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रविवार, 10 जून 2018

साहित्य त्रिवेणी १५. डॉ. साधना वर्मा बुंदेली छंद परंपरा और चौकड़िया फाग

शोधलेख:
बुंदेली छंद परंपरा और चौकड़िया फाग
प्रो. (डॉ.) साधना वर्मा
परिचय: जन्म १२.९.१९५६ बिलासपुर छत्तीसगढ़, अर्थशास्त्र में सोयाबीन उद्योग पर शोध कार्य, प्रकाशन: अनश शोध पत्र, बीज वक्तव्य आदि। सम्प्रति: सहायक प्राध्यापक शासकीय मानकुंवर बाई स्वशासी स्नातकोत्तर अर्थ-वाणिज्य महाविद्यालय जबलपुर, संपर्क: समन्वय २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष:०७९९९८५४३५४
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आधुनिक हिंदी की आधारशिला रखनेवाली लोकभाषाओं में बुंदेली का स्थान अग्रगण्य है। बुंदेली साहित्यिक हिंदी और लोक भाषाओँ के मध्य सेतु बनाने में समर्थ है। इसका आशय यह कदापि नहीं है कि बुंदेली या अन्य कोई लोक भाषा हिंदी की स्पर्धी हो सकती है। हिंदी का कल्पवृक्ष भारतीय लोकभाषाओं की भूमि से प्राणशक्ति लेकर ही अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित हुआ है।बुंदेली, बघेली, बृज, अवधी, भोजपुरी, मैथिली, मगही, छत्तीसगढ़ी, मारवाड़ी, हाडौती, मेवाड़ी, शेखावाटी, काठियावाड़ी, मालवी, निमाड़ी, बिजनौरी, कन्नौजी, मिर्जापुरी, लश्करी, बाँगरू (हरयाणवी), कुमाऊनी, गढ़वाली आदि-आदि अनेक लोक भाषाएँ हिंदी के वर्तमान रूप के विकास में सहायक रही हैं। हिंदी के शब्द भंडार में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, पैशाची, नेपाली, पंजाबी, सिंधी, कोंकडी, उड़िया, असमिया, कश्मीरी, मणिपुरी, मराठी, गुजराती, बांगला, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, अरबी, फारसी, तुर्की, रूसी, अंग्रेजी, जापानी, जर्मन आदि-आदि भाषाओँ के शब्द सम्मिलित हैं और नित नए शब्द जुड़ते जा रहे हैं। हिंदी अपनी प्रबल पाचन शक्ति से जितने अधिक शब्दों को पचा सकेगी उतनी ही अधिक प्रभावी होकर विश्ववाणी बन सकेगी
बुंदेली का विकास और इतिहास
बुंदेली अंचल को पौराणिक काल से अब तक चेदी, दाहल, दशार्ण (१० नदियों नर्मदा, यमुना, चंबल, केन, टौंस या तमस, हिरन, तवा, सुनार, धसान, बेतवा का क्षेत्र), पुलिंद, सावर तथा विंध्य क्षेत्र आदि अनेक संज्ञाओं से अभिषिक्त किया गया है। आधुनिक बुंदेलखंड दसवीं सदी के पश्चात् अस्तित्व में आने लगा था। चंदेलों और बुंदेलों ने इस क्षेत्र के शौर-पराक्रम की विजय पताका दूर-दूर तक फहराई। इस क्षेत्र के विविध अंचलों में बुंदेली के विविध रूप प्रचलित हैं। उत्तर में मुरैना में विजयपुरी तथा सिकरवारी, पश्चिमी मुरैना में बड़ोदई, ग्वालियर में ग्वालियरी तथा आगरा के दक्षिणी भाग में बृज मिश्रित भदावरी, श्योपुर मुरैना में राजस्थानी मिश्रित बुंदेली प्रचलित है. दक्षिण में छिंदवाड़ा जिले के अमरवाडा–चौरई तथा मध्य सिवनी में शुद्ध बुंदेली, सौंसर तथा दक्षिणी सिवनी में मराठी मिश्रित बुंदेली बोली जाती है। पूर्व में उत्तर प्रदेश के जालौन, हमीरपुर मध्यप्रदेश के पूर्वी छतरपुर, पन्ना, उत्तरी-पूर्वी जबलपुर में बुंदेली का बोलबाला है। उत्तर-पश्चिमी हमीरपुर और दक्षिणी जालौन में लोधान्ती, रात में राठौरी, केन नदी के तटवर्ती क्षेत्र में कुंडरी, यमुना नदी के तटवर्ती क्षेत्र में तिरहारी, इसके दक्षिण-पश्चिमी भाग में बनाफरी, पूर्वी जालौन में निभट्टा, कटनी के निकट पचेली आदि लोकभाषाएँ बुंदेली के ही रूप हैं। पश्चिम में मुरैना, श्योपुर, शिवपुरी, गुना में बुंदेली राजस्थानी से गलबहियाँ डाले है। सीहोर में बुंदेली और मालवी तथा हरदा में बुंदेली और निमाड़ी मिश्रित हैं जिसे ‘भुवाने की बोली' कहा जाता है। मध्य में दतिया, छतरपुर, झाँसी, टीकमगढ़, सागर, दमोह, जबलपुर, रायसेन, होशंगाबाद, और नरसिंहपुर जिलों में शुद्ध बुंदेली के साथ खड़ी हिंदी का शुद्ध रूप प्रचलित है।
बृज, कन्नौजी और बुंदेली का उद्भव पांचाली शौरसेनी के पाली, प्राकृत तथा मध्यदेशीय अपभ्रंश से छठवीं से बारहवीं सदी के मध्य हुआ है। डॉ. हरदेव बाहरी ने इस अंचल को आर्यों का प्राचीनतम स्थान सारस्वत प्रदेश, ब्रम्ह्वर्त या ब्रम्ह्पीठ कहा है। डॉ. होनार्ल के अनुसार पंजाबी-राजस्थानी और पूर्वी हिंदी प्रथम आर्य समुदाय की तथा पश्चिमी हिंदी द्वितीय आर्य समुदाय की भाषा थी। डॉ. ग्रियर्सन के अनुसार पतंजलि के काल तक उत्तर भारत में अनेक बोलियाँ थीं। इनमें से एक बोली का विकास संस्कृत के रूप में हुआ। आर्यों के संपर्क की भाषाएँ प्राकृत (लोक प्रकृति में विकसित) कही गईं, संस्कृत अप्राकृत (देवताओं और ऋषियों की) भाषा थी। नाट्यशास्त्र के रचयिता भरत ने प्राकृत के ७, साहित्यदर्पणकार ने १२, लंकेश्वरकार ने १६ तथा प्राकृत चंद्रिकाकार ने २७ प्रकार बताये हैं। मध्यदेशीया प्राकृत ही बुंदेली का मूल है। इस काल में वाचिक परंपरा का बोलबाला था
बुंदेलखंड की वाचिक छंद परंपरा:
बुंदेलखंड में वाचिक लोकगीतों, लोककथाओं तथा लोककाव्य की प्रवृत्ति इसी काल की देन है। प्राकृत के प्रथम विकास काल में बुंदेलखंड में पाली के बीज जमने लगे। नाग, वाकाटक राजवंशों ने प्राचीन वैदिक धर्म को पौराणिक कहकर पुनर्स्थापित करने के प्रयास किये तथा खुद को अधिक सुसंस्कृत मानते हुए पाली का प्रयोग कर रहे प्रथम आर्य समुदाय को पिशाच और उनकी भाषा को पैशाची कहा। विंध्य प्रदेश में इसी पैशाची में ‘बड्डकहा’ की रचना हुई। व्याकरणकार वररुचि ने ‘पैशाची प्रकृति: शौरसेनी’ लिखकर दोनों में साम्य को इंगित किया है। भरत मुनि (३ री सदी) ने अपभ्रंश नहीं ‘देशभाषा’ का उल्लेख किया है। वररुचि ने भी अपभ्रंश का उल्लेख नहीं किया किंतु गुहसेन (विक्रम ६५० से पूर्व) तथा भामह (७वी सदी) ने संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश तीनों का उल्लेख किया है। १० वीं-११ वीं सदी में शौरसेनी तथा बुंदेली का उद्भव हुआ। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार अपभ्रंश कोई स्वतंत्र भाषा नहीं लोक भाषा थी। बुंदेली लोककाव्य का उद्भव इसी काल का है। १२ वीं सदी में जगनिक रचित आल्हा लगभग ७०० वर्षों तक वाचिक परंपरा में गाया जाकर १८६५ में लिपिबद्ध किया गया। १८९८ विक्रम (१८४१ ईस्वी) में जन्में ईसुरी की फागें भी वाचिक परंपरा में ही जन-स्मृति में सुरक्षित रहीं। बुंदेली का अनन्य छंद सड़गोड़ा (सड़गोड़ासनी) भी लोक-कंठ में ही पलता-पुसता रहा
आशुकवि ईसुरी
चैत्र शुक्ल १० गुरुवार, संवत १८९८ (१८४१ ईस्वी) को ग्राम मेंड़की, तहसील मउरानीपुर, जिला झाँसी में जन्मे मूर्धन्य आशुकवि ईसुरी (ईश्वर प्रसाद तिवारी) का निधन अगहन बदी ७ शनिवार, संवत १९९६ (१९०९ ईस्वी) को ग्राम गुरन धवार में हुआ। वे पं. भोलानाथ अरजरिया (तिवारी) तथा गंगादेवी के ३ पुत्रों में सबसे छोटे थे। ईसुरी की फागें बुंदेली लोक जीवन की जीवंत छवियों, श्रृंगारपरकता, वैयक्तिक जीवनानुभवों तथा दार्शनिक अभिव्यक्तियों के लिए प्रसिद्ध हैं। सामन्यत: फागें वसंतोत्सव पर गाई जानेवाली काव्य रचनाएँ हैं पर दैवी प्रतिभा संपन्न ईसुरी ने उन्हें व्यापक उच्च पीठिका पर प्रतिष्ठित कर रूप-सौंदर्य, प्रेम-तत्व, भाव-सौष्ठव, लोक-रंग, नीति-दर्शन, सांस्कृतिक चेतना, लोक कला और गायकी की सनातन वाचिक परंपरा का पर्याय बना दिया। आंग्ल कवि वर्ड्सवर्थ के शब्दों: ‘पोएट्री इज द स्पोनटेनियस फ्लो ऑफ़ पावरफुल फीलिंग्स.’ (कविता प्रबल अनुभूतियों का तात्कालिक प्रवाह है) को चरितार्थ करते ईसुरी का आशु कवित्व बेमिसाल था। वे जहाँ जो देखते उस पर तत्क्षण ही फाग कह देते थे। इस संदर्भ में वे आदिकवि वाल्मीकि (जिन्होंने मिथुनरत क्रौंच व्याध द्वारा वध किये जाने पर क्रौंची के करुण क्रंदन को सुनकर प्रथम काव्य कहा: ‘माँ निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती समा:. / यत्क्रौंच मिथुनादेकमवधी: कामंमोहितम..’) के वंशज थे
ईसुरी और फाग:
ईसुरी के माता-पिता का निधन हो जाने के पश्चात् उनके मामा उन्हें अपने साथ ले गए और दत्तक पुत्र की तरह रखा। ईसुरी की शिक्षा सुव्यवस्थित हो सकी। संभवत: उन्हें पिंगल/छंद शास्त्र की भी शिक्षा मिली और जन्मजात रुचि होने के कारण वे अल्प प्रयास से इसमें पारंगत हो गए। डॉ. श्यामसुंदर ‘बादल’ के अनुसार “चौकड़िया फाग-गीतों का उद्भव ईसुरी के ह्रदय से हुआ, तदनंतर उनमें छंद की खोज की गयी।” यह मत ईसुरी के प्रति अति श्रद्धा से प्रेरित प्रतीत होता है। इस मत की स्वीकार्यता के लिए आवश्यक है कि फाग में प्रयुक्त छंद ईसुरी के पहले किसी अन्य कवी ने प्रयोग में न लाया हो। इसका परीक्षण करने के लिए ईसुरी द्वारा छंद प्रयोग के समय और अन्य कवियों वारा छंद प्रयोग के समय की तुलना करनी होगी तथा ईसुरी को फाग लिखते समय उनकी जानकारी में छंद था या नहीं यह भी देखना होगा।
अयोध्याप्रसाद गुप्त ‘कुमुद’ के अनुसार “समृद्ध परिवार में ईसुरी की शिक्षा-दीक्षा भी शास्त्रोक्त विधि से उसी गाँव के पंडित जमुनाप्रसाद तिवारी की ग्रामीण पाठशाला में हुई।” बुंदेलखंड में आल्हा गायकी, फाग गायकी, कजरी गायकी, राई गायकी आदि के ‘फड़’ (वह स्थान जहाँ विविध कलाकार या दल अपनी कला का प्रदर्शन करते थे) जमते थे यह परंपरा चिरकाल से है।भारतीय शिक्षा प्रणाली में चिरकाल से संस्कृत और हिंदी की शिक्षा में व्याकरण के अंतर्गत प्रमुख छंद पढ़ाए जाते हैं। ईसुरी को बचपन से काव्य में रुचि थी। स्वाभाविक है कि उन्होंने पूर्व पीढ़ी के फाग-गायकों की फागें सुनी- गुनी होंगी और उस लय का स्मरण-अनुकरण कर फागें बनाना आरंभ किया होगा। उल्लेखनीय है कि हिंदी छंदशास्त्र का सर्वमान्य ग्रंथ जगन्नाथप्रसाद ‘भानु’ (जन्म ८-८-१८५९, निधन २५ अक्टूबर १९४५) कृत “छंद प्रभाकर” है जिसका प्रथम संस्करण जून १८९४ में प्रकाशित हुआ। इसके पूर्व छंदोमंजरी, वृत्तरत्नाकर, छंदोंविनोद, छंदसार तथा छंदविचार आदि पिंगल ग्रंथ पहले से उपलब्ध होने की जानकारी भानु जी ने स्वयं प्रथम संस्करण के परिचय में दी है। स्पष्ट है कि ईसुरी के शिक्षाकाल में पिंगल संबंधी कृतियाँ सहज उपलब्ध थीं। बाल्यकाल में अन्य कवियों की फागें सुनने के अतिरिक्त ईसुरी ने छंद शास्त्र से भी छंदों की जानकारी ली।
मेरा मत है कि ईसुरी के पहले भी फागें रची और गाई गईं। सूरदास रचित निम्न फाग २८ मात्रिक यौगिक जातीय,
काके द्वार जाय सर नाऊँ, परहथ कहाँ बिकाऊँ?
ऐसो को है राजा समरथ, जाके दिये अघाऊँ? –सूरदास (जन्म संवत १४७८, १५३५)
देहु कलाली एक पियाला, अवधू है मतवाला। –रैदास (जन्म संवत १३९८)
जाके प्रिय न राम बैदेही, पाप पंथ को नेही।
तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही। –तुलसीदास (जन्म संवत १५५४)
साधो की संगत दुख भारी, मानौ बात हमारी
छाप-तिलक मल-माल उतारौ, पहिरौ हार हजारी। –मीराबाई (१४९८ / १५७३)
गुरु बिन होरी कौन खिलावै, कोई पंथ लगावै– कायम
स्पष्ट है कि ईसुरी के जन्म से लगभग ४०० वर्ष पूर्व से वह छंद कवियों द्वारा लिखा जा रहा था जिसे ईसुरी ने 'फागण में प्रयोग किया। ईसुरी फाग रचना में प्रवृत्त होते समय इस छंद से ही नहीं अन्य छंदों से भी परिचित थे। बुंदेलखंड के गाँव-गाँव में आल्हा गाया जाता है, राम चरित मानस, हनुमान चालीसा, शिव चालीसा का पाठ होता है। नैष्ठिक ब्राम्हण परिवार में जन्में ईसुरी इन ग्रंथों या उनमें प्रयुक्त छंदों से अपरिचित कैसे हो सकते हैं? फागें भी ईसुरी के पहले कई लोकगायक लिखते रहे थे। इसलिए यह निर्विवाद है कि ईसुरी फागों या उनमें प्रयुक्त छंद के आविष्कारक नहीं हैं यद्यपि इससे उनका महत्त्व नहीं घटता।
ईसुरी का अवदान:
निस्संदेह फाग लेखन में ईसुरी का अवदान सर्वोपरि है। सामान्यत: निम्न वर्ग के मनोरंजन का माध्यम मानकर उपेक्षित और तिरुस्कृत कर दी जाने वाली फाग विधा को ईसुरी ने समाज के श्रेष्ठि वर्ग में प्रतिष्ठा दिलाई। ईसुरी ने फागों को उस ऊँचाई पर पहुँचा दिया जहाँ अन्य कोई उनके समकक्ष न रहा अत:, ईसुरी ही उसके पर्याय व जन्मदाता कहे गए ईसुरी की अधिकांश फागें केवल ४ कड़ियों में पूरी हो जाती हैं। इसीलिये इन्हें चौकड़िया फाग कहा जाता है सूर के पदों में ६-७ कड़ियाँ तथा विनय पत्रिका में तुलसी रचित पदों में १०-१५ कड़ियों तक हैं ईसुरी स्वयं निपुण फाग गायक थे भक्त कवियों के पद मंदिरों में गाए जाते थे जहाँ सभ्य-सुसंस्कृत-शिष्ट जन भाव-भक्ति में डूबकर सुनते थे ईसुरी की फागें ठेठ देहाती ठाठ में फडों, चौतरों पर गाई-सुनी जाती थीं इनके साथ नर्तकी या नर्तक झूम-झूमकर नाचते भी थे ईसुरी ने फागों के कलेवर को नवता देते हुए जीवन के हर रंग को इनमें चित्रित कियाईसुरी रचित एक श्रृंगार परक फाग में नायिका का अनूठा सौंदर्य दर्शनीय है:
तनके सुभ लच्छन सब जागे, दया करन हैं ताके
जनवाई, जड़-पेड़ धीरता, साखा सीलन छाके
अर्थ, धरम अरु काम, मोक्ष फल, पुण्य पुरातन जाके
पतिव्रता के कर्म-धर्म में, उन जस होत उमा के
होत चीकने पात ईसुरी, होनहार बिरवा के
अर्थ: नायिका के तन में सभी शुभ लक्षण हैं दया करनेवाले प्रभु इसकी देख-रेख कर रहे हैं इसकी देह रूपी वृक्ष की जड़ बुद्धिमानी, तना धैर्य है, शाखाएँ शील से भरी-पूरी हैं पूर्व कर्मों का सुफल अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष के रूप में प्राप्य है पातिव्रत्य धर्म के पालन में यह पार्वती जी के समान है ईसुरी कहते हैं कि होनहार वृक्ष के पत्ते चिकने होते हैं
फाग का रचना विधान:
उक्त फाग की हर पंक्ति में २८ मात्राएँ तथा १६-१२ पर यति है पदांत में दो गुरु हैं ये लक्षण सार (अन्य नाम नरेंद्र, ललितपद, दोवै, मराठी छंद साकी) छंद के हैं सार छंद में पदांत में कर्णा (दो गुरु SS) के स्थान पर ISS या SII भी रखा जा सकता है भानु जी ने इससे लय में न्यूनता होने की सम्भावना इंगित की है किंतु तुलसी ने “सादर सुनिए, सादर गुनिए, मधुर कथा रघुबर की”’ में लघु लघु गुरु रखा है, ‘सार यही नर जन्म लहे को, हर पद प्रीति निरंतर’ में गुरु लघु लघु रखा गया है
ईसुरी रचित एक और फाग देखें जिसमें खजुराहो का मेला देखने जा रही नायिका को केंद्र में रखा गया है-
मेला खजुराहो को भारी, चलो देखिये प्यारी।
महादेव के दरसन करियो, पूजै आस तुमारी
भाँत-भाँत के लोग जुरे हैं, कर-कर अपनी त्यारी
कात ईसुरी चल कें देखो, दिल खुस हूहे भारी
ईसुरी ने जिस प्रकार बुंदेली फाग की प्राण प्रतिष्ठा की, उसका अनुकरण करने की आज फिर आवश्यकता है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली, विदेशों में नौकरी का लोभ और अंग्रेजी बोल कर खुद को गौरवान्वित अनुभव करने की भावना ने हिंदी की राह रोकने का दुष्प्रयास किया है। भौतिकता के मोहपाश में काव्य कला को बिसरा रही युवा पीढ़ी के सम्मुख छंद का महत्त्व फिर स्थापित किया जाना आवश्यक है। यह तभी संभव है जब समर्थ कलमें ईसुरी को आदर्श मानकर उनकी तरह स्वभाषा और स्वकाव्य को लोकमानस में प्रतिष्ठित करे। अपने गीत-नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' में चौकड़िया फागों में प्रयुक्त नरेन्द्र छंद के आधार पर नवगीत प्रस्तुतकर इस दिशा में एक कदम आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने उठाया है। देखें एक रचना:
मिलती काय नें ऊँचीवारी / कुर्सी हमखों गुइयाँ...
हमखों बिसरत नईं बिसरे / अपनी मन्नत प्यारी
जुलुस, बिसाल भीर जैकारा / सुबिधा, संसद न्यारी
मेल जाती, मन की कई लेते / रिश्वत ले-दे भइया...
पैले लेऊँ कमीसन भारी / बेंच खदानें सारी
पाछूँ घपले-घोटाले सौ / रकम बिदेश भिजा री
होटल, फैक्ट्री, टाउनसिप / कब्ज़ा लौं गैल-तलैया...
कौनऊ सैगो हमाओ नैयां / का काऊ सेन काने
अपनी दस पीढ़ी कहें लाने / हमें जोड़ धर जानें।
बना लई सोने की लंका / ठेंगे पे राम रमैया ...
ईसुरी की विरासत को सम सामायिक सन्दर्भों में रचित रचनाओं में प्रयुक्त कर नव पीढ़ी के लिए उपयोगी बनाने की चुनौती को स्वीकार कर अपनी भाषा, अपना छंद, अपना संस्कार, अपना संविधान नयी पीढ़ी के मानस में स्थापित करने की राह पर तुरंत बढ़ना ही पहली प्राथमिकता हो।
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