स रपत एक खास किस्म की घास का नाम हैं। पहाड़ों से मैदानों तक समूचे हिन्दुस्तान में यह हर उस जगह पाई जाती है जहां जलस्रोत होते हैं। खास तौर पर पानी के जमाव वाले इलाके, कछारी क्षेत्र, उथले पानी वाले इलाकों में इसकी बढ़वार काफी होती है। सरपत घास ज़रूर है पर वनस्पतिशास्त्र की नजर में बालियों वाली सारी वनस्पतियां घास की श्रेणी में ही आती है। गेहूं से धान तक तक सब। हां, सबसे प्रसिद्ध घास है गन्ना। उससे लोकप्रिय और मीठी वनस्पति और कोई नहीं। जहां तक भीमकाय घास का सवाल है, बांसों के झुरमुट को घास कहने का मन तो नहीं करता, पर है वह भी घास ही। सरपत भी सामान्य घास की तुलना में काफी बड़ी होती है। इसे झाड़ी कहा जा सकता है जो नरकुल की तरह ही होती हैं। आमतौर पर इनकी ऊंचाई दो-तीन फुट तक होती हैं। इसकी पत्तियां इतनी तेज होती हैं कि बदन छिल जाता है। बचपन में अक्सर बरसाती नालों को पार करते हुए हमने इससे अपनी कुहनियां और पिंडलियों पर घाव बनते देखे हैं। इसकी पत्तियां बेहद चमकदार होती हैं और सुबह के वक्त इसकी धार पर ओस की बूंदें मोतियों की माला सी खूबसूरत लगती हैं। बसोर जाति के लोग सरपत से कई तरह की वस्तुएं बनाते हैं जिनमें डलिया, बैग, चटाई, सजावटी मैट, बटुए, सूप हैं। हां, झोपड़ियों के छप्पर भी इनसे बनते हैं। सरपत शब्द बना है संस्कृत के शरःपत्र से। शरः का अर्थ होता है बाण, तीर, धार, चोट, घाव। पत्र का मतलब हुआ पत्ता यानी ऐसी घास जिसके पत्ते तीर की तरह नुकीले हों। सरपत का पत्ते को तीर की तुलना में तलवार या बर्छी कहना ज्याद सही है क्योंकि तीर तो सिर्फ अपने सिरे पर ही नुकीला होता है, सरपत तो अपनी पूरी लंबाई में धारदार होती है। सरपत के चरित्र को बतानेवाले इतने सारे अर्थ उसने यूं ही नहीं खोज लिए। ये तमाम अर्थ बताते हैं कि प्राचीनकाल से मनुष्य का सरपत से साहचर्य रहा है और किसी ज़माने में उसने इस घास का प्रयोग आत्मरक्षा के लिए भी ज़रूर किया होगा। इसीलिए इसे शरः कहा गया है। सभ्यता क्रम में मनुष्य ने सरपत से ही शत्रु की देह पर जख्म बनाए होंगे, उसे चीरा होगा। सिरे पर तीक्ष्णधार वाला तीर तो आत्मरक्षा की उन्नत तकनीक है जिसे विकासक्रम में उसने बाद में सीखा। तीर की तीक्ष्णता कृत्रिम और सायास है जबकि शर में तीर का भाव और गुण प्राकृतिक है। जाहिर है तीर का शरः नामकरण शरः घास के गुणो के आधार पर बाद में हुआ होगा। शरः बना है शृ धातु से जिसका मतलब होता है फाड़ डालना, टुकड़े टुकड़े कर देना, क्षति पहुंचाना आदि। हिन्दी संस्कृत में शरीर के लिए देह और काया जैसे शब्द भी हैं मगर सर्वाधिक इस्तेमाल होता है शरीर का। यह शरीर भी इसी शृ धातु से जन्मा है जिसका अर्थ नष्ट करना, मार डालना, क्षत-विक्षत करना होता है। इस शब्द संधान से साबित होता है कि चाहे देह के लिए शरीर शब्द आज सर्वाधिक पसंद किया जाता हो, मगर प्राचीनकाल में इसका आशय मृत देह से अर्थात शव से ही था। मनुष्य के विकासक्रम में इस शब्द को देखें तो पता चलता है कि प्राचीन मनुष्य के भाग्य में अप्राकृतिक कारणों से मृत्यु अधिक थी। वह राह चलते किसी मनुष्य से लेकर पशु तक का शिकार बनता था। यहां तक कि किन्हीं समुदायों में सामान्य मृत्यु होने पर भी शवों को वन्यप्राणियों का भोग लगाने के लिए उन्हें आबादी से दूर लावारिस छोड़ दिया जाता था ऐसे अभागों की क्षतिग्रस्त देह के लिए प्राचीनकाल से मनुष्य का सरपत से साहचर्य रहा है और किसी ज़माने में उसने इस घास का प्रयोग आत्मरक्षा के लिए भी ज़रूर किया होगा। ही शृ धातु से बने शरीर का अभिप्राय था। घास की एक और प्रसिद्ध किस्म है सरकंडा। इसमें भी चीर देने वाला शरः झांक रहा है। यह बना है शरःकाण्ड से। काण्ड का मतलब होता है हिस्सा, भाग, खण्ड आदि। सरकंडे की पहचान ही दरअसल उसकी गांठों से होती है। सरपत को तो मवेशी नहीं खाते हैं मगर गरीब किसान सरकंडा ज़रूर मवेशी को खिलाते हैं या इसकी चुरी बना कर, भिगो कर पशुआहार बनाया जाता है। वैसे सरकंडे से बाड़, छप्पर, टाटी आदि बनाई जाती है। सरकंडे के गूदे और इसकी छाल से ग्रामीण बच्चे खेल खेल में कई खिलौने बनाते हैं। हमने भी खूब खिलौने बनाए हैं। बल्कि मैं आज भी इनसे कुछ कलाकारी दिखाने की इच्छा रखता हूं, पर अब शहर में सरकंडा ही कहीं नजर नहीं आता। खरपतवार भी इसी शरःपत्र से बना शब्द लगता है। संस्कृत-हिन्दी में श वर्ण के ख में बदलने की प्रवृत्ति है। खरपतवार भी खेतों में फसलों के बीच उगने वाली हानिकारक घास-पात ही होती है। आमतौर पर इसे उखाड़ कर मेड़ पर फेंक दिया जाता है जिसे बाद में जलाने या खाद बनाने के में काम लिया जाता है।
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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गुरुवार, 16 अप्रैल 2009
शब्द-यात्रा : अजित वडनेरकर
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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