कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 24 अक्तूबर 2017

baangla sahitya

विशेष लेख :
भारतीय भाषा-माल की मुक्ता मणि बांग्ला भाषा का साहित्य
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
लेखक परिचय: हिंदी भाषा और साहित्य के विकास हेती गत ५ दशकों से प्राण-प्राण से समर्पित संजीव जी की ६ पुस्तकें (कलम के देव, भूकंप के साथ जीना सीखें, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, काल है संक्रांति का तथा कुरुक्षेत्र गाथा) प्रकाशित हो चुकी हैं। साहित्य की सभी विधाओं के साथ तकनीकी विषयों पर हिंदी में लेखन आपका वैशिष्ट्य है। आपकी ब्लॉग दिव्य नर्मदा की पाठक संख्या बीस लाख से अधिक है। अंतरजाल पर १९९८ से सक्रिय संजीव जी से देश-विदेश में रहकर हिंदी भाषा-साहित्य सीखनेवालीं की संख्या सहस्त्राधिक है। फेसबुक पर विधावार ९० पृष्ठों पर आप निरंतर शिक्षण कार्य कर रहे हैं। सब भारतीय भाषाओँ को एक देवनागरी लिपि में लिखने और सबका समान शब्द भंडार विकसित करने के बापू के विचार के को क्रियान्वित करने को आवश्यक माननेवाले संजीव जी गत १० वर्षों से अपनी व्यस्तता के बावजूद यात्री में लेख सहयोग प्रदान करते हैं।
*
बाँग्ला (बंगाली, বাংলা ভাষা / बाङ्ला) भाषा, बांग्लादेश और भारत के पश्चिम बंगाल और उत्तर-पूर्वी भारत के त्रिपुरा तथा असम राज्यों के कुछ अंचलों में बोली जानेवाली प्रमुख भाषा है। भाषा-परिवार की दृष्टि से यह हिंद-यूरोपीय भाषा परिवार हिंद-यूरोपीय भाषा परिवार की सदस्य जिसमें हिंदी, नेपाली, पंजाबी, गुजराती, असमिया, ओड़िया, मैथिली आदि भी हैं। बंगालीभाषियों की सँख्या लगभग २३ करोड़ है। यह विश्व की छठी सबसे बड़ी भाषा है।बाँग्लाभाषी बाँग्लादेश और भारत के अतिरिक्त विश्व के अन्य कई देशों में भी हैं। भारत की अन्य आंचलिक भाषाओं की तरह बाँग्ला का उद्भव सन् १००० ई. के आस-पास मान्य है। अपभ्रंश या मागधी भाषा से पृथक् रूप ग्रहण करने के बाद से ही बांग्ला में गीतों और पदों की रचना होने लगी थी। जैसे-जैसे वह जनता के भावों और विचारों को अभिव्यक्त करने का साधन बनती गई, उसमें विविध रचनाओं, काव्यग्रंथों तथा दर्शन, धर्म आदि विषय कृतियों का समावेश होता गया, यहाँ तक कि आज भारतीय भाषाओं में उसे यथेष्ट ऊँचा स्थान प्राप्त हो गया है। बंगाली लिपि व नागरी लिपि में कुछ भिन्न होते हुए भी साम्यता बहुत भी है। हिंदी की तरह बाँग्ला में भी १४ स्वर तथा ३३ व्यंजन हैं। बंगाली में "व" का उच्चारण प्राय: "ब", "उ" या "भ" की तरह किया जाता है और आत्मा, लक्ष्मी, महाशय आदि शब्द आत्ताँ, लक्खी, मोशाय जैसे उच्चरित होते हैं।
डॉ. सुकुमार सेन ने साहित्य अकादमी से प्रकाशित बाँग्ला साहित्य का इतिहास ग्रंथ में बंगाली विद्वान् हर प्रसाद शास्त्री द्वारा बीसवीं सदी के आरम्भ में खोजी गई पाण्डुलिपि में संग्रहीत आठवीं से बारहवीं सदी के बीच विभिन्न बौद्ध वज्रयानी सिद्धों के चर्यागीतों से बांग्ला का आरम्भ माना है। इस संबंध में प्रोफेसर महावीर सरन जैन का मत है कि डॉ. सुकुमार सेन का मत इसी प्रकार है जिस प्रकार राहुल सांकृत्यायन ने सरहपा सिद्ध के चर्यागीतों से हिन्दी का आरम्भ होना माना है अथवा जिस प्रकार से असमिया एवं ओड़िया के विद्वान् इन चर्यागीतों अथवा चर्यापदों से अपनी अपनी भाषा का आरम्भ होना मानते हैं। प्रोफेसर जैन ने “अपभ्रंश एवं आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के संक्रमण काल की रचनाएँ” शीर्षक लेख में स्पष्ट किया है कि "सिद्ध साहित्य की भाषा का स्वरूप आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की प्रकृति का न होकर अपभ्रंश एवं आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के संक्रमण-काल की भाषा का है। इस कारण हम डॉ. सुकुमार सेन के मत से सहमत नहीं हो सकते। बाँग्ला के प्रथम कवि बोरु चंडीदास हैं और इनकी रचना-कृति का नाम ‘श्री कृष्ण कीर्तन’ है। चैतन्य-चरितामृत एवं चैतन्यमंगल से यह प्रमाणित होता है कि बोरु चंडीदास चैतन्यदेव के पूर्ववर्ती थे तथा चैतन्य महाप्रभु इनकी रचनाएँ सुनकर प्रसन्न होते थे"। इसके बाद विद्यापति और चंडीदास की काव्य रचनाएँ मिलती हैं। मालाधार बसु और कीर्तिबसु ने भागवत पुराण और रामायण का बंगाली में अनुवाद किया।
बाँग्ला भाषा का साहित्य स्थूल रूप से तीन भागों में बाँटा जा सकता है -
१. प्राचीन ९५० -१२०० ई., २. मध्य कालीन १२०० - १८०० ई.तथा ३. आधुनिक- १८०० ई. के बाद।
बाँग्ला भाषा के गुण-दोष-विवेचन की दृष्टि से प्रारंभिक साहित्य महत्वपूर्ण है। चंडीदास, कृत्तिवास, मालाधर, पिपलाई, लोचनदा, ज्ञानदास, कविकंकण, मुकुंदराम, कृष्णदास, काशीराम दास, भारतचंदराय, गुणाकार आदि कवि भारत के अन्य विद्वानों की तरह संस्कृत की रचनाओं को विशेष महत्व देते थे। उनकी दृष्टि में वही "अमर भारती" का पद सुशोभित कर सकती थी। बोलचाल की भाषा को वे परिवर्तनशील और अस्थायी मानते थे। जनसाधारण अपने विचारों और भावों को प्रकट करने के लिए उस भाषा को पसंद करते थे जो उनके हृदय के निकट हो, उसी भाषा में वे उपदेश और शिक्षा ग्रहण कर सकते थे। पुरातन बंगाल में इस तरह की दो भाषाएँ स्थानीय भाषा (प्राचीन बाँग्ला) तथा अखिल भारतीय जन साहित्यिक भाषा थीं, जो सामान्यत: समूचे उत्तर भारत में समझी जा सकती थी। यह नागर या शौरसेनी अपभ्रंश थी जो मोटे तौर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पूर्वी पंजाब तथा राजस्थान की भाषा थी। सामान्य जनता हेतु इन दोनों भाषाओं में कुछ साहित्य था। प्रेम और भक्ति के गीत, कहावतें और लोकगीत मातृभाषा में पाए जाते थे। बौद्ध तथा हिंदू धर्म के उपदेशक जनता में प्रचार करने के लिए जो रचनाएँ तैयार करते थे वे प्राय: पुरानी बाँग्ला तथा नागर अपभ्रंश, दोनों में होती थीं।
पुरातन बाँग्ला की उपलब्ध रचनाओं में ४७ चर्यापद विशेष महत्व के हैं। ये प्राय: आठ (या कुछ अधिक) पंक्तियों के रहस्यमय गीत हैं जिनका संबंध महायान बौद्धधर्म तथा नाथपंथ के गुप्त संप्रदाय से है। इनका सामान्य बाहरी अर्थ सहज ही समझ में आ जाता है किन्तु गूढ़ अर्थ संस्कृत टीका की सहायता से, जो इस संग्रह के साथ श्री हरप्रसाद शास्त्री को मिली थी, समझा जा सकता है। इन गीतों या पद्यों में "कविता" तो नहीं है किंतु उसकी झलक अवश्य किसी-किसी में दिखती है। इससे मिलती-जुलती कुछ अन्य पद्यात्मक रचनाएँ नेपाल से डॉ॰ प्रबोधचंद्र बागची तथा राहुल सांकृत्यायन आदि को प्राप्त हुई थीं। १२ वीं शताब्दी के अंत तक पुरातन बाँग्ला में यथेष्ट साहित्य था। उस समय एक बंगाली कवि ने गर्वोक्ति की थी "लोग जैसे गंगा में स्नान कर पवित्र हो जाते हैं, वैसे ही वे 'बंगाल वाणी' में स्नात होकर पवित्र हो सकते हैं।" आज उक्त ४ चर्यापदों तथा थोड़े से गीतों या पदों के सिवा उस काल की अन्य बहुत ही कम रचनाएँ उपलब्ध हैं।
गीतगोविंद के रचयिता जयदेव बंगाल के हिंदू राजा लक्ष्मण सेन (१८० ई.) के शासनकाल में विद्यमान थे। राधा - कृष्ण के प्रेम का वर्णन करनेवाले इस सुंदर काव्य में २४ तुकान्ती गीत हैं। संस्कृत में प्राय: तुकांत नहीं मिलता। यह अपभ्रंश या नवोदित भारतीय-आर्य भाषाओं की विशेषता है। भिन्न मतानुसार इन पदों की रचना मूलत: पुरानी बाँग्ला या अपभ्रंश में की गई, फिर उनमें थोड़ा परिवर्तन कर संस्कृत के अनुरूप बना दिया गया। जयदेव पुरातन बंगाल के प्रसिद्ध कवि हैं जिन्होंने संस्कृत के अतिरिक्त पुरानी बँगला में भी रचना की। बंगाल के कितने ही परगामी कवियों को उनसे प्रेरणा मिली, इसमें संदेह नहीं। पुरानी बाँग्ला में कोई बड़ा प्रबंध काव्य नहीं है। तब ऐसी रचनाएँ बंगाल में भी प्राय: अपभ्रंश में ही होती थीं। मिथिला (बिहार) के प्रसिद्ध कवि विद्यापति ने लगभग १४१० ई. में प्रसिद्ध ऐतिहासिक काव्य (कीर्तिलता) की रचना अपनी मातृभाषा मैथिली में न कर अपभ्रंश में ही की, यद्यपि बीच-बीच में इसमें मैथिल शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। १५ वीं - १६ वीं शती से बड़े प्रबंध काव्यों एवं वर्णनात्मक रचनाओं आदर्श नारी बिहुला और उसके पति लखीधर की कथा, कालकेतु और फुल्लरा का कथानक, इत्यादि का लेखन हुआ। सन् १२०३ में पश्चिमी बंगाल पर तुर्कों का आक्रमण हुआ। व्यापक लूटमार, अपहरण, हत्याकांड, महलों व पुस्तकालयों के विनाश तथा बलात् धर्मपरिवर्तन की बाढ़ सी आ गई। ऐसा समय साहित्यिक विकास के अनुकूल हो ही कैसे सकता था। उदार रुख अपनानेवाली सूफी प्रचारकों के आगमन में अभी देर थी।
संक्रमणकालीन साहित्य (१२००-१३५०)
इस समय पुराने गायकों और लोकगीतकारों में बिहुला आदि की जो कथाएँ प्रचलित थीं, उन्हीं के आधार पर कुछ अज्ञात कवियों ने रचनाएँ प्रस्तुत की जिन्हें बाँग्ला के प्रारंभिक प्रबंध काव्य की संज्ञा दी जा सकती है। इसी अवधि में बाँग्ला भाषी मुसलिम आबादी का उद्भव व वृद्धि हुई। कई तुर्क आक्रमणकारियों ने बांग्ला स्त्रियों से विवाह कर धीरे-धीरे यहाँ की भाषा-भूषा, रहन-सहन आदि को अपना लिया। वे तुर्की को भूल ही गए और अरबी केवल धर्म-कर्म की भाषा रह गई। बंगाल में हिंदू जमींदारों और सामंतों की व्यवस्था प्रचलित थी, फलत: मुसलिम विचारों और पद्धतियों का जनजीवन पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ने पाया था।
प्रारंभ का मध्यकालीन साहित्य (१३५० - १६०७)
कुछ काल पश्चात बंगाल में शांति स्थापित होने पर फिर संस्कृत के अध्ययन, प्रचार आदि की सुविधा होने पर शिक्षा और साहित्य का प्राथमिक पुनर्जागरण प्रारंभ हुआ। मध्यकालीन बाँग्ला के प्रथम महाकवि कृत्तिवास ओझा (जन्म १३९९ ई.) थे। वे संस्कृत रामायण को १४१८ में बँगला में प्रस्तुत करनेवाले पहले लोकप्रिय कवि थे जिन्होंने राम का चित्रण वाल्मीकि की तरह शुद्ध मानव और वीर पुरुष के रूप में न कर भगवान के करुणामय अवतार के रूप में किया जिस ओर सीधी-सादी भक्तिमय जनता का हृदय सहज भाव से आकर्षित होता था। १४७५ ई.में भगवत पुराण पर आधारित कृष्णगाथा का वर्णन मालाधर बसु ने किया। बिहुला की कथा- विवाह की प्रथम रात्रि में ही मनसा देवी द्वारा प्रेषित सर्प के द्वारा पति के डसे जाने पर विधवा हुई बिहुला ने भयानक कठिनाइयाँ झेलकर देवताओं तथा मनसा देवी को प्रसन्न कर पति को पुन: जीवित कराने में सफलता प्राप्त की। यह पतिव्रता नारी के प्रेम और साहस की अपूर्व परिकल्पना है जिसका आविर्भाव कभी किसी भारतीय मस्तिष्क में हुआ हो। यह कथा मुसलमानों के आगमन के पहले से प्रचलित थी। उस पर आधारित प्रथम कथाकाव्य बाँग्ला में १५ वीं शती में रचा गया। इनमें से एक के रचयिता विजयगुप्त और दूसरी के विप्रदास पिपलाई माने जाते हैं।
पूर्व माध्यमिक बाँग्ला के एक प्रसिद्ध कवि चंडीदास के १२०० पद या कविताएँ प्रचलित हैं। उनकी भाषा, शैली आदि में इतना अंतर है कि वे एक ही व्यक्ति द्वारा रचित नहीं जान पड़तीं। ऐसा प्रतीत होता है कि माध्यमिक बाँग्ला में इस नाम के कम से कम तीन कवि हुए। पहले चंडीदास (अनंत बडु चंडीदास) श्रीकृष्णकीर्तन के प्रणेता थे जो चैतन्य के पहले, लगभग १४०० ई. में, विद्यमान थे। दूसरे चंडीदास द्विज चंडीदास थे जो चैतन्य के बाद में में हुए। इन्होंने ही राधा कृष्ण के प्रेम विषयक उन अधिकांश गीतों की रचना की जिनसे चंडीदास को इतनी लोक प्रसिद्धि प्राप्त हुई। तीसरे चंडीदास दीन चंडीदास हुए जो संग्रह के तीन चौथाई भाग के रचयिता हैं। चंडीदास की कीर्ति के मुख्य आधार प्रथम दो चंडीदास ही थे, इसमें संदेह नहीं । १५ वीं शताब्दी में बंगाल पर तुर्क तथा पठान सुलतानों का शासन था पर उनमें यथेष्ट बंगालीपन आ गया था और वे बाँग्ला साहित्य के समर्थक बन गए थे। ऐसा एक शासक हुसेनशाह (१४९३-१५१९) था। उसने चटगाँव के अपने सूबेदारों और पुत्र नासिरुद्दीन नसरत के द्वारा महाभारत का अनुवाद बाँग्ला में करवाया। यह रचना "पांडवविजय" के नाम से कवींद्र द्वारा प्रस्तुत की गई थी।
इसी समय प्रसिद्ध वैष्णव कवि चैतन्य का आविर्भाव हुआ (१४८६-१५३३)। समसामयिक कवियों और विचारकों पर उनका गहरा प्रभाव पड़ा। उनके आविर्भाव और मृत्यु के उपरांत संतों तथा भक्तों के जीवनचरित्रों के निर्माण की परंपरा चल पड़ी। इनमें से कुछ हैं-वृंदावनदास कृत चैतन्य भागवत (१५७३), लोचनदास कृत चैतन्यमंगल; जयानंद का चैतन्यमंगल तथा कृष्णदास कविरत्न का चैतन्यचरितामृत (१५८१)। राधा-कृष्ण के दिव्य प्रेम संबंधी बहुत से गीत और पद भी इस समय रचे गए। बंगाल के इस वैष्णव गीत साहित्य पर मिथिला के विद्यापति का भी यथेष्ट प्रभाव पड़ा जिसकी चर्चा पहले की जा चुकी है। परवर्ती चैतन्य वैष्णव साहित्य में गौड़ीय वैष्णव विद्वान् कवियों द्वारा चैतन्य की जीवनी और वैष्णव पदावली प्रमुख हैं। मंगलकाव्य १३ वीं से १८ वीं सदी के मध्य की रचनाओं का समूह है।
बाँग्ला पर "ब्रजबुलि" का भी प्रभाव पड़ा। मिथिला राज्य यवन आक्रमणों से अछूता रहा। बंगाल के शिक्षार्थी स्मृति, न्याय, दर्शन आदि का अध्ययन करने वहाँ जाते थे। मिथिला के संस्कृत के विद्वान् अपनी मातृभाषा में भी रचना करते थे। स्वयं विद्यापति ने संस्कृत में ग्रंथ रचना की किंतु मैथिली में भी उन्होंने बहुत सुंदर प्रेमगीत रचे। उनके ये गीत बंगाल में बड़े लोकप्रिय हुए और उनके अनुकरण पर बाँग्ला में प्रेमगीत रचे गए। बंकिमचंद्र, रवींद्रनाथ ठाकुर आदि तक ने ऐसे प्रेम-गीतों की रचना की। वैष्णव प्रेमगीतकार के रूप में जयदेव कवि के बाद बडुचंडीदास तथा चैतन्य के अनुयायी आते हैं। इनमें उड़ीसा के एक क्षत्रप रामानंद थे जिन्होंने संस्कृत में भी रचना की। गोविंददास कविराज (१५१२) ने ब्रजबुलि में अनेक सुंदर गीत प्रस्तुत किए। बर्दवान जिले के कवि रंजन विद्यापति ने भी ब्रजवुलि में प्रेमगीत लिखे। वे "छोटे विद्यापति" के नाम से प्रसिद्ध हुए। १६ वीं शती के दो कवियों ने कालकेतु और उसकी स्त्री फुल्लरा तथा धनपति और उसके पुत्र श्रीमंत के आख्यान की रचना की जिसमें चंडी या दुर्गादेवी की महिमा वर्णित है। कवि कंकण मुकुंददास चक्रवर्ती ने चंडीकाव्य रचा जो आज तक लोकप्रिय है। इसमें तत्कालीन बाँग्ला जीवन की अच्छी झलक देख पड़ती है। पद्यलेखक होते हुए भी वे बंकिमचंद्र तथा शरच्चंद्र चटर्जी के पूर्वज माने जा सकते हैं।
उत्तरकालीन माध्यमिक बँगला साहित्य (१६००-१८००)
वैष्णव गीतकारों तथा जीवनी लेखकों की परंपरा १७वीं शती में चलती रही। जीवनी लेखकों में ईशान नागर (१५६४ ई.), नित्यानंद (१६०० ई.), यदुनंदनदास (कर्णानंद के लेखक, १६०७), राजवल्लभ (कृति मुरलीविलास), मनोहरदास (१६५२, कृति "अनुरागवल्ली") तथा घनश्याम चक्रवर्ती (कृति भक्तिरत्नाकर, नरोत्तमविलास) का नाम उल्लेखनीय है। गीतलेखकों की संख्या २०० से अधिक है। वैष्णव विद्वानों तथा कवियों ने इनके कई संग्रह तैयार किए जिनमें से वैष्णवदास (१७७० ई.) का "पदकल्पतरु" (३१०१ पद) विशेष प्रसिद्ध है। इस समय कुछ धार्मिक कथाएँ लिखी गईं। इनमें रूपराम कृत 'धर्ममंगल' प्रसिद्ध है जिसमें लाऊसैन के साहसिक कार्यों का वर्णन है। मानिक गांगुलि तथा घनराम चक्रवर्ती ने कथाएं लिखीं। राजा गोपीचंद के कथानक के आधार पर १७ वीं, १८वीं शती में रचनाएँ प्रस्तुत की गईं, राजा गोपीचंद, राजा मानिकचंद्र के पुत्र थे। जब वे गद्दी पर बैठे तो उनकी माता मयनामती को पता चला कि उनके पुत्र को राजपाट तथा स्त्री का परित्याग कर योगी बन जाना चाहिए, नहीं तो उनकी अकालमृत्यु की संभावना है। माता के आदेश से उन्हें ऐसा ही करना पड़ा। भवानीदासकृत "मयनामतिर गान" तथा दुर्लभ मलिक की रचना "गोविंदचंद्र गीत" इसी कथानक पर आधारित हैं।
आल्हा के ढंग पर वीरकाव्य या गाथाकाव्य भी १७ वीं शती में रचे गए। इनका एक संग्रह अंग्रेजी अनुवाद सहित दिनेशचंद्र सेन ने तैयार कर कलकत्ता वि. वि. द्वारा प्रकाशित किया गया।बिहुला की कथा पर १८ वीं शती में वंशीदास, केतकादास तथा क्षेमानंद ने प्रबंध काव्य रचे। बंगाली मुसलमान लेखकों ने अरबी-फारसी की प्रेम तथा धर्म कथाएँ बंगला में प्रस्तुत करीं। इन कवियों ने बँगला साहित्य का ही नहीं किया वरन् संस्कृत, अरबी तथा फारसी के ग्रंथों का भी अनुशीलन किया। उन्होंने अवधी या कोशली से मिलती-जुलती भाषा गोहारी/गोआरी भी सीखी। पूर्वी हिंदी के क्षेत्र से सूफी मुसलमान अपने साथ नागरी वर्णमाला भी पूर्वी बंगाल लेते गए। सिलहट के मुसलमान कवि बहुत दिनों तक इसी 'सिलेट नागरी लिपि में बँगला लिखते रहे। उस समय के कुछ मुसलमान कवि ये हैं-दौलत काज़ी, जिसने "लोरचंदा" या "सती मैना" शीर्षक प्रेमकाव्य लिखा, कुरेशी मागन ठाकुर जिसने "चंद्रावती" की रचना की, मुहम्मद खाँ, जिसकी दो रचनाएँ (मौतुलहुसेन तथा केयामतनामा) प्रसिद्ध हैं; तथा अब्दुल नबी जिसने बड़ी सुंदर शैली में "आमीर हामज़ा" का प्रणयन किया। १७ वीं शती के एक और प्रसिद्ध मुसलिम कवि आला ओल की कृति "पद्मावती" (१६५१) लोकप्रिय रही। यह हिंदी कवि मलिक मुहम्मद जायसी कृत पद्मावती का रूपांतर है। इनकी अन्य रचनाएँ हैं-सैफुल मुल्क बदीउज्जमाँ (सहस्ररजनीचरित्र पर आधारित प्रेमकाव्य), हफ्त-पैकार, सिकंदरनामा तथा तोहफा। १७ वीं शती के तीन हिंदू कवि काशीरामदास, जिन्होंने महाभारत का अनुवाद बँगला पद्य में किया, उनके बड़े भाई कृष्णकिंकर, जिन्होंने श्रीकृष्णविलास बनाया, तथा जगन्नाथमंगल के लेखक गदाधर उल्लेखनीय हैं।
१८ वीं शती के कुछ प्रसिद्ध बाँग्ला कवि हैं - रामप्रसाद सेन (मृत्यु १७७५) जिनके दुर्गा संबंधी गीत आज भी लोकप्रिय हैं; भारतचंद्र, जिनका "अन्नदामंगल" (या कालिकामंगल) काव्य बँगला की एक परिष्कृत रचना है; राजा जयनारायण, जिन्होंने पद्मपुराण के काशीखंड का बँगला में अनुवाद किया और उस समय के बनारस का बहुत ही मनोरंजक विवरण उसमें समाविष्ट कर दिया। इस काल में हलके-फुलके गीतों तथा समस्यापूर्ति के रूप में लिखे गए सद्य:प्रस्तुत पद्यों का काफी जोर रहा। कुछ मुसलमान कवियों ने मुहर्रम तथा कर्बला के संबंध में रचनाएँ प्रस्तुत कीं (मुहर्रम पर्व या जंगनामा हयात मुहम्मद, नसरुल्ला खाँ तथा याकूब अली द्वारा रचित)। लैला-मजनू पर दौलत वज़ीर बहराम ने लिखा और मुहम्मद साहब के जीवन पर भी ग्रंथ प्रस्तुत किए गए। बँगला गद्य के कुछ नमूने सन् १५५० के बाद पत्रों तथा दस्तावेजों के रूप में उपलब्ध हैं। कैथलिक धर्म संबंधी कई रचनाएँ पोर्तगाली तथा अन्य पादरियों द्वारा प्रस्तुत की गईं और १७७८ में नथेनियल ब्रासी हलहद ने बंगला व्याकरण तैयार कर प्रकाशित किया। १७९९ में फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना के बाद बाइबिल के अनुवाद तथा बँगला गद्य में अन्य ग्रंथ तैयार कराने का उपक्रम किया गया।
आधुनिक बँगला साहित्य (१८०० - १९५० )
१९ वीं सदी में अंग्रेजी भाषा के प्रसार और संस्कृत के नवीन अध्ययन से बँगला के लेखकों में नए जागरण और उत्साह की लहर सी दौड़ गई। एक ओर जहाँ कंपनी सरकार के अधिकारी बँगला सीखने के इच्छुक अंग्रेज कर्मचारियों के लिए बँगला की पाठ्यपुस्तकें तैयार करा रहे थे और बेपतिस्त मिशन के पादरी कृत्तिवासीय रामायण का प्रकाशन तथा बाइबिल आदि का बँगला अनुवाद प्रस्तुत कराने का प्रयत्न कर रहे थे, वहाँ दूसरी ओर बंगाली लेखक भी गद्य-ग्रंथलेखन की ओर ध्यान देने लगे थे। रामराम बसु ने राजा प्रतापादित्य की जीवनी लिखी और मृत्युजंय विद्यालंकार ने बँगला में "पुरुष परीक्षा" लिखी। १८१८ में "समाचारदर्पण" नामक साप्ताहिक के प्रकाशन से बँगला पत्रकारिता की भी नींव पड़ी। १९ वीं सदी का बंग्ला-साहित्य इस अवधि के दौरान फोर्ट विलियम कॉलेज के निर्देशन में बंगाली पंडितों ने बंगाली में पाठ्य पुस्तकों का अनुवाद किया। बंगाली गद्य के विकास की पृष्ठभूमि बनी। १८१४ में, राजा राम मोहन राय कलकत्ता पहुंचे और साहित्यिक गतिविधियों में संलग्न हुए।राजा राममोहन राय ने भारतीयों के "आधुनिक" बनने पर बल दिया। उन्होंने ब्रह्मसमाज की स्थापना की। उन्होंने कतिपय उपनिषदों का बँगला अनुवाद तैयार किया। अंग्रेजी में बांग्ला व्याकरण (१८२६) लिखा और अपने धार्मिक तथा सामाजिक विचारों के प्रचारार्थ बँगला और अंग्रेजी, दोनों में छोटी छोटी पुस्तिकाएँ लिखीं। इसी समय राजा राधाकांत देव ने "शब्दकल्पद्रुम" नामक संस्कृत कोष तैयार किया और भवानीचरण बनर्जी ने कलकतिया समाज पर व्यंग्यात्मक रचनाएँ प्रस्तुत कीं।
प्रारंभिक गद्यलेखकों की भाषा, प्रचलित संस्कृत शब्दों के प्रयोग के कारण, कुछ कठिन थी किंतु १८५० के लगभग अधिक सरल और प्रभावपूर्ण शैली का प्रचलन आरंभ हो गया। ईश्वरचंद्र विद्यासागर, प्यारीचंद मित्र आदि का इसमें विशेष हाथ था। विद्यासागर ने अंग्रेजी तथा संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद बँगला में किया और गद्य की सुंदर, सरल शैली का विकास किया। प्यारीचंद मित्र ने "आलालेर घरेर दुलाल" (१८५८) नामक सामाजिक उपन्यास लिखा । अक्षयकुमार दत्त ने विविध विषयों पर कई निबंध लिखे। अन्य गद्य लेखक थे - राजनारायण बसु, ताराशंकर तर्करत्न (कादंबरी" का संक्षिप्त बांग्ला रूपांतर किया) तथा तारकनाथ गांगुलि (प्रथम यथार्थवादी सामाजिक उपन्यास "स्वर्णलता" प्रकाशित किया)।माइकेल मधुसूदन दत्त (१८२४-१८७३) उस समय के "युवा बंगाल" के प्रतिनिधि थे जिनके हृदय में अन्य युवकों की तरह आत्मविकास तथा आत्माभिव्यक्ति का बहुत सीमित अवकाश ही हिंदू समाज में मिलने के कारण एक प्रकार का असंतोष व्याप्त हो उठा था। इसका कारण उनका अंग्रेजी तथा अन्य विदेशी साहित्य के संपर्क में आना था। ईसाई धर्म में अभिषिक्त होने के बाद मधुसूदन ने पहले अंग्रेजी में, फिर बँगला में लिखा। उन्होंने भारतीय विषयों को यूरोपीय काव्य शैली केढंग पर सँवारा-सजाया। उनकी मुख्य रचनाएँ हैं - तिलोत्तमा, मेघनादवध काव्य (१८६१), वीरांगना काव्य तथा व्रजांगना काव्य। उन्होंने बँगला में अनुप्रासहीन कविता का प्रचलन किया और इटैलियन सोनेट की तरह चतुर्दशपदियों की भी रचना की।
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय (१८३८-१८९४) बांग्ला साहित्य के प्रमुख बंगाली उपन्यासकार और निबंधकार हैं। उनका साहित्यिक जीवन अंग्रेजी में लिखित "राजमोहन की स्त्री" नामक उपन्यास (१८६४) से आरंभ होता है। बँगला में पहला उपन्यास उन्होंने दुगेंशनंदिनी(१८६५) के नाम से लिखा। उन्होंने एक दर्जन से अधिक सामाजिक-ऐतिहासिक उपन्यास लिखे। आधुनिक भारत के विचारशील लेखकों तथा चिंतकों में उनकी गणना हुई। १८७२ में उन्होंने "बंगदर्शन" साहित्यिक पत्र निकाला जिसने बँगला साहित्य को नया मोड़ दिया। उनके ऐतिहासिक उपन्यास (राजसिंह, सीताराम, चंद्रशेखर), सामाजिक उपन्यास (विषवृक्ष, कृष्णकांतेर विल) लोकप्रिय हैं। उनका कपालकुंडला शुद्ध प्रेम और कल्पना का उत्कृष्ट नमूना है। प्रसिद्ध राजनीतिक उपन्यास आनंदमठ का "वंदेमातरम्" गीत भारत का राष्ट्रीयगान है। उनके उपन्यासों तथा अन्य रचनाओं का भारत की प्राय: सभी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।
स्वामी विवेकानंद
भारत के पुनर्जागरण में का में मुख्य भमिका निभाई स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पट्ट शिष्य स्वामी विवेकानंद (नरेंद्र दत्त) ने। भारत की गरीब जनता (दरिद्रनारायण) की सेवा ही उनका लक्ष्य था। उन्होंने अमरीका और यूरोप जाकर अपने प्रभावकारी भाषणों द्वारा हिंदू धर्म का ऐसा विशद विवेचन उपस्थित किया कि उसे पश्चिमी देशों में अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त हो गई। भारत आकर रामकृष्ण आश्रमों के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नति और समाज कल्याण के क्षेत्र में उनके द्वारा प्रज्वलित सेवा दीप अब तक ज्योतित हैं। वे प्रकांड विद्वान्, प्रखर वक्ता तथा बँगला व अंग्रेजी, दोनों के प्रभावशील लेखक थे।
रंगलाल बंद्योपाध्याय ने राजपूतों की वीरगाथाओं के आधार पर "पद्मिनी" (१८५८), कर्मदेवी (१८६२) तथा सूरसुंदरी (१८६८) की रचना की। कालिदास के "कुमारसंभव" का बँगला अनुवाद भी उन्होंने प्रस्तुत किया। बँगला नाटकों का उदय १८७० के आसपास हुआ। इसके पहले बंगाल में धार्मिक नाटक प्रचलित थे जिन्हें "यात्रा" नाटक कहते थे। इनमें दृश्य और परदे नहीं होते थे, गायन और वाद्य की प्रधानता होती थी। एक रूसी नागरिक जेरासिम लेबेडेव ने १७९५ में कलकत्ता आकर बांग्ला की प्रथम नाट्यशाला स्थापित की, जो चली नहीं। संस्कृत नाटकों के सिवा अंग्रेजी नाटकों तथा कलकत्ते में स्थापित अंग्रेजी रंगमंच से बँगला लेखकों को प्रेरणा मिली। दीनबंधु मित्र ने कई सुखांत नाटक लिखे। उनके एक नाटक नीलदर्पण (१८६०) में निलहे गोरों के उत्पीड़न का मार्मिक चित्रण हुआ था जिससे इस प्रथा की बुराइयाँ दूर करने में सहायता मिली। राजा राजेंद्रलाल मित्र (१८२२-९१) इतिहासलेखक और प्रथम बंगाली पुरातत्वज्ञ थे। भूदेव मुखोपाध्याय (१८२४-९४) शिक्षाशास्त्री, गद्यलेखक और पत्रकार थे। समाज और संस्कृति के संरक्षण तथा पुनरुद्धार संबंधी उनके लेखों का आज भी यथेष्ट महत्व है। कालीप्रसन्न सिंह कट्टर हिंदू समाज के एक और प्रगतिशील लेखक थे। उन्होंने महाभारत का बँगला गद्य में तथा संस्कृत के दो नाटकों का भी अनुवाद किया। उन्होंने कलकत्ते की बोलचाल की बँगला में "हुतोम पेंचार नक्शा" नामक रचना प्रस्तुत की जिसमें उस समय के कलकतिया समाज का अच्छा चित्रण किया गया था। बँगला के प्रतिष्ठित साहित्य में इसकी गणना है। हेमचंद बंदोपाध्याय (१८३८ -१९०३) ने शेक्सयिर के दो नाटकों 'रोमियों और जूलियट' तथा 'टेंपेस्ट' का बँगला में अनुवाद किया। मेघनादवध से प्रोत्साहित होकर उन्होंने "वृत्तसंहार" नामक महाकाव्य की रचना की। नवीनचंद्र सेन (१८४७- १९०९) ने कुरुक्षेत्र, रैवतक तथा प्रभास नाटक बनाए तथा बुद्ध, ईसा और चैतन्य के जीवन पर अमिताभ, ख्रीष्ट तथा अमृताभ नामक लंबी कविताएँ लिखीं। पलासीर युद्ध तथा रंगमती और भानुमती के भी लेखक वही थे। पाँच खंडों में अपनी जीवनी ""आमार जीवन"" भी उन्होंने लिखी।
रवीन्द्रनाथ टैगोर बंगाली में सबसे उर्वर लेखक तथा नोबेल पुरस्कार विजेता हैं। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में आपने बांग्ला संस्कृति को परिभाषित करने में एक निर्णायक भूमिका का निर्वाह किया। गीतांजलि को सन् १९१३ में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला। बोंग्ला देश और भारत दोनों में सम्मानित क़ाज़ी नजरुल इस्लाम की नजरूल गीति और नजरूल संगीत में ३,००० गीत हैं। रवींद्रनाथ ठाकुर के सबसे बड़े भाई द्विजेंद्रनाथ ठाकुर (१८४०-१९२६), संगीतज्ञ तथा दर्शनशास्त्री थे। उनकी प्रसिद्ध रचना "स्वप्नप्रयाण" है। रवींद्रनाथ के एक और बड़े भाई ज्योतींद्रनाथ ठाकुर के लिखे चार नाटक पुरुविक्रम, सरोजिनी, आशुमती तथा स्वप्नमयी अति लोकप्रिय हुए। उन्होंने फ्रेंच भाषा, अंग्रेजी तथा मराठी से भी कई ग्रंथों का अनुवाद किया। रमेशचंद्र दत्त ने ऋग्वेद का बँगला अनुवाद किया। भारतीय अर्थशास्त्र के भी वे लेखक थे और के उपन्यास राजपूत जीवनसंध्या, महाराष्ट्र जीवनसंध्या; माधवी कंकण; संसार, तथा समाज हैं। इनके समसामयिक महान नाटककार गिरीशचंद्र घोष ने ९० नाटक, प्रहसन बिल्वमंगल, प्रफुल्ल, पांडव गौरव, बुद्धदेवचरित, चैतन्य लीला, सिराजुद्दौला, अशोक, हारानिधि, शंकराचार्य, शास्ति की शांति आदि लिखे। शेक्सपियर के मेकबेथ नाटक का बँगला अनुवाद भी उन्होंने किया। अमृतलाल बसु भी गिरीशचंद्र घोष की तरह अभिनेता नाटककार थे। हास्य रस से पूर्ण उनके नाटक तथा प्रहसन बँगला भाषियों में काफी लोकप्रिय हैं। वे बंगाल के मोलिए कहलाते थे, जिस तरह गिरीशचंद्र बंगाली शेक्सपियर माने जाते थे।
हास्यरस के दो बांग्ला लेखक त्रैलोक्यनाथ मुखेपाध्याय (१८४७-१९१९), उपन्यासकार तथा लघुकथा लेखक और इंद्रनाथ बंदोपाध्याय (१८४९-१९११), निबंधलेखक तथा व्यंग्यकार का योगदान भुलाया नहीं जा सकता। संस्कृत और इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान् हरप्रसाद शास्त्री (१८५३-१९३१) उपन्यासकार (बेणेर मेये, कांचनमाला) और अच्छे निबंधलेखक थे। भारतीय साहित्य, धर्म तथा सभ्यता के संबंध में उनके लेख विशेष महत्वपूर्ण हैं। उनका लिखा "वाल्मीकिर जय" नामक गद्यकाव्य बड़ी सुन्दर और प्रभावोत्पादक बँगला में लिखा गया है। राष्ट्रीय आंदोलन की शुरुआत १८५७ के आसपास हुआ। १८८५ में राष्ट्रीय महासभा की स्थापना से इसे बल मिला और १९०५ में लार्ड कर्जन द्वारा किए गए बंगाल के विभाजन ने इसमें आग फूँक दी। स्वदेशी का जोर बढ़ा और भाषा तथा साहित्य पर भी इसका गहरा प्रभाव पड़ा। सन् १९१३ में रवींद्रनाथ ठाकुर को नोबेल पुरस्कार मिलने से बंगाल तथा भारत में राष्ट्रीय भावना की प्रबल हुआ और बँगला साहित्य में रवींद्रनाथ युग का अविर्भाव हुआ।
रवींद्रनाथ ठाकुर (१८६१-१९४१) में महान लेखक होने के लक्षण आरम्भ से ही थे। क्या कविता और क्या नाटक, उपन्यास और लघु कथा, निबंध और आलोचना, सभी में उनकी बहुमुखी प्रतिभा ने नया चमत्कार उत्पन्न कर दिया। उनके विचारों और शैली ने बँगला साहित्य को मानो नया मोड़ दे दिया। व्यापक दृष्टि और गहरी भावना से संपृक्त उत्कृष्ट सौंदर्य तथा अज्ञात की रहस्यमय अनुभूति उनकी रचनाओं में स्थान स्थान पर अभिव्यक्त होती देख पड़ती हैं। गीत रचनाकार के रूप में वे अद्वितीय हैं। प्रेम, प्रकृति, ईश्वर और मानव पर लिखे गए उनके २०० से अधिक गीत परमात्म और आधिदैविक शक्ति की रहस्यमय भावना से ओतप्रोत हैं। इस कारण संसार के महान रहस्यवादी लेखकों में उनकी गणना की जाती है। उनके निबंध स्वस्थ चिंतन एव सुस्पष्ट विवेचन के लिए प्रसिद्ध हैं। वे बुद्धिपरक भी हैं तथा कल्पनाप्रधान भी, याथार्थिक भी हैं और काव्यमय भी। उनके उपन्यास तथा लघुकथाएँ तथ्यात्मक, नाटकीयता पूर्ण एवं अंर्तदृष्टि प्रेरक हैं। वे अंतरराष्ट्रीयता एवं मानव एकता के बराबर समर्थक रहे हैं। उन्होंने अथक रूप से इस बात का प्रयत्न किया कि भारत अपनी गौरवपूर्ण प्राचीन बातों की रक्षा करते हुए भी विश्व के अन्य देशों से एकता स्थापित करने के लिए तत्पर रहे। रवींद्रनाथ के समसामयिक लेखकों में गोर्विदचंद्रदास, देवेंद्रनाथ सेन, अक्षयकुमार बड़ाल, श्रीमती कामिनी राय, श्रीमती सुवर्णकुमारी देवी, बुद्धदेब बसु, सुधीन्दृनाथ दत्त, विष्णु दे, जीवनानंद दास आदि कवि, अक्षयकुमार मैत्रेय इतिहासलेखक; रामेद्रसुंदर त्रिवेदी निबंधकार, वैज्ञानिक एवं दर्शनशास्त्री; प्रभातकुमार मुखर्जी, उपन्यासकार, लघुकथा लेखक; द्विजेंद्रलाल राय, कवि नाटककार; क्षीरोदचंद्र विद्याविनोद, ५० नाटकों के प्रणेता; राखालदास वंद्योपाध्याय, इतिहासकार-ऐतिहासिक उपन्यासों के लेखक, रामानंद चटर्जी, सुप्रसिद्ध पत्रकार (४० वर्ष तक माडर्न रिव्यू तथा बँगला प्रवासी का संपादन), जलधर सेन, उपन्यासलेखक पत्रकार; श्रीमती निरुपमा देवी, श्रीमती अनुरूपा देवी, सामाजिक उपन्यास लेखिका आदि का योगदान अप्रतिम है।
आधुनिक बँगला के सर्वप्रसिद्ध उपन्यासकार शरच्चंद्र चटर्जी (१८७६-१९३८) हैं। सरल और सुंदर भाषा में लिखे गए इनके श्रेष्ठ उपन्यास श्रीकांत, गृहदाह, पल्ली समाज, देना पावना, देवदास, चंद्रनाथ, चरित्रहीन, शेष प्रश्न आदि हैं। सामान्यत: बँगाल में परिनिष्ठ बँगला का ही साहित्य में प्रयोग होता है किंतु कई ग्रंथ कलकत्ता तथा आस-पास की बोलचाल की भाषा में लिखे गए। उपन्यासों में रंगमंच पर तथा रेडियो और सिनेमा में उसका प्रयोग बहुलता से होता है। पिछले ३०-३५ वर्ष में, रवींद्रयुग की प्रधानता होते हुए भी, कुछ युवक लेखक नग्न यथार्थवाद के पथ पर चले किंतु इसमें अब यथेष्ट शिथिलता आ गई है। इसके बाद कुछ लेखकों में समाजवाद तथा साम्यवाद(कम्यूनिज्म) की भी प्रवृत्ति दिखी। अंग्रेजी व रूसी साहित्य का बहुत प्रभाव बँगला लेखकों पर पड़ा। वर्तमान बँगला साहित्य में कथासाहित्य की प्रधानता है, जिसका लक्ष्य मानव जीवन और मानव स्वभाव का सम्यग् रूप से चित्रण करना ही है। कई लेखक रवींद्र तथा शरत की परंपरा पर चलने का प्रयत्न कर रहे हैं। कविगण जतींद्रमोहन बागची, करुणानिधान बंद्योपाध्याय, कुमुदरंजन मलिक, कालिदास राय, मोहितलाल मजूमदार, श्रीमती राधारानी देवी, अमिय चक्रवर्ती प्रेगेंद्र मित्र, सुधींद्रनाथ दत्त, विमलचंद्र घोष, विष्णु दे आदि गद्यलेखक ताराशंकर बैनर्जी, विभूतिभूषण बैनर्जी (पथेर पांचाली, आरण्यक के लेखक बंगाली ग्राम्य जीवन के चितेरे), राजशेखर वसु (हास्य कथालेखक), आनंदशंकर राय, डॉ॰ बलाईचाँद मुखर्जी, सतीनाथ भादुड़ी, मानिक बैनर्जी, शैलजानं मुखर्जी, प्रथमनाथ वसु, नरेंद्र मित्र, गौरीशंकर भट्टाचार्य, समरेश वसु, वाज़िद अली, बुद्धदेव, काजी अब्दुल वदूद, नरेंद्रदेव, डॉ॰ सुकुमार सेन, गोपाल हालदार, श्रीमती शांतादेवी, सीतादेवी, अवधूत, श्री अवनींद्रनाथ ठाकुर (१८७१-१९५१) आदि अविस्मरणीय हैं। अवनींद्रनाथ ने कितनी ही पुस्तकें बालकों की दृष्टि से लिखीं और उनकी चित्रसज्जा स्वयं प्रस्तुत की। ये पुस्तकें कल्पनात्मक साहित्य के अन्य प्रेमियों के लिए भी अत्यंत रोचक हैं। उन्होंने कुछ छोटे-छोटे नाटक भी लिखे और कला पर कुछ गंभीर निबंध भी प्रकाशित किए। योगीराज अरविंद घोष (क्रांतिकारी-दार्शनिक-कवि, सावित्री महाकाव्य) की महत्वपूर्ण रचनाओं से बँगला साहित्य की श्रीवृद्धि में सहायता मिली।
विभाजन के पूर्व कुछ मुसलिम राजनीतिज्ञ बँगला में स्वतंत्र मुसलिम साहित्य का विकास चाहते थे लेखकों ने भाषा में इस तरह के पार्थक्य की कभी कल्पना नहीं की। कुछ लेखकों की कृतियों में अधिक अरबी-फारसी शब्दों का प्रयोग अवश्य हुआ। कवि कैकोवाद और उपन्यासलेखक मशरफ हुसेन के जंगनामा की तर्ज पर लिखित "विषाद सिंधु" के कई संस्करण छपे। कई मुस्लिम लेखक ख्याति प्राप्त कर रहे हैं। उपन्यासकार काज़ी अब्दुल वदूद ने रवींद्र साहित्य पर विवेचनात्मक पुस्तक, गेटे पर एक ग्रंथ दो खंडों में प्रकाशित किया। केंद्रीय सरकार के पूर्वकालीन वैज्ञानिक अनुसंधान मंत्री हुमायूँ कबीर बँगला के प्रतिभावान् कवि तथा अच्छे गद्यलेखक रहे। कवि गुलाम मुस्तफा, अब्दुल कादिर, बंदे अली, फारुख अहमद, एहसान हवीब आदि; गद्यलेखक डॉ॰ मुहम्मद शहीदुल्ला, अवू सैयिद अयूव, मुताहर हुसेन चौधरी, श्रीमती शमसुन नहर, अबुल मंसूर अहमद, अबुल फ़जल, महबूबुल आलम आदि का अवदान विशेष है। विभाजन के बाद पाकिस्तान सरकार ने प्रयत्न किया कि पूर्वी बंगाल के मुसलमान अपनी भाषा अरबी लिपि में लिखने लगें, पर इसमें सफलता नहीं मिली। मुसलिम छात्रों तथा अन्य लोगों ने इस प्रयत्न का तथा बंगालियों पर उर्दू लादने का जोरदार विरोध किया और बंगलादेश का उदय हुआ। चालिस के दशक में बामपंन्थी कवियों बीरेन्द्रनाथ चट्टोपध्याय, सुभाष मुखोपाध्याय, कृष्ण धर ने उल्लेखनीय कार्य किया।
आधुनिक युग -
पचास के दशक से पत्रिका-केन्द्रित शतभिषा के आलोक सरकार्, आलोक रंजन दासगुप्ता आदि कृत्तिबास के सुनील गंगोपाध्याय, शरतकुमार मुखोपाध्याय, तारापदो राय, समरेन्द्र सेनगुप्ता आदि को प्रसिद्धि मिली। साठ के दशक में जनांदोलनों ने कविता का चरित्र ही बदल दिया। भूखी पीढी (हंगरी जेनरेशन) के कवि-लेखकों पर समाज बदलने का ऐलान कर डाला। उनकी लेखनप्रक्रिया से बंगाली समाज भी खफा था। उनके विरुद्ध मुकदमें दायर हुये एवम आखिरकार मलय रायचौधुरी को उनकी कविताके चलते कारावास का दण्ड दिया गया था। आधुनिक बांग्ला साहित्यकारों में बिमल मित्र (१८-१२-१९१२ - १९९१, साहब बीबी और गुलाम, खरीदी कौड़ियों के मोल, इकाई दही सैंकड़ा, बेगम मेरी विश्वास, दायरे के बहार, मैं, राजा बदल, चरित्र, वे दोनों, गवाह नं. ३, काजल, कन्या पक्ष, तपस्या, राग भैरवी, सुबह का भूला, रोकड़ जो नहीं मिली, हासिल रहा तीन, आदि), शंकर, बिमल कर, आशापूर्णा देवी, महाश्वेता देवी, निमाई भट्टाचार्य के उपन्यास अनुवादित होकर भारत और विश्व की कई भाषाओँ में पढ़े गए हैं। तसलीमा नसरीन स्त्री विमर्शवादी लेखन के लिए बांग्ला देश से निर्वासित होकर भारत में रह रही हैं।
बांग्ला भाषा में ७ उन्यास एवं २२ कविता संकलन रच चुकीं मंदाक्रांता को बांग्ला काव्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, आनंद पुरस्कार, कृतिवास पुरस्कार तथा वर्ष २००४ में स्वर्णजयंती विशेष साहित्य अकादमी युवा रचनाकार पुरस्कार मिला है। उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा जिले में दादरी इलाके के एक गांव बिसहाड़ा में भीड़ द्वारा की गई मोहम्मद अखलाक की हत्या के बाद मंदाक्रान्ता ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया। 

दो दशक के बाद २०१६ में किसी बांग्ला लेखक को ज्ञानपीठ पुरस्‍कार मिला है। आधुनिक बांग्‍ला कवि-आलोचक शंख घोष से पहले १९९६ में बांग्ला लेखिका महाश्वेता देवी को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था. ज्ञानपीठ पुरस्कार के रूप ११ लाख रुपये, प्रशस्तिपत्र और वाग्देवी की कांस्य प्रतिमा दी जाती है। १९३२ में जन्मे शंख घोष प्रसिद्ध कवि, समालोचक और शिक्षक हैं। उनकी पढ़ाई कोलकाता में हुई। उन्‍होंने कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज से १९५१ में बांग्ला भाषा में कला में स्नातक डिग्री तथा यूनिवर्सिटी ऑफ कलकत्ता से मास्टर डिग्री प्राप्त की। उन्‍होंने यूनिवर्सिटी ऑफ कोलकाता से संबद्ध बंगबासी कॉलेज और सिटी कॉलेज में अध्‍यापन किया। वे १९९२ में जाधवपुर यूनिवर्सिटी से रिटायर हुए। वे १९६० में अमेरिका में लोवा राइटर्स वर्कशॉप में भी शामिल हुए थे।उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी, शिमला में द इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ एडवांस स्टडी और विश्व भारती यूनिवर्सिटी में भी लेक्चरार के रूप में भी अपनी सेवाएं दी हैं। घोष की प्रमुख रचनाओं में आदिम लता-गुलमोमॉय, मूखरे बारो, सामाजिक नोय, बाबोरेर प्रार्थना, दिनगुली रातगुली और निहिता पातालछाया आदि हैं। उनकी पहचान बांग्ला साहित्य में ऊर्जा भरने वाले कवि के रूप में है।  उन्होंने कविता के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग किए हैं।  कविता के नए-नए रूपों ने उनकी रचनात्मक प्रतिभा को उभारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।  उनकी कवितायें समाज को सशक्त संदेश देती हैं। 
बांगला साहित्य की शक्ति, सार्थकता और सोद्देश्यता उसके अनुवादित होने से प्रमाणित होती है किंतु अन्य भाषाओँ के साहित्य को बांग्ला में अनुवादित किये जाने के प्रति उदासीनता चिंतनीय है। म. गांधी ने सभी भारतीय भाषाओं को नागरी लिपि में लिखे जाने का सुझाव दिया था उसे अपनाया जाना चाहिए ताकि अन्य भाषा-भाषी बांगला-माधुरी का आनंद ले सकें।
***
संपर्क- विश्व वाणी हिंदी संस्थान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१
salil.sanjiv@gmail.com, 9425183244, #hindi_blogger



कोई टिप्पणी नहीं: