ऐ मनुज!
बोलती है नज़र तेरी, क्या रहा पीछे कहाँ?
देखती है जुबान लेकिन, क्या 'सलिल' खोया कहाँ?
कोई कुछ उत्तर न देता, चुप्पियाँ खामोश हैं।
होश की बातें करें क्या, होश ख़ुद मदहोश हैं।
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सत्य यही है हम दब्बू हैं...
अपना सही नहीं कह पाते।
साथ दूसरों के बह जाते।
अन्यायों को हंस सह जाते।
और समझते हम खब्बू हैं...
निज हित की अनदेखी करते।
गैरों के वादों पर मरते।
बेटे बनते बाप हमारे-
व्यर्थ समझते हम अब्बू हैं...
सरहद भूल सियासत करते।
पुरा-पड़ोसी फसलें चरते।
हुए देश-हित 'सलिल' उपेक्षित-
समझ न पाए सच कब्बू हैं...
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लोकतंत्र का यही तकाज़ा
चलो करें मतदान।
मत देना मत भूलना
यह मजहब, यह धर्म।
जो तुझको अच्छा लगे
तू बढ़ उसके साथ।
जो कम अच्छा या बुरा
मत दे उसको रोक।
दल को मत चुनना
चुनें अब हम अच्छे लोग।
सच्चे-अच्छे को चुनो
जो दे देश संवार।
नहीं दलों की, देश
अब तो हो सरकार।
वादे-आश्वासन भुला, भुला पुराने बैर।
उसको चुन जो देश की, कर पायेगा खैर।
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