से, हो न आपको रोग (१३-११) / अपना स्वास्थ्य
सुधार हो, रोज-रोज कर योग (१३-११) / देश में मत फैलाओ कचरा रे! – आचार्य
sanjivसंजीव वर्मा ‘सलिल’ . .
रंगतवारी चौकड़िया फाग: महाकवि ईसुरी ने चौकड़िया
फागों की रचना ही नहीं की, उनकी प्राण-प्रतिष्ठा भी की। नरेंद्र छंद में रचित चौकड़िया फागों में ४
पंक्तियाँ होती है। राधावातारी श्रृंगारी फाग में महाकवि ईसुरी ने राधा के नख-शिख
वर्णन की सात्विकता दर्शनीय है: ‘लागै नख-शिख सें तन नीको, कुँवरि राधिका जी कौ। /
केहरि, कदली, श्रीफल, दाड़िम, गति मंडल गज फीकौ। / आनंद कंद मंद मुसकैबो, गिरधर को
मन झींकौ। / ईसुर उड़त सुबास सुकृत की, शोभन घर कौ टीकौ। इस फाग में २८ मात्रिक
नरेंद्र छंद का प्रयोग है जिसमें १६-१२ पर यति है। राधा जी के विविध अंगों हेतु
प्रयुक्त प्रतीक केहरि (कमर), कदली (जंघाएँ), श्रीफ्क (उरोज), दाड़िम (दन्तावली),
मंडल गज (गजगामिनी चाल) आदि दर्शनीय हैं। ssss
बंबुलिया / लमटेरा में छंद:
बंबुलिया गीत नर्मदांचल में गाँव-गाँव में गाए
जाते हैं। नर्मदा को मा मानते हुए मायके से ससुराल आती-जाती बेटियाँ नर्मदा में ही
स्वजनों का बिंब देखती-गाती हैं: ‘नरमदे मैया ऐंसीं तो मिलीं रेsss / ऐंसीं तो मिलीं रे जैसे / मिल गै मताई औ
बाप रेsss /wars नरमदे मैया होsss’। इस लोक गीत को लय सहित यूट्यूब पर भी सुना जा
सकता है। बंबुलिया गायन खेतों में मचान पर बैठे-बैठे
पशु-पक्षिओं से फसलों की रक्षा करते हुए भी किया जाता है। प्राय: एक गायक या
गायिका अपने अकेलेपन को दूर करते हुए बंबुलिया गाता है और उसे सुनकर कहीं दूर खेत ताक
रहा कोई दूसरा सर्वथा अपरिचित गायक/गायिका सर में स्वर मिलाते हुए अपनी पंक्तियाँ
गा उठता है। बहुधा कोई पूर्व निर्धारित विषय या पाठ न होने पर भी बंबुलिया गायन
में साँझ से रात या रात से भोर कब हो जाती है पता ही नहीं चलता। ऐसे सरस बंबुलिया गायन
से ग्राम्यांचलों में बसे अनजान आशु कवियों की प्रतिभा परवान चढ़ती है। इस छंद में
बार-बार लम्बे आलाप (टेर = पुकार) होते हैं, इसलिए इसे लमटेरा (लम्बी टेरवाला) छंद
कहा गया। नर्मदा का उद्गम बाँस-वन से होने के कारण इसका एक नाम ‘वंशलोचनी’ है। बाँस
को बंबू कहा जाता है, बंबू की पुत्री को टेरनेवाले छंद का नाम ‘बंबुलिया’ सटीक है।
बंबुलिया का आरंभ और अंत प्राय: १९ से २२ मात्राओं
की दो चरणों में विभक्त पंक्ति से होता है। दूसरा चरण दूसरी पंक्ति में ‘रे’ अथवा
अन्य ‘टेक’ के साथ दुहराया जाता है। दूसरी पंक्ति में १५ से १९ मात्राएँ होती हैं।
तीसरी पंक्ति में १३ से १५ मात्राएँ होती हैं। चौथे पंक्ति में ९ से ११ मात्राएँ
होती हैं। वाचिक छंद का गायन लय के आधार पर किया जाता है; मात्रिक / वार्णिक
असंतुलन आलाप से पूरा कर लिया जाता है।
डॉ. शरद मिश्र प्राध्यापक हिंदी ने इसे छंद
में नर्मदा शतक (१११ पद) की रचना की है, जो मेरे संपादन में ‘नर्मदा पत्रिका के
अंक ६ में २००४ में प्रकाशित हुए हैं। बानगी देखें: ‘मेकल चोटी पे उतरी है रेवा रे
/ उतरी है रेवा रे! चिर कुँआरी / पानी हे छूबे कौन रे! / नरबदे अरि हो।‘ (२२-१९-१५-९)।
एक और उदाहरण देखें: ‘पहारन बीच मैया रे बहत हैं / मैया रे बहत हैं; गहरो पानी /
चिरैया गावे भोर रे! / नरबदे अरि हो।’ (१९-१९-१४-९)।
मेरे लिखे हुए बंबुलिया नर्मदा की धार से
अभियंताओं द्वारा बिजली बनाए और सिंचाई करने की बानगी प्रस्तुत करते हैं: नरमदे
मैया हिरनी सी दौडीं / हिरनी सी दौडीं, परवत पे / बन्धा ने थामो वेग रे! / नरमदे
जय हो।(१९-१६-१५-९)। बरगी बँधा में बन रई बिजुरिया / बन रई बिजुरिया, नरमदे /
खेतों में पोंची धार रे / नरमदे जय हो।(१९-१५-१५-९)।
सोहर गीत: हो
बच्चे के जन्म के समय सोहर गीत गाए जाते हैं।
इनमें छटी के गीत, सरियां गीत, चौक के गीत, दस दिन बाद बधाई गीत, कुआं पूजन गीत (१
माह बाद) आदि होते हैं। प्रसव पीड़ा से छटपटाती प्रसूत का दर्द बयां करता है यह
सोहर गीत: ‘मोरे उठत कमर घन पीर, अब नैयां जीने की’(नाक्षत्रिक जातीय छंद) / सुन
राजा रे!, महाराजा रे!, मोर सासू को देव बुलाव ( लाक्षणिक जातीय छंद), / अब नैयां
जीने की’
श्रीमती शांति देवी वर्मा रचित निम्न गीत में
अवध में श्री राम के जन्म लेने पर शंकर जी दर्शन करने आये हैं: ‘अवध में जन्में
हैं श्री राम, दरश को आए शंकर जी / कौन नाचते, कौन गा रहे, कौन बजाए करताल, दरश को
आये शंकर जी (मुखड़ा अश्वावतारी जातीय छंद, अंतरा महायौगिक जातीय, मरहठा माधवी छंद)।
शांति देवी रचित यौगिक जातीय सार छंद में रचित बधाई गीत में ‘फाग’ की तर्ज पर
‘हाँ-हाँ’ की टेक का उपयोग किया गया है। ‘बाजे अवध बधैया हाँ-हाँ, बाजे अवध बधैया
/ मोद मगन नर-नारी नाचें, हर्षित तीनों मैया / हा-हाँ हर्षित तीनों मैया... भतीजे
के जन्म पर ननदी ‘बधावा’ लाए तो गीत से स्वागत होना ही चाहिए: ‘बधावा लाई ननदी
अरे! साँवलिया! (महारौद्र जातीय,राधिका छंद) / कहाँ से आई सोंठ, कहाँ से आई पीपर
(महावतारी जातीय छंद) / कहाँ से आई ननदी अरे! साँवलिया! (महारौद्र जातीय,राधिका
छंद)।
‘सोंठ के लडुआ चिरपिरे रे! (संस्कारी जातीय
अरिल्ल छंद) / लडुआ बँधावे जिठानी मोरी आई (महारौद्र जातीय कुंडल छंद) / बिन्ना
तनक सो लडुआ हमें दे राखो (महारौद्र जातीय कुंडल छंद) / लडुआ फोड़त मोरी बैयाँ दुखत
है (त्रैलोक जातीय छंद) / सेंगो दओ नईं जाय (भागवत जातीय छंद) / पसेरी भर जिज्जी घी डरो है.(पौराणिक जातीय,
पुरारी छंद)।
‘मिथिला में सजी बरात, सखी! देखन चलिए
(अवतारी जातीय छंद) / शंख मँजीरा तुरही बाजे, झाँझ नगाड़ा शहनाई (महातैथिक जातीय,
कुकुभ छंद)/ सखी! देखन चलिए... –शांति देवी वर्मा रचित बरात स्वागत गीत के पश्चात
उन्हीं की कलम से नि:सृत ज्योनार गीत का आनंद लें: ‘जनक अँगना में होती ज्योनार /
जीमें बराती ले-ले चट्खार (पौराणिक जातीय बंदन छंद)।
बारात स्वागत गीत: बने दूल्हा छबि देखो भगवान
की (महादैशिक जातीय अरुण छंद) / दुल्हिन बनी सिया जानकी (तैथिक जातीय उज्वला छंद)
/ जैसे दूल्हा अवध बिहारी (संस्कारी जातीय, पादाकुलक छंद)/ वैसी दुल्हिन जानकी प्यारी
/ जाऊँ तं-मन से बलिहारी / मंशा पूरी हुई रे अरमान की / दुल्हिन बनी सिया जानकी।
-शकुंतला खरे
बिदाई गीत: ‘ठाँड़े जनक संकुचाए, राम जी को का
देऊँ? (महाभागवत जातीय छंद) / हीरा पन्ना मानिक मोती मूंगा मानिक लाल (नाक्षत्रिक
जातीय, सरसी छंद)/ राम जी को का देऊँ? – शांति देवी वर्मा रचित इस बिदाई गीत में
जनक धर्म संकट में हैं कि राम जी तो लक्ष्मी पति विष्णु हैं, उन्हें लोकाचार के
अनुसार दहेज़ क्या दूँ? सब कुछ उन्हीं का है और गीत के अंत में राम उनका संधान करते
हुए कहते हैं ‘दुल्हन ही सच्चा दहेज है, मत दें धन-सामान’। नाक्षत्रिक जातीय सरसी छंद में रचित अन्य
बिदा गीत में शांति देवी चली मार्मिक वर्णन करती हैं- चलीं जानकी प्यारी सूना भया
जनकपुर आज / मात सुनैना अंक भर रोएँ, बाबुल जनक बेहाल / सूना भया जनकपुर आज।
सुख-दुःख धूप-छाँव की तरह आते-जाते हैं। जनकपुर से बिदा का दुःख अवधपुरी में
कुलवधू के स्वागत के सुख में विलीन होता है। शांति देवी महावतारी जातीय मुक्तामणि
छंद में इस सुख का वर्णन करती हैं: ‘द्वारे बहुरिया आई /सुनत जननि उठि धाई।
राई गीतों में छंद:
राई त्रिपदिक बुंदेली छंद है। पहली पंक्ति को
२ बार गाया जाता है, फिर तीसरी पंक्ति अभिवयक्ति को चरम पर ले जाती है। ‘ऊँसई लै
लो प्रान, ऊँसई लै लो प्रान, छाती पे होरा नें भून्जो’ (१२-१२-१६)। राई गीतों में
मात्रिक या वार्णिक संख्या के स्थान पर लय को अधिक महत्त्व दिया जाता है। ‘नल में
टोंटी लगाव / नल में टोंटी लगाव / पानी बचाव अनमोल है’ (१२-१२-१५) आचार्य भागवत
दुबे। ‘माँगो न दहेज़ / माँगो न दहेज़ / दुल्हन ही सच्चा दहेज़ है। (९-९-१६) –आचार्य
संजीव वर्मा ‘सलिल’। जापानी त्रिपदिक छंद हाइकु की तुलना में भारतीय त्रिपदिक
छंदों राई, माहिया, जनक छंद आदि में लालित्य, चारूत्व, माधुर्य और सन्देशपरकता
अधिक है।
घाघ-भड्डरी की कहावतों में छंद
भाषा और छंद का जन्म और विकास लोक में ही होता
है। लोक द्वारा स्वीकृत हो जाने पर विद्वज्जन उस और
आकृष्ट होकर उनमें अन्तर्निहित तत्वों का अध्ययन कर भावी अभिव्यक्ति के लिए मानक
बनाते हैं। लोक का मूल कर्म कृषि है, क्योंकि कृषि के बिना
व्यवस्थित उदर-पोषण और पारिवारिक जीवन संभव नहीं होता। इसलिए कृषि-कहावतों में काव्य का मूल रूप मिलता
है जिसमें छंद की उपस्थिति सहक दृष्टव्य है। कृषि काव्य के शिखर हस्ताक्षर घाघ और भड्डरी
हैं। इन दोनों ने प्रकृति और पर्यावरण का सूक्ष्म अवलोकन
कर चतुर्दिक हो रहे ऋतु-परिवर्तन तथा गृह-नक्षत्र परिवर्तन के कृषि पर पड़े प्रभावों
का आकलन कर जो निष्कर्ष निकाले उन्हें छंद-बद्धकर लोक में प्रस्तुत किया। पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस निष्कर्षों का परीक्षण हुआ और
आज भी इन्हें सही पाया जाता है। छंद और कृषि-विज्ञान के
मध्य सेतु-स्थापन में इन कृषि कहावतों की महती भूमिका है। इस कहावतों के अध्ययन से ज्योतिष-शास्त्र और
छंद के मध्य बने सेतु समूह का अध्ययन किया जा सकता है।
घाघ के काव्य में छंद:
‘चना चित्तरा चौगुना, / स्वाती गेहूँ होय।’ दोहा छंद की इस अर्धाली के अनुसार चित्रा
नक्षत्र में बोने पर चना और स्वाति नक्षत्र में बोए जाने पर गेहूं की फसल चौगुनी
होती है।
‘चित्रा गेहूँ, आर्द्रा धान, / न उनके गेरुई, न
इनके घाम।’ क्रमश: १५ मात्रिक तैथिक जातीय पुनीत छंद तथा
१८ मात्रिक पौराणिक जातीय बंदन छंद की इन पंक्तियों के अनुसार चित्रा नक्षत्र में
गेहूँ और आर्द्रा नक्षत्र में धान बोने से गेहूँ में गेरुई नहीं लगती तथा धान पर
धूप का दुष्प्रभाव नहीं होता। फलत: फसल अच्छी होती है।
आधे चित्रा फूटी धान। / विधि का लिखा ना होई आन। १५ मात्रिक तैथिक जातीय पुनीत छंद में घाघ कहते
हैं: आधा चित्र नक्षत्र व्यतीत होने पर धान में बालें निकलने लगे तो उपज अच्छी होना
ब्रम्हा के लिखे की तरह अटल है। इसी छंद में एक और कहावत
देखें- ‘माघ महीना बोइये झार। / फिर राखो रब्बी की डार।’ माघ महीने में खरीफ को साफकर घर में रख लो फिर
खेत रबी (गेहूं) बोने के लिए तैयार रखो।
‘आर्द्रा धान पुनर्वसु पैया। / रोवै किसान जो बोवै चिरैया।‘ आर्द्रा नक्षत्र में धान बोयें, पुनर्वसु
नक्षत्र में धान बोने पर दाना रहित पुआल होता है। चिरैया (पुष्य) नक्षत्र में धान बोने पर किसान रोता
है अर्थात फसल नहीं होती। यहाँ १६ मात्रिक संस्कारी
जातीय अरिल्ल छंद तथा १९ मात्रिक महापौराणिक जातीय दिंडी छंद की पंक्तियाँ है।
‘आधे हथिया मूरि मुराई। / आधे हथिया सरसों राई।‘ १६ मात्रिक संस्कारी जातीय पादाकुलक छंद की इन
पंक्तियों के अनुसार हस्त नक्षत्र आधा बीतने पर मूली, सरसों और राई बोना चाहिए। निम्न पादाकुलक छंद से कृषक-जीवन का सूत्र
समझिए- ‘समथर जाते पूत चरावै।, लगते जेठ भुसाला छावै। / भादों मास उठे जो गरदा।, बीस बरस तक जोतो बरदा।’ बैल से समतल की गयी जमीन पर जुताई का काम लेने
के बाद किसान का पुत्र उसे चरावे, जेठ माह आरंभ होते ही भूसा रखने के लिए स्थान तैयार
हो, भादों माह में बैल को सूखे स्थान पर बाँधे तो २० वर्ष तक बैल को जोत सकता है।
बुद्ध-ब्रहस्पति को भले, शुक्र न भले बखान। / रवि मंगल बोनी करे, द्वार न आए धान। इस दोहा २ (१३+११) के अनुसार बुध तथा गुरुवार
को धान बोना अच्छा होता है। शुक्रवार को धान बोना
अच्छा नहीं तथा रवि और मंगल को धान बोने पर द्वार पर धान नहीं आता अर्थात फसल नहीं
उपजती। ‘बाड़ी में बाड़ी करे, करे ईख में ईख. /
सोलह मात्रिक संस्कारी जातीय चौपाई छंद में कृषि
संबंधी तथ्य सहजता से कहे गए हैं: ’घनी-घनी जब सनई बोवै। / तब सुतरी की आशा होवै।’ सन के पौधे निकट बोने पर ही उससे पर्याप्त
मात्रा में सुतली पाई जा सकती है। ऊख गोड़ि के तुरत दबावै। / तौ फिर ऊख बहुत सुख पावै। गन्ने की गोड़ाई करने के तुरंत बाद उसे दबा दें
तो गन्ना की उपज प्रचुर होती है।
‘पैग-पैग पर बाजरा, मेंढक कुदैनो ज्वार। / ऐसे बोवै जो कोई, घर का भरे भण्डार।.’ इस पच्चीस मात्रिक महावतारी जातीय छंद के
अनुसार कदम-कदम पर बाजरा और मेंढक की छलाँग बराबर दूरी पर ज्वार बोनेवाला घर का
भण्डार भर लेता है।
२३ मात्रिक रौद्राक जातीय १२-११ चरणीय छंद में
पुनरावृत्ति अलंकार के साथ जौ, चना और गन्ना संबंधी सीख देखें: ‘छीछी भली जौ-चना,
छीछी भली कपास। / जिनकी छीछी उखड़ी, उनकी छोडो आस।’ जौ, चना और कपास छिछली (दूर-दूर) बोई जाए तो
अच्छी फसल देती है किंतु गन्ना छिछला हो तो फसल की आशा छोड़ देना चाहिए।
११-१३ चरणीय २४ मात्रिक सोरठा और रोला छंद में
श्रेष्ठ कृषक के लक्षण देखिए: ‘बीघा बायर बॉय, बाँध जो होय बँधाए। / भरा भुसला होय, बबुर जो होय बुआए। / बढ़ई बसे समीप, बसूला बाढ़ धराए। / पुरखिन होय सुजान, बिया बोउनिहा बनाए। / बरद बगौधा होए, बदरिया चतुर सुहाए। / बेटवा होय सपूत, कहे बिन करे कराए।’ सच्चा किसान वह है जिसने बड़े-बड़े खेतों में पानी
रोका हो. उसका भूसा घर भरा हो. बबूल के वृक्ष लगाए हों. उसके निकट बसूले पर धार
रखे बढ़ई हो, उसकी पत्नी खेतों में समय-समय पर बोए जानेवाले बीजों की अच्छी जानकार
हो जो बीज तैयार रखती हो। उसके बैल अच्छे, हलवाहे
चतुर और बेटा सपूत हो जो बिना कहे गृहस्थी के सब काम करता हो.
१५ मात्रिक तैथिक जातीय छंद में ऋतु अनुसार भोजन
संबंधी संकेत आयुर्वेद चिकित्सा से भी जुड़ते हैं- ‘सावन हर्रे भादों चीत, क्वांर
मास गुड़ खायउ मीत। / कार्तिक मूली अगहन तेल, पूस में करे दूध से
मेल। / माघ मास घी-खिचड़ी खाय, फागुन उठि के प्रात
नहाय। / चैत मास में नीम बेसहती, बैशाखे में खाय
जड़हथी। / जेठ मास जो दिन में सोवे, / ओकर जर असाढ़ में
रोवै।’
भड्डरी की कहावतें:
‘सुक्रवार की बादरी, रहे सनिस्चर छाय। तो यो
भाखे भड्डरी, बिन बरसे नहिं जाय।‘ इस दोहे के अनुसार भड्डरी कहती हैं यदि शुक्रवार
के बादल शनिवार तक छाए रहें तो बिना बरसे नहीं जाते।
‘माघ उजारी दूज दिन, बादर बिज्जु समोय। / तो
भाखै यों भड्डरी, अन्न जु मँहगो होय।‘ माघ शुक्ल दूज के दिन बदल-बिजली हो तो
भड्डरी कहती हैं कि अनाज मँहगा होगा।
‘माघ सुदी जो सप्तमी, भौमवार को होय। / तो
भड्डरी जोसी कहै, नाज किरानो लोय।।‘ यदि माघ शुक्ल सप्तमी मंगलवार को पड़े तो
भड्डरी ज्योतिष का कहना है कि अनाज सड़ेगा।
‘भादों बदी एकादसी, जों ना छिटकें मेघ। चार
मास बरसें नहीं, कहे भड्डरी पेख।।’ भड्डरी विचार कर कहती हैं यदि भादों बदी एकादशी
को आकाश में मेघ हों तो चार माह तक वर्षा न होगी।
‘जेठ उजारी तीज दिन, आद्रा रिष बरसंत। / जोसी
भाखै भड्डरी, दुर्भिख अवसि करंत।।‘ ज्येष्ठ शुक्ल तीज के दिन आर्द्रा नक्षत्र में
पानी बरस जाए तो ज्योतिष भड्डरी कहती हैं कि अकाल अवश्य पड़ेगा।
‘रात निर्मली दिन को छाँही। कहे भड्डरी पानी
नाहीं।।‘ – चौपाई
कृतिका जो कोरी गई, आर्द्रा मह न बुंद। तो
यों जानो भड्डरी, काल मचावे दुंद।। -दोहा
‘जो कहुँ हवा इकासे जाय, परै न बूँद काल परि
जाय। दक्खिन-पश्चिम आधो समयों, भद्दर जोसी ऐसे भन्यो।। यादो आसाढ़-सावन में हवा
बादलों को उड़ा अले जाए तो पानी बिलकुल नहीं बरसेगा, अकाल होगा। भद्दर ज्योतिषी का
कथन है कि दक्षिण-पश्चिम देश में आधी फसल होगी।
घाघ और उनकी पत्नी भड्डरी दोनों छंदों के अच्छे
जानकार, प्रकृति-पर्यावरण, कृषि-ज्योतिष, आयुर्वेद आदि विविध विषयों के अच्छे
जानकार थे. उनकी कई कहावतें प्रश्नोत्तर रूप में भी हैं। ‘आदि न बरसे आदरा हस्त न बरस निदान। / कहे
घाघ सुन भड्डरी, भये किसान पिसान।‘। घाघ कवि भड्डरी से कहते हैं- यदि वर्षा काल के
आरम्भ में आर्द्रा नक्षत्र में जल न बरसे, बाद में हस्त नक्षत्र में पानी न बरसे
तो किसान पिस जाता है।
‘उत्तर चमकै बीजुरी, पूरब बहती बाउ। / घाघ
कहै सुन भड्डरी, बरधा भीतर लाउ।।‘ इस दोहा में भड्डरी से घाघ कहते हैं: ‘जब उत्तर
दिशा में बिजली चमके, पूर्व दिशा से वायु बहे तो बैल भीतर बाँध लो, शीघ्र वर्षा होगी.
‘रोहिन बरसे मृग तपे, कुछ-कुछ अद्रा जाय। /
घाघ कहें घाघिन से, स्वान भात नहिं खाय।‘ घाघ कवि अपनी पत्नी घाघिन से कहते हैं
मृगशिरा नक्षत्र में गर्मी हो, रोहिणी नक्षत्र में जल बरसे, अद्रा नक्षत्र में कुछ
दिनों बाद पानी बरसे तो क्वांर की फसल इतनी अच्छी होगी कि कुत्ते तक भात नहीं
खाएँगे।
‘सावन सुकला सप्तमी, गगन स्वच्छ जो होय। कहे
घाघ सुन भड्डरी, पुहुमी खेती होय।’ यदि श्रवण शुक्ल सप्तमी को आकाश साफ़ हो तो खेती
कमजोर होगी।
घाघ-भड्डरी ने तुक मिलते समय कई जगह लघु या
गुरु की समानता पर्याप्त मानी है, वार्णिक समनाता को अनुल्लंघनीय नहीं माना है।
जैसे: ‘चैत मास में नीम बेसहती,
बैशाखे में खाय जड़हथी’ चैत मास में नीम बेसहती, बैशाखे में खाय जड़हथी एक और उदाहरण
देखें: ‘छीपा छेड़ी ऊँट कोंहार। पीलवान अरु गाडीवान। / आक जवासा वैश्या बानी। दसों दुखी जब बरसे पानी।‘ पानी
बरसें पर रंगरेज, बकरी, ऊँट, कुम्हार, पीलवान, गाडीवान, मदारी, वैश्या, औए बनिया
ये दसों दुखी रहते हैं।
कहीं-कहीं छंद के चरणों में असंतुलन भी है:
‘थोड़ा जोत बहुत हेंगावै, ऊँच न बाँधै आड़। / ऊँचे पर खेती करै, पैदा होवै भाड़।
(१६-११ / १३-११) जो किसान खेत कम जोतता और हल्ला अधिक करता है, खेत में मेंड़ ऊँची
नहीं बंधता और खेती ऊँचाई पर करता है उसके खेत में भाड़ (कांटेदार पेड़) के लावा और
क्या होगा?
माघ में टारे, जेठ में जारे, भादों सारै। / तेकर
महरी डेहरी पारै।। (९-९-८ / ८-९) जो माघ में खेत की जुताई कर, कचरा-जेठ में जलाएगा,
भादों में खेत में मिट्टी सड़ाएगा, उसकी घरवाली अन्न पात्र में अन्न भरेगी।
उत्तम खेती, मद्धम बान। / अधम चाकरी, भीख निदान।। पंद्रह मात्रिक
तैथिक जातीय गुपाल छंद।
घाघ-भड्डरी की कहावतों की भाषा और
छंद-विन्यास से तात्कालिक भाषा, छंद-विविधता और छंद-विधान की जानकारी मिलती है।
कुछ भ्रम भी टूटते हैं। दो या अधिक छंदों का सम्मिश्रण, देशज शब्द-प्रयोग,
तुकांत-नियमों पर कथ्य को वरीयता, वार्णिक साम्य के स्थान पर मात्रिक साम्य को
प्रमुखता आदि से छंद-विकास का अनुमान किया जा सकता है तथा छंद रचना में किस तत्व
को कितना महत्व देना है, यह अनुमान भी किया जा सकता है। सन्दर्भ: १. बुन्देलखंडी
लोकगीत –शिवसहाय चतुर्वेदी, २. बुंदेलखंड के लोकगीत –उमाशंकर शुक्ल, ३. बुंदेली
लोक साहित्य –डॉ, रामस्वरूप श्रीवास्तव ‘स्नेही’, ४. मामुलिया पत्रिका विविध अंक, ५.
फागों में लोक रंग –आचार्य भगवत दुबे, ६. सड़गोड़ासनी –रुद्रदत्त दुबे ‘करुण’, ७. राम
नाम सुखदाई –शांति देवी वर्मा, ८. सुहानो लगे अंगना (गारी संग्रह) शकुंतला खरे, ९.
मिठास लोकगीत संग्रह –शकुंतला खरे, डॉ. मुक्ता श्रीवास्तव।
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