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सोमवार, 16 अक्तूबर 2017

nazm

sankalan@anjumanpublication.com
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
चलभाष: ९४२५१८३२४४ / ७९९९५५९६१८
ई मेल: salil.sanjiv@gmail.com
प्रकाशित पुस्तकें:
१. कलम के देव
२. भूकंप के साथ जीना सीखें
३. लोकतंत्र का मक़बरा
४. मीत मेरे
५. काल है संक्रांति का
६. कुरुक्षेत्र गाथा
पता:
विश्ववाणी हिंदी संस्थान
२०४ विजय अपार्टमेंट,
नेपियर टाउन,
जबलपुर ४८२००१। 
***
नज़्म
१. आम आदमी  
*
मुझे, तुम्हें या उसे
किसे फ़िक्र है?
मरे या जिए
हमारी बलाय से।
मैं अपनी कहूँगा,
तुम अपनी
और वह
वक़्त का मारा
आम आदमी
भूखे पेट
सुनेगा बिना समझे
इस उम्मीद में कि
शायद
आखिर में कुछ हाथ आए
जिससे वह
पेट की भूख मिटा पाए।
लेकिन मैं और तुम
शातिराना चालबाज़ियों से
उसे उलझाए रखेंगे।
जब तक वह
मुझे या तुम्हें
न दे दे मत,
न बैठाल दे कुर्सी पर।
कुर्सी कोई न कोई तो पाएगा 
दूसरा दौड़ में पीछे रह जाएगा
मगर आम आदमी
मत दे, न दे
बद  से बदतर होते हालात में 
जम्हूरियत की तलाश में
मेरे और तुम्हारे आगे-पीछे
एड़ियाँ रगड़ते हुए
न मर पायेगा,
न जी पाएगा,
अपने मुकद्दर को कोसते हुए
ऊपरवाले के हाथ जोड़ते हुए
थककर सो जाएगा।
***
२.काश
*
बकर ईद पर
जिबह जानेवाले बकरे!
तुम बेहतर हो मुझसे।
यह हकीकत है कि
तुम हलाल किये जाओगे।
ऊपरवाले का शुक्र मनाओ
और नीचेवाले का करो शुक्रिया
कि  तुम्हें जिबह करने के पहले
पेट भरने का मौक़ा तो आता किया। 
तुम किस्मतवाले हो कि
जिबह होने के बाद भी
किसी की भूख मिटाकर
सबाब पाओगे।
मैं क्या कहूँ?
क्या करूँ?
जानता हूँ कि 
चंद रोज का मेहमान हूँ,
लेकिन कसाई ने
मुझे खाना-पीना मना कर रखा है।
मेरे जिस्म में जगह-जगह
पैबस्ता है सुइयाँ और नलियाँ। 
मेरे हाल पर तरस खाने
और हमदर्दी जताने आते हैं वे सब
जिन्होंने ज़िन्दगी में
भूल कर भी मेरा कुछ भला नहीं किया।
बिना बुलाए चले आते हैं
तमाशबीनों की तरह कुछ लोग
पकड़ते हैं हाथ,
लगाते हैं आला,
लिख जाते हैं कुछ जाँचें,
गोलियाँ और सुइयाँ
बिना यह पूछे कि
मुझे तकलीफ क्या है?
कुछ को फ़िक्र है कि
यह किस्सा तमाम न हो पाए
कि उनका बिल बढ़ना न रुक जाए।
कुछ दीगर यह सोचकर
दुबले हुए जा रहे हैं कि
यह कहानी ज्यादा लम्बी न हो जाए
की बिल चुकाने में उनकी नानी मर जाए।
ऊपरवाला परेशान है कि 
दोनों में से किसकी सुने,
किसकी न सुने?
रह गया मैं तो
हर कोई दिखाता है कि
उसे मेरी
सबसे ज्यादह फ़िक्र है
लेकिन यह हक़ीक़त मैं जानता हूँ कि
मेरी फ़िक्र किसी को नहीं है।
तुम जैसी किस्मत
मैं भी पा सकता
काश ।
*****
३. आदतन
*
आदतन लिखा
पढ़े जाते हैं।
जानते हैं न कोई सुनता है,
सुन भी ले
तो न कभी गुनता है।
सुनने आता न कोई
सब पढ़ने,
अपना पढ़कर
तुरत आगे बढ़ने।
साथ देने का
करें वादा जो,
आए हैं आपसे आगे बढ़ने।
जानकर सच
न हम बताते है।
आदतन लिखा
पढ़े जाते हैं।
*****
४. माटी
*
मैं,
तुम,
यह,
वह
याने हम सब।
आदम जात ही नहीं,
ढोर-डंगर, झाड़-फूल
और ईंट-पत्थर भी,
माटी हैं।
मानो या न मानो,
जानो या न जानो,
कोई फर्क नहीं पड़ता।
याद करो
जब तुम बच्चे थे
तुमने कई बड़ों को देखा था।
बड़े जो सयाने थे,
बड़े जो अक्लमंद थे,
बड़े तो तीसमारखां थे,
बड़े जो सिकंदर थे, कलंदर थे।
आज कहाँ हैं?
माटी में मिल गए न?
मैं और तुम
या और कोई
चाहे या न चाहे
आज या कल
मिल ही जाएगा माटी में।
ये झगड़े, ये फसाद,
ये सियासत, ये बवाल
ये शह, ये मात,
ये शाह, ये फकीर
कोई भी नहीं रहेगा।
यह हकीकत है तो
क्यों न चार दिन गुजार लें
चैनो-अमन के साथ
लेकर हाथ में हाथ
या मिलकर गले
अलस्सुबह से शाम ढले
जब तक हो न जाएँ माटी।
*****
५. झंडे
*
भगवा, हरा, नीला, सफ़ेद या और कोई
झंडा हाथ में लेते ही
बदल क्यों जाती है आदमी की फितरत?
पढ़ाई-लिखाई, अदब-तहजीब,
नाते-रिश्ते, भाई-चारा-लगावट
हो जाती है दूर,
पलने लगती है
गैरियत और अदावत।
क्यों 
हम, हम न रहकर
हो जाते हैं कोई और 
एक-दूसरे के लिए अनजाने और गैर ?
हाथ से छुडा जाती है कलम-किताब,
थमा दिए जाते हैं डंडे।
क्यों हम बेजुबान की तरह
कुछ नहीं बोलते?
क्यों नहीं आदमी बने रहकर
दूर, बहुत दूर
फेंक देते हैं फाड़कर झंडे।
*****
६.  नज़्म
आ भी जाओ, सूनी न रहे बज़्म
सुनाओ और सुनो एक दूसरे की नज़्म
नज़्म सिर्फ बहर का ज़खीरा नहीं है 
नज़्म कंकर या हीरा हीरा नहीं है
नज़्म है दिल से दिल की बात
नज़्म है यादों की बारात
आओ! शरीक हो जाओ
झूमो, नाचो और गाओ
बहुत जी लिए औरों की शर्तों पर
अब जीकर देखो खुद की शर्तों पर
बहुत जी लिए गैरों के लिए
अब तो जी लो खुद के लिए
इसके पहले कि ख़त्म हो जाए सांसों की बज़्म
सुनाओ और सुनो एक दूसरे की नज़्म
*****
७. क्यों?
अगर बिछुड़ना था तो मिले ही क्यों थे?
मेरे अपने करते रहे हैं शिकवा।
लेकिन उनमें से कोई कभी नहीं पूछ्ता सूरज से
अगली सुबह ऊगना था तो ढले ही क्यों थे?
क्या कभी माता-पिता पूछते हैं औलादों से
जो छोड़ जाना था तो पले ही क्यों थे?
क्या दरख्त पूछते हैं पत्तियों, फूलों और फलों से
अगरचे गिरना था तो लगे ही क्यों थे?
पूछो या न पूछो फर्क ही क्या पड़ता है?
जब जहाँ जो जैसा होना है
वह वहाँ वैसा ही होगा 
यह जानते हुए भी आदमी बाख नहीं पाता 
घेर ही लेते हैं कब कहाँ कैसे और क्यों?
*****
८. कोलाहल
आदमी जब असभ्य था
उसने सुना कलरव और कलकल 
जैसे-जैसे होता गया सभ्य
बढ़ता गया कोलाहल और किलकिल
अब आ रहा है वक्त जब
गायब होने लगें हैं सभ्यता और इनसान
हावी होने लगे हैं आत्मकेंद्रित हैवान
बदलाव की हवाएँ लाने लगी हैं
बबंडर और तूफान
अब भी सब कुछ समाप्त नहीं हुआ है 
अगर बचाना है आदमी और आदमीयत
तो सुनो समझो और सुनाओ कलरव
भुलाओ और हटाओ कोलाहल।
*****
९.  स्त्री-विमर्श
औरतों पर सदियों से होते रहे हैं ज़ुल्म
औरतों को चाहिए आज़ादी
औरतें नहीं हैं आदमी से कमतर
औरतें क्यों नहीं हैं आदमी के बराबर
औरतें हैं आदमी से बहुत बेहतर
औरतें क्या नहीं कर सकतीं?
माँगें, माँगें और माँगें
औरतें क्यों करें चौका-बर्तन?
औरतें क्यों रहें कोमल बदन
औरतें क्यों न हों अफसर और साइंसदां
औरतें क्यों न करें सियासत और तिजारत
औरतें क्यों करें शादी?
औरतें क्यों जनें बच्चा?
सवाल, सवाल और सवाल
औरतों को नहीं चाहिए सास-ननद
औरतों को चाहिए बेटी और बहू
वह भी अपने जैसी हू-ब-हू
परेशान है ऊपरवाला
है बराबरी का तकाजा
आधी नौकरियों पर है औरतों का हक
औरत को नहीं चाहिए कम कमाऊ पति
कमाऊ आदमी से शादी करे कमाऊ औरत
बिना कमाई की औरत के लिए
बचे रहे बिना कमाई के आदमी
कैसे बसे घर?
कैसे चले परिवार?
इससे औरत को नहीं सरोकार
औरत ने जो चाहा उसे चाहिए।
*****
१०. हमें चाहिए
हमें चाहिए मौक़ा
देश को बनाने का
हम करेंगे देश को भ्रष्टाचार से मुक्त
हम लायेंगे विदेश से काला धन
हम रोकेंगे परिवारवाद
हम बनायेंगे वह जो आक्रान्ताओं ने तोड़ दिया
हम हटायेंगे गैरबराबरी वाले कानून
कहावत है 'घूरे के भी बदलते हैं दिन'
हमें चाहिए विपक्ष मुक्त भारत
हमें चाहिए विरोध मुक्त देश
हमें चाहिए हम ही हम
हमें नहीं चाहिए तुम
हम जो कहें सही
तुम्हारी गलती तुमने बात क्यों कहीं?
तुम होगे प्रजा,
तुम होगे लोक,
तुम होगे गण
इससे क्या?
हम हैं तंत्र
हम जानते हैं मंत्र
हमारे हाथ में है यंत्र।
हम नए-नए कर लगाते जाएँगे 
हम मँहगाई बढ़ाते जाएँगे
हम विपक्ष मिटाते जाएँगे
हम खुद का कहा भुलाते जाएँगे
हाँ में हाँ मिलानेवाले 
येन-केन जितानेवाले 
खुद को मिटानेवाले 
सच को भुलानेवाले 
हमें चाहिए
***** 











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