असर दिखला रहा है खूब, मुझ पे गुलबदन मेरा,
उसी के रंग जैसा हो चला है, पैराहन मेरा।
कोई मूरत कहीं देखी, वहीं सर झुक गया अपना
मुझे काफ़िर कहो बेशक, यही है पर चलन मेरा।
हजारों बोझ हैं रूह पर, मेरे बेहिस गुनाहों के,
तेरे अहसां से लेकिन दब रहा है, तन-बदन मेरा।
उस इक कूचे में मत देना बुलावे मेरी मय्यत के,
शहादत की वजह ज़ाहिर न कर डाले कफ़न मेरा।
मैं इस आख़िर के मिसरे में, जरा रद्दो-बदल कर लूँ
ख़फा वो हो ना बैठे, खूब समझे है सुखन मेरा।
मुझे हर गाम पर लूटा है, मेरे रहनुमाओं ने,
ज़रा देखूं के ढाए क्या सितम, अब राहजन मेरा।
यहाँ शोहरत-परस्ती है, हुनर का अस्ल पैमाना
इन्हीं राहों पे शर्मिंदा रहा है, मुझसे फन मेरा।
कभी आ जाए शायद हौसला, परबत से भिड़ने का,
ज़रा तुम नाम तो रख कर के देखो, कोहकन मेरा
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1 टिप्पणी:
मनु भी! क्या खूब लिखा है, आपकी ग़ज़लों का तर्जे-बयां ही सबसे अलग है. यही आपकी ताक़त है. इसे बनाये रखिये.
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