जिस दिल पे मुझको नाज़ था...
पहलू में मेरे जब से मेरा दिल नहीं रहा।
उनकी नजर में मैं किसी काबिल नहीं रहा।।
समझा उसी ने दहर में कुछ राजे-बंदगी।
दैरो-हरम का जो कभी कायल नहीं रहा।।
किस दिल से अब सुनाएँ तुम्हें दिल की दास्ताँ।
जिस दिल पे मुझको नाज़ था वह दिल नहीं रहा।।
महवे-खयाले-दूरिये-मंजिल था इस कदर।
मुझको खयाले-दूरिये-मंज़िल नहीं रहा।।।
दिल ही से जहाँ में सब लुत्फे-जिन्दगी.
क्या लुत्फ़ जिंदगी का अगर दिल नहीं रहा?
उसकी इनायतों में तो कोई कमी नहीं।
मैं ही निगाहे-लुत्फ़ के काबिल नहीं रहा।
दुनिया ने आँखें फेर लीं नादाँ तो क्या गिला?
दिल भी तो मेरा अब वह मेरा दिल नहीं रहा.
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दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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गुरुवार, 9 अप्रैल 2009
ग़ज़ल स्व. नादां इलाहाबादी
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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