शोधलेख:
३. लोकनाट्य और करमा-गीतों में वाचिक छंद परंपरा
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
लोक-काव्य और लोक-नाट्य का साथ चोली-दामन का सा
है। मनुष्य के जन्म के साथ रुदन अर्थात ध्वनि में लय और गति-यति का समन्वय छंद का
तथा नेत्र, हाथ-पैर आदि अंग सञ्चालन में अभिनय अर्थात नाट्य का उद्भव देखा जा सकता
है। मनुष्य के तन और मन के विकास के साथ इन दोनों का भी विकास होता रहता है। आदि
मानव ने पशु-पक्षियों से अलग होकर उन्नति पथ पर पग रखते समय उनकी विशेषताओं को
आत्मसात करने का अथक प्रयास ही नहीं किया अपितु उन्हें अधिक विकसित भी किया। शेर
के आगमन की सूचना हूक-हूककर देते वानरों से मानव ने ध्वनि का उपयोग सीखा होगा। पशु-पक्षियों की अपेक्षा अधिक बुद्धि के कारण मानव ने कलकल बहते निर्जर, सनन-सनन-सन
चलती पवन, मेघगर्जन, विद्युत्पात, बरसात
आदि की ध्वनियों को मस्तिष्क में संगृहीत कर अन्य मानव समूहों को सूचित किया होगा।इन ध्वनियों के उच्चारण के साथ उनकी लय, गति-विराम, उतार-चढ़ाव आदि में पारंगत होने
के साथ उन्हें उच्चारित करना और सुनने पर पहचानकर तदनुसार आचरण करना मानव-स्वभाव
हो गया। कालांतर में ध्वनि उच्चारण ने भाषा और लिपि के साथ समन्वित होकर लोक-काव्य
तथा आचरण ने लोक-नाट्य को जन्म दिया होगा।इसलिए लोक-काव्य की आत्मा छंद और लोक-नाट्य
के मध्य अनुभूति और प्रतिक्रिया के तंतु उन्हें सहोदर सिद्ध करते हैं। ‘वाक्यं
रसात्मकं काव्यं’, ‘काव्येषु नाटकं रम्यं’, जैसी अभिव्यक्तियाँ इसी नाते की पुष्टि
करती हैं। समय के साथ दोनों विधाओं का स्वतंत्र विकास होना स्वाभाविक है। आज
स्थिति यह है कि अधिकांश जन लोक-नाट्य में छंद की अनुभूति कठिनाई से ही करते हैं
जबकि छंद में लोक- नाट्य की उपस्थिति को असंभव मान लिया गया है।
काव्य:
शास्त्रानुसार काव्य मन-रंजन का उत्तम साधन है। भारतीय आचार्यों ने आदिकाल से काव्य का सूक्ष्म विवेचन कर स्वरूप निर्धारण का
कार्य किया है। ‘तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृति पुन: क्वपि’ –मम्मट (काव्य रचना
के शब्दार्थों में दोष कतई न हों, गुण अवश्य हों, अलंकार कहीं-कहीं न भी हो हों), ‘काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते’ –दंडी
(काव्य की शोभा अलंकार से है), अलंकारा एव काव्ये प्रधानमिति प्रच्यानाम मतं’ –रुय्यक
(अलंकार ही काव्य में मुख्य है), ‘काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम. व्यसनेषु
च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा.’ (काव्य शास्त्रर विनोद हेतु है),
रमणीयार्थप्रतिपादक: शब्द: काव्यं’ –पं. जगन्नाथ (रमणीय अर्थ प्रतिपादित करनेवाले
शब्द काव्य हैं), लोकोत्तरानंददाता प्रबंध: काव्यनामभाक’ –अंबिकादत्त व्यास
(लोकोत्तर आनंद देनेवाली रचना काव्य है’), ‘रसात्मकं वाक्यं काव्यं’ –महापात्र
विश्वनाथ (रसपूर्ण वाक्य काव्य है), ‘रीतिरात्मा काव्यस्य’ –वामन (रीति काव्य की
आत्मा है), वक्रोक्ति काव्यजीवितं’ –कुंतक (काव्य वक्रोक्ति में जीवित है),
काव्यस्यात्मा ध्वनिरति: -आनंदवर्धन (काव्य की आत्मा ध्वनि और रति में है),
औचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितं; -क्षेमेन्द्र ( रस सिद्धि के औचित्य
में काव्य जीवित है) तथा ‘वाग्वैदग्ध्यप्रधानेsपि रस एवात्र जीवितं’ –आग्निपुरंकार
(वाग्वैधदग्ध्य प्रधान होते हुए भी काव्य का प्राण रस है) कहकर काव्याचार्यों ने
समय-समय पर काव्यांगों और काव्य-रूप का चिंतन किया है।
दृश्य काव्य:
पूर्व के वन मानुष या आज के आदिवासियों में
शिकार करने, शिकार मिलने पर नाचने-गाने, मिल-बाँटकर खाने की परंपरा लोकनाट्य और
लोककाव्य का संगम ही है जिसके मूल में छंद समाहित है। आरंभ में वाचिक परंपरा में
पले-पुसे काव्य रूपी छंद और लोक-जीवन में घुले-मिले लोकाचार रूपी नाट्य को भाषा और
लिपि के विकास ने उसी तरह अलग-अलग किया जैसे एक साथ पलते शिशु विकास के क्रम में
किशोर-किशोरी के रूप में अलग-अलग हो जाते हैं। छंद, गीत, नृत्य और वाद्य एक-दूसरे
के पूरक और रस के कारक हैं। ई. पू. तीसरी सदी में ऋषि नंदिकेश्वर ने काव्य और नाट्य
के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर ‘नांदीपाठ श्री गणेश किया। भरत मुनि द्वारा
रचित ‘नाट्यशास्त्र” तथा महर्षि पिंगल द्वारा रचित ‘छंदशास्त्र’
विश्व वांग्मय की निधि हैं। वैदिक ज्ञान राशि के संहिताकरण में लोक का अभूतपूर्व
योगदान रहा किन्तु सत्ता सूत्र आभिजत्यों के हाथों में केंद्रित होने पर ज्ञान और
अस्त्र संपन्नों और पुरोहितों के हाथ में केंद्रित हो गए। फलत:, उपेक्षित लोक के
आक्रोश का शमन करने हेतु वेदेतर ज्ञान-विधाओं को वेदांग बताकर लोक को उपलब्ध कराया
गया। इस तरह वेद का पैर ’पिंगल या छंदशास्त्र’ तथा पंचम वेद आयुर्वेद व
नाट्यशास्त्र को कहा गया. ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गान, यजुर्वेद से अभिनय तथा
अथर्ववेद से रस लेकर नाट्य-वेद रचना की संकल्पना में लोक-काव्य (छंद) और लोक-नाट्य
(रंगमंच) समाहित हैं ।
कालिदास के अनुसार नाट्यवेद का उद्देश्य ‘नाट्यं
भिन्न रुचेर्जनस्य बहुधाप्येकं समाराधनं’ अर्थात भिन्न रुचि के लोगों का बहुत
प्रकार से मन-रंजन करना है। गीत-संगीत, नृत्य और अभिनय की त्रिवेणी से लोक-नाट्य
को जन्म मिला. तीसरी सदी में सीतावेंगरा सरगुजा तथा मोगीमारा की गुफाओं में
प्रेक्षागृहों की उपलब्धता है। पाणिनि के सूत्रों में नटों का उल्लेख, पतंजलि के
महाभाष्य में नाट्य मंचन, बौद्ध भिक्षुओं के लिए नाट्य-निषेध, उत्तर भारत में ‘रामलीला’
व ‘रासलीला’, मालवा में ‘माच’, राजस्थान में ‘ख़याल’, पंजाब में ‘स्वांग’, पश्चिमी
उत्तर प्रदेश में नौटंकी, ग्राम्यांचलों में ‘स्वांग’, बृज में ‘भगत’, गुजरात में
‘भवाई’, बुंदेलखंड में आल्हा, बम्बुलिया और राई, बंगाल में ‘जात्रा’ और ‘गंभीरा’,
महाराष्ट्र में ‘तमाशा’ और ‘बहुरूपिया’, दक्षिण भारत में ‘यक्षगान’ आदि लोककाव्य
और लोकनाट्य के सम्मिलित रूप रहे हैं जिनके मूल में लोक-छंद धड़कन की तरह रचा-बसा
था। लोक-नाट्य और लोक-काव्य में सरल-सहज लोक-भाषा, ग्रामीण-देशज शब्दावली, न्यूनतम
आलंकारिकता, बोधगम्यता, पारदर्शिता, धार्मिक व सामाजिक प्रसंग, प्रवाहपूर्ण भाषा
शैली, गति-यति-लय का सम्मिश्रण दृष्टव्य है। अभिव्यक्ति के इन दोनों रूपों में छंद
की उपस्थिति ही नहीं, चेतना भी आद्योपांत अनुभव की जा सकती है ।
आदिवासी बाल लोक-नाट्य बाघ-बकरी खेलते समय बच्चे
गाते हैं: ‘अड्डल गड्डल काठे क माला/टेंकीचीरो तोड़ो बाला/ कडुवा तेल कवल की
बाती/ठांय-ठूँय ठस्स/उंचकी छाती दर्द’। यहाँ प्रथम तीन पंक्तियों में संस्कारी
जातीय पादाकुलक छंद की अनगढ़ उपस्थिति सहज दृष्टव्य है ।
अन्य बाल लोक नाट्य दोल्हा-पाती में बच्चे गाते
हैं: ‘अक्कड़-बक्कड़ बंबे बो/अस्सी-नब्बे पूरे सौ/सौ में लागा धागा/चोर निकल
के भागा’। यहाँ प्रथम दो पद मानव जातीय हाकलि छंद की तथा अंतिम दो पंक्तियाँ आदित्य
जातीय छंद की हैं।आजकल नवगीतों में विविध छंदों के मिश्रण (फ्यूजन) को अपनी खोज
बतानेवाले देखें कि यह कार्य उनसे सदियों वर्ष पूर्व अनपढ़ कहे जानेवाले लोक-गायक
कर चुके हैं।
बिहार तथा मध्यप्रदेश के घसिया आदिवासियों
स्त्री-पुरुषों द्वारा किये जानेवाले लोकनाट्य ‘डोमकच’ के समय गाये जानेवाले गीत
‘हँकावे ननदा हो रे!/बछरू चरना हम जाब रे!/हरंका ननदों सातो कियारी/सूगा
लागे हो रे!’ में क्रमश:१३-१५-१८-१२ मात्रा की पंक्तियाँ तथा ८-११-११-६ वर्ण हैं। ‘डोमकच’
नृत्य-गीत की एक अन्य अभिव्यक्ति देखिए- ‘आपन मैना हो मैनाधन,/काहे मैना हो?/काहे भूँजि गइल मैना भुटाना हो/भूँजि देला तीला चउरवा-/मैना आइ गइला हो.’
१६-१०-२१-१६-१३ मात्रा (१०-५-१३-१०-८ वर्ण) के इस लोकगीत का छंद खोजने और रचने की
चुनौती क्या कभी वे कूप-मंडूक स्वीकार सकेंगे जो दोहे के विषम चरण में ‘सरन’ के
अतिरिक्त अन्य गण प्रयोग देखकर छाती कूटने लगते हैं, वह भी तब जबकि छंद प्रभाकर के पूर्व और पश्चात् भी तुलसी, कबीर और
बिहारी जैसे कालजयी दोहाकारों के बीसियों दोहों में ऐसा किया गया है ।
आषाढ़ की पहली बूँदों के साथ क्वाँरी आदिवासी
कन्या वन में किसी धारदार हथियार से एक ही वार में ‘कदंब’ वृक्ष की तीन डालियाँ
काटती हैं। इन्हें अन्य क्वाँरी कन्याएँ भूमि पर गिरने से पूर्व हवा में पकड़कर
मादलवादन के साथ देवस्थान पर बने मंडप में लाती हैं। यहाँ घी, गुड, जल-कलश,
त्रिशूल तथा पक्की शराब आदि पूजा सामग्री एकत्र कर बैगा भूमि में दो वार कर गड्ढा
बनाता है। अन्य व्यक्ति ३ गड्ढे बनाकर युवतियों द्वारा लाई गयी डालियाँ तथा एक डाल
‘भेला’ वृक्ष की गाड़ देते हैं। डाली काटी जाते समय दो पंक्तियाँ गई जाती हैं:
‘करमा जे कटले धांगर तोरे हाथे पगेरा पड़ जाय/आज क रहले करम खूंटा, कालि जइबे
गंगा-तीरे.’ अर्थात हे धांगर! तुमने कदंब की शाख काटी तुम्हारे हाथ में पगेरा पड़
जाएगा। तुम गंगा-स्नान करो। मात्रा पतन को उर्दू की बपौती माननेवाले देखें कि उर्दू
का जन्म होने के सदियों पहले से वनवासी-आदिवासी अपने गीतों में मात्रा-पतन करते
रहे हैं. ३२-३० मात्रा की इन काव्य पंक्तियों का छंद वर्तमान में उपलब्ध किसी
पिंगल-पोथी में नहीं है। कर्म देव की स्थापना करते समय गीत गाया जाता है: ‘के
खनल?, के खनल?/अहरा पोखरे बदग/राजा खनल”. पूजा हेतु लाई गयी
शराब में भक्तों द्वारा लाई गयी शराब मिलकर देव को अर्पित करने के बाद प्रसाद के
रूप में बाँटी जाती है जिसे पीकर सब आदिवासी रात्रीपर्यंत नाचते-गाते हैं:‘जोगिया भिच्छा माँगे कि/झिलमिल पोखरी क पानी.’(१४-१४ मात्रा)
जौ को बालू में
मिलाकर गाँव के हर जाति-वर्ग के घर में नौ दिन पूर्व बाँट दिया जाता है। उसी दिन
जौ जमा (बो) दी जाती है। करमा के दिन उसे देवस्थान पर लाकर अर्धरात्रि में पूजा
की जाती है। इस समय का गीत है: ‘हे! हो! हाथी-घोड़ा से कइले सिंगार/हे! हो! बैगा
के देबो सीधा सेर/घरे रहबू, घर अगोरबू/ना देखबू, काम बिगड़ि जाइ.’(२२-२२, १५-१५
मात्राएँ) अर्थात हाथी-घोड़े आदि ले जाकर देवस्थान की सजावट की गयी है। बैगा को
सेर भर सीधा दिया गया है। हे सखी! तुम घर की रक्षा के लिए रुक गईं, पूजा के लिए
नहीं गईं। जाओ, दर्शन कर आओ, अन्यथा देव रूठ गए तो सब काम बिगड़ जाएँगे।
करमा समरसता,
सहभागिता और सहकारिता का लोकपर्व है। कर्मा गीतों में सामान्य जन के जीवन से
सम्बंधित सुख-दुख, हानि-लाभ, जीवन-मरण, हास-परिहास आदि के दृश्य संगीत की
भाव-लहरियों में अभिव्यक्त किए जाते हैं। करमा गीतों में आलाप की महती भूमिका है। मात्रिक अथवा वार्णिक असंतुलन आलाप द्वारा संतुलित कर लिया जाता है। वाचिक छंद को
मात्रिक या वार्णिक छंद की कसौटी पर कसें तो बहुधा पंक्तियाँ समान न होने से
दुविधा उपस्थित होती है किंतु गायक को कहीं असंतुलन नहीं प्रतीत होता। इसलिए वाचिक लोक-काव्य को छंद की कसौटी पर कसते समय आलाप तथा टेर को भी गणना में लेना
होगा। पहार तरे मुगिया मो
बनके/साईं मोंगिया हरल झबरा के डार/ननदी सिरी किसुना बंसिया बजावे/
ब्रिन्दावन सिरी किसुना बंसिया हो बजावे/कवन बन गइया रे चरावे/ननदी कवन घट
पनिया हो पियावे/ननदी धीरे-धीरे गइया ठुकरावे/ननदी कदम तरे गइया रखवावे/नीबी
तारे बछरू छ्नावे/ननदी अपने कदम चढ़ि जावे/जब लगि अपने कदम चढ़ि जाई/बाघिन
लपसत आवे/केकर धइले छेरिया बछरुवा/ननदी हो केकर धइले धेनुगाय/ननदों हो लइकवा
में कइले बा गोहार/ननद हो कोई नाहीं धवले गोहार/ननदी हो राम-लछिमन धवले गोहार। भावार्थ: वृंदावन में धेनु चराते हुए श्रीकृष्ण कदंब वृक्ष पर चढ़ जाते हैं। तभी एक बाघिन आकर गाय-बछड़ों को मारकर खा जाना
चाहती है, गुहार मचने पर राम-लक्षमण रक्षा के लिए आ जाते हैं।
भुइंया आदिवासियों
का करमा गीत:
लीप-लीप पिपरी क पात
डोले/दीप-दीप उगेले जोन्हइया/तील-तील बढ़ेले गोरी के देहिया/ दड़हर खोजै, बड़हर
खोजै कतहूँ न मिलल जोड़ी जवान/केकर घरे तेल माड़े, केकर घरे ककही/केकर घरे मान
सँवारे/बाँह ले सुरूजा मंड़र खीया/भरि माँग सेन्हुआ भरावै/भरि माथ टिकुल
ढमकावै/टक-टक मथवा निहारे निलजिया।
भावार्थ: पीपल का
पत्ता धीरे-धीरे डोल रहा है, चाँदनी दिपदिपा रही है। किशोरी का तन तिल-तिल कर बढ़
रहा है। यहाँ-वहाँ खोजने पर भी सुयोग्य वर नहीं मिल रहा। किसी के घर से तेल, किसी
के घर से कंघी माँगकर, सिंदुर से माँग भरकर, माथे पर टिकुली लगाकर लाज छोड़कर गोरी अपना रूप आप ही निहारती है।
धांगर आदिवासियों का
करमा गीत:
देवरा दुलरू हव हो/कहि के आवें आधी रतिया/देवरा दुलरू हव हो/घरवा में सूतल रहली/ भउजी एक दिन दुपहरिया/देवरा खिड़की में ठाढ़/तूंत बइठ देवरा माया के पलंगिया/देवरा दुलरू कहें/भउजी हमत बइठब तोहरे पलंगिया/भउजी बइठावे देवरा हो / देवरा दुलरू तूं अइसन मजा पइबा/बहरा तूं घूंमबा अकेल/घरवा म गाव ला गीत हो/देवरा दुलरू हवं हो।
भावार्थ: दुलारा
देवर आधी रात में भाभी के पास क्यों आता है? एक दोपहर देवर खिड़की में खड़ा, घर में
सोती भौजी को निहारता है। भाभी देख लेती है और कहती है कि वह माँ के पलंग पर सो
जाए। देवर जिद करता है कि वह भाभी के पलंग पर ही बैठेगा। भाभी उसे बैठा लेती है। देवर बाहर अकेला घूमता रहता है पर घर में गीत गाता रहता है। देवर दुलारा है।
इस गीत का मुखड़ा तथ
अंतिम पंक्तियाँ भागवतजातीय तथा संस्कारीजातीय सिंह छंद में निबद्ध हैं. पदों में
क्रमश:३७ मात्रिक दंडक छंद का प्रयोग है।
वाचिक परंपरा के लोकगीत पिंगलशास्त्रीय ग्रंथ-सृजन के पूर्व रचे गए या उसी
परंपरा में रचे जा रहे हैं। इन गीतों की रचना मात्रा संख्या या वर्ण संख्या पर
आधारित न होकर उस अंचल विशेष में प्रचलित उच्चारणों और गायन के तरीके पर निर्भर
है। इनमें मात्रा पतन तथा मात्रा जोड़ने की छूट ली गई है। इनकी रचना गायन शैली के
आधार पर की जाती है। लोकनाट्य के कथ्य को उभारने,
रोचकता तथा सरसता वृद्धि के लिए अनजाने ही छंदों का प्रयोग चिरकाल से होता रहा है। वर्तमान
काल में चलचित्रों के गीतों में छंद-प्रयोग निरंतर हो रहा है किंतु आधुनिक रंगमंच
पर छंद-प्रयोग सीमित हो गया है। ग्राम्यांचलों में लोकमंच पर छांदस गीतों का
प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है किंतु उनकी विषयवस्तु स्तरीय नहीं है।
संदर्भ: १. लोकनाट्य मंच की पीठिका- डॉ. अर्जुनदास केसरी व मोहनलाल बाबुलकर,
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