दोहा सलिला
परमब्रम्ह ओंकार है, निराकार-साकार
चित्रगुप्त कहते उसे, जपता सब संसार
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गणपति-शारद देह-मन, पिंगल ध्वनि फूत्कार
लघु-गुरु द्वैताद्वैत सम, जुड़-घट छंद अपार
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वेद-पाद बिन किस तरह, करें वेद-अभ्यास
सुख-सागर वेदांग यह, पढ़-समझें सायास
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नेह नर्मदा की लहर, सम अवरोहारोह
गति-यति, लय का संतुलन, सार्थक मन ले मोह
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लिपि-अक्षर मिल शब्द हो, देते अर्थ प्रतीति
सार्थक शब्दों में निहित, सबके हित की नीति
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वर्ण-मात्रा-समुच्चय, गद्य-पद्य का मूल
वाक्य गद्य, पद पद्य बन, महके जैसे फूल
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सबका हित साहित्य में, भर देता है जान
कथ्य रुचे यदि समाहित, भाव-बिम्ब-रसवान
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वर्ण मात्रा भाव मिल, रच देते हैं छंद
गति-यति-लय की त्रिवेणी, लुटा सके आनंद
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दृश्य-प्रतीकों से बने, छंद सरस गुणवान
कथन सारगर्भित रहे, कहन सरस रसखान
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