कुल पेज दृश्य

सोमवार, 11 जून 2018

कार्यशाला: रचना-प्रतिरचना राकेश खंडेलवाल-संजीव

कार्यशाला:
रचना-प्रतिरचना राकेश खंडेलवाल-संजीव
*
गीत
संस्कार तो बंदी लोक कथाओं में
रिश्ते-नातों का निभना लाचारी है
*
जन्मदिनों से वर्षगांठ तक सब उत्सव
वाट्सएप की एक पंक्ति में निपट गये
तीज और त्योहार, अमावस पूनम भी
एक शब्द "हैप्पी" में जाकर सिमट गये
सुनता कोई नही, लगी है सीडी पर
कथा सत्यनारायण कब से जारी है
*
तुलसी का चौरा, अंगनाई नहीँ रहे
अब पहले से ब​हना-भाई नहीं रहे
रिश्ते जिनकी छुअन छेड़ती थी मन में
मधुर भावना की शहनाई, नहीं रहे
दुआ सलाम रही है केवल शब्दो में
और औपचारिकता सी  व्यवहारी हैं
*
जितने भी थे फेसबुकी संबंध हुए
कीकर से मन में छाए मकरंद हुये
भाषा के सब शब्द अधर की गलियों से
फिसले, जाकर कुंजीपट में बंद हुए
बातचीत की डोर उलझ कर टूट गई
एक भयावह मौन हर तरफ तारी है
***
प्रतिगीत:
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
*
भाव भूलकर क्यों शब्दों में सिमट गए? 
शिव बिसराकर, शव से ही क्यों लिपट गए?
फ़िक्र पर्व की, कर पर्वों को ठुकराया-
खुशी-खुशी खुशियों से दबकर चिपट गए। 
व्यथा-कथा के बने पुरोहित हम खुद ही- 
तिनका हो, कहते: "पर्वत पर भारी" क्यों? 
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
*
किसकी इच्छा है वह सच को सही कहे?
कौन यहाँ पर जो न स्वार्थ की बाँह गहे?
देख रहे सब अपनेपन के किले ढहे-
किंतु न बदले, द्वेष-घृणा के वसन तहे। 
यक्ष-प्रश्न का उत्तर, कहो! कौन देगा-
हुई निराशा हावी, आशा हारी क्यों?
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
*
क्षणभंगुर है सृष्टि सत्य यह जान लिया। 
अचल-अटल निज सत्ता-संतति मान लिया।
पानी नहीं आँख में किंचित शेष रहा-
धानी रहे न धरती, हठ यह ठान लिया।   
पूज्या रही न प्रकृति, भोग्या मान उसे
शोषण कर बनते हैं हमीं पुजारी क्यों?
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
*
कक्का-मम्मा, मौसा-फूफा हार गए,
'अंकल' बिना लड़े रण सबको मार गए।  
काकी-मामी, मौसी-फूफी भी न रहीं-
'आंटी' के पाँसे नातों को तार गए। 
हलो-हाय से हाय-हाय के पथ पर चल-
वाह-वाह की सोचें चाह बिसारी क्यों?.
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
*
मुखपोथी से जुड़े, न आँखों में देखा 
नेह निमंत्रण का करते कैसे लेखा?
देह देह को वर हँस पुलक विदेह हुई-
अंतर्मन की भूल गयी लछमन रेखा।  
घर ही जिसमें जलकर ख़ाक हुआ पल में-
उन शोलों को कहा कहो अग्यारी क्यों?
संस्कार क्यों बंदी लोक कथाओं के?
रिश्तों-नातों का निभना लाचारी क्यों?
***
११.६.२०१८, ७९९९५५९६१८ 

                                                                     

कोई टिप्पणी नहीं: