बेखुदी, और इंतज़ार नहीं,
छोड़ आई नज़र क़रार कहीं
तेरी रहमत है, बेपनाह मगर
अपनी किस्मत पे ऐतबार नहीं
निभे अस्सी बरस, कि चार घड़ी
रूह का जिस्म से, क़रार नहीं
सख्त दो-इक, मुकाम और गुजरें,
फ़िर तो मुश्किल, ये रह्गुजार नहीं
काश! पहले से ये गुमाँ होता,
यूँ खिजाँ आती है, बहार नहीं
अपने टोटे-नफे के राग न गा,
उनकी महफिल, तेरा बाज़ार नहीं
जांनिसारी, कहो करें कैसे,
जां कहीं, और जांनिसार कहीं
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
रविवार, 26 अप्रैल 2009
ग़ज़ल : मनु बेतखल्लुस, दिल्ली.
चिप्पियाँ Labels:
इंतज़ार,
किस्मत,
ग़ज़ल : मनु बेतखल्लुस,
जिस्म,
दिल्ली. बेखुदी,
नज़र,
रहमत,
रूह .
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें