वह बोले- 'क्या आप शाम को घर पर रहेंगे? मैं चाहता हूँ कि इस नाज़ुक विषय पर गंभीरतापूर्वक चर्चा करुँ।'
मैंने कहा - 'आपका स्वागत है, एक बुद्धिजीवी होने के नाते इस पर विचार करना हमारा नैतिक कर्तव्य है। शाम को वे मेरे घर आए, अपनी कविताओं की डायरी निकालकर उन्होंने मुझे सांप्रदायिक सद्भाव कि कवितायें सुनायी और बोले- 'कैसी लगीं मेरी रचनाएं आपको? मैं चाहता हूँ कि आप इन कविताओं को संग्रह रूप में प्रकाशित करने में मेरी मदद करें। कहिये, मेरे संग्रह की कितनी प्रतियाँ आप बिकवायेंगे?'
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