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शनिवार, 4 अप्रैल 2009

बुन्देली दोहे

दयाराम गुप्त 'पथिक', ब्यौहारी, शहडोल

मादल थापों से झरे, जब महुआ का रंग।
झांके गोरी पैंजनी, झुकी-झुकी परत अनंग॥

लगत तुम्हारो हात प्रिय, चेहरा भयो गुलाल।
पायल की झंकार सुन, होत मृदंग निहाल॥

बातन मारी कंकरी, नयनन मरे बान।
तन-मन घायल कर गयी, बेसुध तरसे प्रान॥

बौराए सपने चहक, मलें गुलाबी रंग।
चैती कोयल कूकती, महके अंग-अनंग॥

अंग-अंग अंगडाइयां, पोर-पोर में पीर।
फागुन तन-मन रंग गया, फेंका रंग कबीर॥

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