हिंदी कविता :
संजीव 'सलिल'
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दोहा-चौपाई सरस, गाया मैंने मीत.
नेह निभाने की नहीं, उसे सुहाई रीत.
नहीं भावना का किया, दो कौडी भी मोल.
मौका पाते ही लिया, छिप जेबों को तोल.
केर-बेर का संग यह, कब तक देता साथ?
जुडें नमस्ते कर सकें, अगर अलग हों हाथ.
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संजीव 'सलिल'
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गीता रामायण समझ, जिसे रहा मैं बाँच.
उसे न हीरे की परख, चाह रही वह काँच.दोहा-चौपाई सरस, गाया मैंने मीत.
नेह निभाने की नहीं, उसे सुहाई रीत.
नहीं भावना का किया, दो कौडी भी मोल.
मौका पाते ही लिया, छिप जेबों को तोल.
केर-बेर का संग यह, कब तक देता साथ?
जुडें नमस्ते कर सकें, अगर अलग हों हाथ.
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