श्री श्री चिंतन: दोहा गुंजन
जो पाया वह खो दिया, मिला न उसकी आस। जो न मिला वह भूलकर, देख उसे जो पास।।*हर शंका का हो रहा, समाधान तत्काल। जिस पर गुरु की हो कृपा, फल पाए हर हाल।।* धन-समृद्धि से ही नहीं, मिल पाता संतोष। काम आ सकें अन्य के, घटे न सेवा कोष।।*गुरु जी से जो भी मिला, उसका कहीं न अंत। गुरु में ही मिल जायेंगे, तुझको आप अनंत।।*जीवन यात्रा शुरू की, आकर खाली हाथ। जोड़-तोड़ तज चला चल, गुरु-पग पर रख माथ।।*लेखन में संतुलन हो, सत्य-कल्पना-मेल।। लिखो सकारात्मक सदा, शब्दों से मत खेल।।*गुरु से पाकर प्रेरणा, कर खुद पर विश्वास। अपने अनुभव से बढ़ो, पूरी होगी आस।।.*गुरु चरणों का ध्यान कर, हो जा भव से पार। गुरु ही जग में सार है, बाकी जगत असार।।*मन से मन का मिलन ही, संबंधों की नींव। मन न मिले तो, गुरु-कृपा, दे दें करुणासींव।।*वाणी में अपनत्व है, शब्दों में है सत्य। दृष्टि अमिय बरसा रही, बन जा गुरु का भृत्य।।*नस्ल, धर्म या लिंग का, भेद नहीं स्वीकार। उस प्रभु को जिसने किया, जीवन को साकार।।*है अनंत भी शून्य भी, अहं ईश का अंश। डूब जाओ या लीन हो, लक्ष्य वही अवतंश।।*शब्द-शब्द में भाव है, भाव समाहित अर्थ। गुरु से यह शिक्षा मिली, शब्द न करिए व्यर्थ।।*बिंदु सिंधु में समाहित, सिंधु बिंदु में लीन। गुरु का मानस पुत्र बन, रह न सकेगा दीन।।*सद्विचार जो दे जगा, वह लेखन है श्रेष्ठ। लेखक सत्यासत्य को, साध बन सके ज्येष्ठ।।
७.६.२०१८, ७९९९५५९६१८
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