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मंगलवार, 26 जून 2018

साहित्य त्रिवेणी: सम्पादकीय


सम्पादकीय:
प्रिय पाठक!
वंदे भारत-भारती। 
साहित्य: अनुभूति को अभिव्यक्त करने की सुरुचि पूर्ण कला साहित्य की जन्मदात्री है। ’सहितस्य भाव:’ तथा ‘हितेन सहितं’ के निकष पर साहित्य में सबका साथ होना तथा सबके लिए हितकर होना आवश्यक है साहित्य में बुद्धि, भाव, कल्पना तथा कला तत्वों का सम्मिश्रण अपरिहार्य है रसानंद-प्राप्ति हेतु रचित साहित्य का भाव पक्ष लक्ष्य ग्रंथों तथा विचार पक्ष लक्षण ग्रंथों में सामने आता है साहित्य-सिंधु के मंथन से काव्यामृत की प्राप्ति होती है
काव्य: काव्यप्रकाशकार मम्मट के अनुसार ‘तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुन: क्वपीपि’ (काव्य ऐसी रचना है जिसके शब्दों और अर्थों में दोष न हो, गुण अवश्य हों, अलंकार कहीं-कहीं न भी हों’ आचार्य जगन्नाथ के मत में ‘रमणीयार्थप्रतिपादक: शब्द: काव्यं’ (रमणीय अर्थ बतानेवाले शब्द काव्य हैं) अम्बिकादत्त व्यास के मत में ‘लोकोत्तारानंददाता प्रबंध: काव्यानामभाक’ (अलौकिक आनंद देनेवाली रचना काव्य है) महापात्र विश्वनाथ कहते है ‘रसात्मकं वाक्यं काव्यं’ (रसमय वाक्य काव्य है) डंडी काव्य की शोभा अलंकार से मानते हैं (काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते) रुय्यक काव्य में अलंकार को प्रधान मानते हैं (अलंकारा एव काव्य प्रधानमिति प्रच्यानां मतं) वामन के अनुसार काव्य की आत्मा रीति है (रीतिरात्मा काव्यस्य) कुंतक वक्रोक्ति को काव्य का जीवन बताते हैं (वक्रोक्ति: काव्यजीवितं) आनंदवर्धन ध्वनि को काव्य की आत्मा कहते हैं (काव्यस्यात्मा ध्वनिरिति) क्षेमेंद्र ने रस को महत्त्व दिया (औचित्यं रस सिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितं) रुद्रट  के अनुसार कितना भी अधिक यत्न करना पड़े किन्तु काव्य को रसयुक्त होना ही चाहिए (तस्मात्कर्तव्यं यत्नेन महीयासा रसैर्युक्तं) अग्निपुराणकार के अनुसार वाग्वैदग्ध्य प्रधान होने पर भी काव्य का प्राण ‘रस’ ही है (वाग्वैदग्ध्यप्रधानेsपि रस एवात्र जीवितं) काव्य के विविध तत्वों को अंतत: रस का सहायक प्रतिपादित किया गया- ‘तेन रस एव वस्तुत आत्मा वस्त्वलंकारध्वनि तु सर्वथा रसं प्रति पर्यवस्येते’ (रस ही वस्तुत: काव्य की आत्मा है, वस्तु-ध्वनि व अलंकार –ध्वनि अंतत: रस की सहायक मात्र हैं महापात्र विश्वनाथ समन्वय करते हुए कहते हैं: ‘शब्द-अर्थ काव्य पुरुष के शरीर, रस और भाव आत्मा, शूरता-दया-दाक्षिण्य के समान माधुर्य-ओज-प्रसाद आदि गुण हैं कानापन-बहरापन-भेंगापन के समान श्रुतिकटुत्व व च्युत संस्कृतित्व काव्य के दोष हैं वैदर्भी-पांचाली-गौडी रीतियाँ काव्य पुरुष के अवयवों का सुडौलपन है जबकि शब्दगत और अर्थगत अलंकार कुंडल-कंकण की भाँति अलंकार हैं छोटी पद्य  रचनाएँ मुक्तक आदि ‘कविता’ तथा बड़े पद्य ग्रन्थ ‘काव्य’ हैं काव्य के अंतर्गत सिद्धांतत: गद्य भी है       
काव्योद्देश्य: अलौकिक आनंद, उपदेश, मानवीय राग का सृष्टि के साथ सामंजस्य, कार्य में प्रवृत्त करना, स्वभाव शोधन आदि काव्य के उद्देश्य कहे गए हैं दृश्य तथा श्रव्य काव्य के २ प्रकार हैं श्रव्य काव्य के २ भेद वाच्यार्थपरक तथा व्यंग्यार्थपरक हैं अर्थ की रमणीयता के आधार पर ध्वनि काव्य को उत्तम, व्यंग्य काव्य को माध्यम तथा चित्र काव्य को अधम कहा गया है
छंद: प्रस्तुत अंक पद्य और छंद के अंतर्संबंध पर केंद्रित है छंद को आत्मा और पद्य को शरीर कह सकते हैं ध्वनि छंदबद्ध होकर पद्य रूप में आनंदित करती है चयनित छंदों के विधान और उदाहरण पर आधारित कई पत्रिकाओं के विशेषांक प्रकाश में आ चुके हैं साहित्य त्रिवेणी के इस अंक में नव रचनाकारों के लिए संस्कृत-काल से प्राप्त वैदिक-लौकिक छंदों की विरासत, संगीत, नृत्य और साहित्य में छंद, लय, गति आदि की अवधारणा, आंचलिक लोकगीतों में छंद, जीवन के विविध क्षेत्रों (बाल शिक्षा, कृषि, चिकित्सा, यांत्रिकी, जनसंपर्क आदि) में छंद की भूमिका की पड़ताल का प्रयास संभवत: पहली बार किया गया है लीक से हटकर ऐसे अध्ययन और लेखन के लिए अधिकांश प्रतिष्ठित (?) हस्ताक्षरों का आगे न आना जटिल संपादकीय दायित्व को जटिलतर बनाता रहा 
गत ४ दशकों से छंद-पठन और छंद-रचना से निरंतर जुड़े रहने और २ दशकों से छंद कोष हेतु नव छंदों के प्रणयन के प्रतिबद्धता ने छंद से जुड़े अनेक आयामों से परिचय कराया है। कुछ इस अंक में स्थान पा सके हैं, शेष फिर कभी सामने लाए जाएँगे। वाचिक छंदों में लयाधारित मात्रा-गणना एक इसी ही संकल्पना है जिस पर अभी तक विचार नहीं हुआ है। हिंदी के किताबी प्राध्यापक और रचनाकार ध्वनि-खंड (सिलेबल्स, रुक्न) को वर्ण या मात्रा से हटकर उच्चार समय के आधार पर गिनने से परहेज करते हैं। वे भूल जाते हैं कि भाषा ओर छंद का जन्म और विकास 'लोक' में होता है, किताबों में नहीं। लोक-काव्य में 'छंद' की प्राण-प्रतिष्ठा हो जाने के बाद अध्येता उसके लक्षण तलाशकर किताब-बद्ध करते हैं। सलिल-धार की तरह सर्वाधिक लचीली काव्य विधा का विधान पत्थर की तरह रूढ़ कैसे हो सकता है? लय-खंडाधारित जापानी छंदों को वर्णाधारित कर, तुकबन्दी के माध्यम से सरसता लाने के दुष्प्रयास ने हिंदी हाइकु को विश्व की अन्य भाषाओं में हाइकु-लेखन हाइकु से सर्वथा अलग कर दिया है। यही जड़ता दोहा छंद के विषम चरण की ग्यारहवीं मात्रा को लघु रखने में दिन-ब-दिन बढ़ रही है। हिंदी छंद-लेखन में बाल की खाल निकलने की दुष्प्रवृत्ति के फलस्वरूप युवा पीढ़ी उस उर्दू की गोद में बैठ रही है जिसके शब्द कोष में उसका अपना कोई शब्द ही नहीं है। कमाल यह कि हिंदी छंद-लेखन की चीर-फाड़ करनेवालों को ग़ज़ल जैसी काव्य विधाओं में मात्र गिराने-बढ़ाने पर आपत्ति नहीं होती। इस प्रसंग में अन्य उपयुक्त अवसर पर चर्चा की जा सकेगी।    
आभार उन सभी कलमों का जिन्होंने हिचकते-हिचकते ही सही छंद-लेखन से संबंधित नव विचारों पर लेखन को मूर्त रूप दिया सर्वाधिक आभार साहित्य त्रिवेणी पत्रिका के कर्मठ और हिंदी हेतु प्राण-प्राण से समर्पित संपादक डॉ. कुंवर वीरसिंह शर्मा ‘मार्तण्ड’ का जिन्होंने ‘छंद विशेषांक’ नेकलने के मेरे प्रस्ताव को न केवल सहर्ष स्वीकार किया, इसकी परिकल्पना, सामग्री संचयन, संपादन आदि की पूर्ण स्वतंत्रता भी दी यहाँ तक कि पत्रिका के सामान्य अंक से दो गुने से अधिक सामग्री होने पर दो अंक संयुक्त करने और पुस्तकाकार प्रकाशित करने के विचार से भी सहमति दिखाई अपना सर्वोत्तम प्रयास करने के बाद भी मैं सामग्री समय पर जुटा और संपादित न कर सका, इस विलंब हेतु खेद-प्रकाश के अतिरिक्त मुझ अकिंचन के पास और है ही क्या? मन की अन्तरंग गहराइयों से कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ सभी लेखकों के प्रति जिन्होंने समयाभाव और पूर्व निर्धारित व्यस्तताओं के बाद भी मेरे आग्रह की रक्षा की आभार उन सबका भी जिन्होंने किसी कारणवश लेख नहीं भेजे, वे मेरे ‘तुरुप के इक्के’ हैं, अगले किसी सारस्वत अनुष्ठान में उनके सहारे ही नैया पार लगेगी। यह सकल अनुष्ठान माँ शारदा की प्रेरणा, कृपा और दिशा-दर्शन से इस रूपाकार में आपके सम्मुख है इसमें यत्किंचित जो भी अच्छा है वह माँ और लेखकों का है सबके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। असंख्य कमियाँ और त्रुटियाँ मेरी अक्षमता, अल्पज्ञता और अनुभवहीनता के कारण हैं, उन सबके लिए नतशिर क्षमाप्रार्थी हूँ नई पीढ़ी को इस अंक के माध्यम से ‘छंद’ से जुड़ने और छंद में लिखने की प्रेरणा मिल सके तो यह प्रयास सफल होगा
विश्ववाणी हिंदी की जय। 
हिंदी सेवार्थ समर्पित 
संजीव  
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