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शनिवार, 25 अप्रैल 2009

गज़ल : स्व. नादाँ इलाहाबादी

कुछ तो दुनिया में रहे नादाँ की बाकी यादगार.
इसलिए पेशेनजर अदना सी ये सौगात है..

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होश मस्तों को है सागर का न पैमाने का.
फ़ैज़े-साकी से अजब रंग है मैखाने का..

अब उसे गम नहीं कुछ बज़्म में जल जाने का.
नाम तो शम'अ से रोशन रहा परवाने का..

अब तो मैं होश में भूले नहीं आने का.
अपने मुझको लकब दे दिया दीवाने का..

तालिबे-इश्क़ हूँ मज़हब से मुझे क्या मतलब?
मैं हूँ पाबन्द न काबे का न बुतखाने का..

मैं वो मैकश हूँ जहाँ शीश-ओ-सागर देखे.
आँख में खिंच गया नक्शा वहीं मैखाने का..

हो गयी पूरी तमन्ना तो मज़ा क्या 'नादाँ'.
ज़िन्दगी नाम है अरमां पे मिट जाने का..

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