नि र्वाचन के लिए चुनाव शब्द बड़ा आम और लोकप्रिय है। बोलचाल में निर्वाचन की जगह चुनाव शब्द का ही इस्तेमाल होता है। संचार माध्यम भी निर्वाचन के स्थान पर इसका प्रयोग ही करते हैं। पंचायत चुनाव, विधानसभा चुनाव या लोकसभा चुनाव-राज्यसभा चुनाव आदि। संसदीय चुनावों को आम चुनाव कहने का भी चलन है जो अंग्रेजी के जनरल इलेक्शन का अनुवाद ही है। चुनाव शब्द बना है चि धातु से जिससे चिनोति, चयति, चय जैसे शब्द बनते हैं जिनमें उठाना, चुनना, बीनना, ढेर लगाना जैसे भाव हैं। इन्ही भावों पर आधारित हिन्दी के चुनना, चुनाव,चयन जैसे शब्द भी हैं। निश्चय, निश्चित जैसे शब्द भी इसी कड़ी के हैं जो निस् उपसर्ग के प्रयोग से बने हैं जिनमें तय करना, संकल्प करना, निर्धारण करना शामिल है। इसके बावजूद सरकार चुनने की प्रक्रिया के लिए चुनाव शब्द में उतनी व्यापक अभिव्यक्ति नहीं है जितनी निर्वाचन शब्द में है। चि धातु में चुनने का जो भाव है वह सत्य की पड़ताल या विशिष्ट तथ्य के शोध से जुड़ा हुआ नहीं है बल्कि किसी समुच्चय में से कुछ चुन कर अलग समुच्चय बनाने जैसी भौतिक-यांत्रिक क्रिया अधिक लगती है और चिन्तन का अभाव झलकता है। चुनाव के लिए मराठी में निवडणूक शब्द है जो निर्वचन से ही बना है। निर्वचन का र मराठी के ड़ में तब्दील हुआ और अंत में ड में बदल गया। इसके साथ ही वर्ण विपर्यय भी हुआ। र ने व की जगह ली। क्रम कुछ यूं रहा। निर्वचन > निवड़अन > निवडन > निवडणूक। बीनने के लिए मराठी में निवड़न शब्द प्रचलित है और इसके क्रियारूप इस्तेमाल होते हैं। हिन्दी का निर्वाचन शब्द मूलतः संस्कृत वाङमय का ही शब्द है मगर लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत शासन प्रबंध के लिए योग्य प्रतिनिधियों के चुनाव का अभिप्राय इसमें नहीं था क्योंकि मूल रूप में यह निर्वचन है। संस्कृत में निर्वचन शब्द का मतलब होता है व्याख्या, व्युत्पत्ति या अभिप्राय लगाना। संस्कृत साहित्य में निर्वचन की परम्परा बहुत पुरानी है। मोटे रूप में समझने के लिए साहित्य की टीका लिखने के चलन को याद करें। इसे निर्वचन कहा जा सकता है। संस्कृत साहित्य में निर्वचन की परम्परा शुरू होने के पीछे भी साहित्य की वाचिक परम्परा का ही योगदान है। पुराणकालीन सूक्तों, श्लोकों के रचनाकारों नें इन्हें रचते वक्त जो व्याख्याएं कीं वे कालांतर में अनुपलब्ध हो गई। इनके आधार पर जो भाष्य़ लिखे गए उनमें विविधता रही। वैदिक-निर्वचन का उद्धेश्य ही यह है कि तमाम विविधताओं और विसंगतियों के बीच किसी भी उक्ति, भाष्य, श्लोक आदि की सार्थक व्याख्या हो। जाहिर है इस सार्थक व्याख्या के जरिये किसी एक निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। निर्वचन शब्द बना है निर्+वचन से अर्थात बहुत से वचनों के बीच से अर्थ को अलग करना। यूं कहें कि गूढ़ वचनों में छिपे संदेश को चुनना। स्पष्ट है कि निर्वचन में चुनने का भाव ही प्रमुखता से उभर रहा है। इसके दार्शनिक भाव को ग्रहण करें तो बहुत से तथ्यों, आयामों और व्याख्याओं में से किसी एक को चुनना। यह एक निश्चित ही सत्य है, क्योंकि असत्य या भ्रष्ट के चयन के लिए निर्वचन प्रक्रिया नहीं हो सकती। विडम्बना है कि वच् धातु, जिसमें कहना, बोलना, कथन, वचन जैसे भाव हैं, से बने इस शब्द में नेता के वचन ही प्रमुख हो गए। जो नेता जितनी वाचालता दिखाता है, उसके जीतने के योग उतने ही अधिक होते हैं। वाचाल-प्रयत्नों से चुनावी वैतरणी पार करने के तरीके सफल भी रहते हैं। इसके बाद जनप्रतिनधि महोदय के वचनों को सदन में चाहे असंदीय समझा जाए, जनता ने तो उन्ही वचनों के आधार पर उन्हें निर्वाचित कर अपना ईष्ट चुना है। दो हीन चरित्रों वाले प्रत्याशियों में से किसी एक के निर्वाचन से देश में शांति, स्थिरता और समृद्धि कैसे आएगी, जिन्हें पाने के लिए लोकतंत्र के इस यज्ञ का आयोजन होता है? स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को मान्यता देने के बाद राजभाषा के तौर पर हिन्दी की पारिभाषिक शब्दावली बनाने का काम शुरू हुआ। चुनाव के अर्थ में राजभाषा समिति के विद्वानों ने निर्वाचन शब्द तय किया। सरकार चुनने की प्रक्रिया के लिए मानक शब्द बनाने में अंग्रेजी के इलेक्शन शब्द को ही आधार बनाया गया। निर्वचन से बने निर्वाचन पर गौर करें तो इस शब्द की व्याख्या उसी तर्क प्रणाली पर आधारित जान पड़ती है जो इलेक्शन की है। इलेक्शन शब्द की रिश्तेदारी लैक्चर शब्द से है जिसमें पुस्तक से पाठ चुनने का जो भाव है वही भाव निर्वचन से बने निर्वाचन में आ रहा है यानी बहुतों में से एक को चुनना। विडम्बना है कि निर्वाचन जैसे गूढ़ दार्शनिक भावों वाले इस शब्द और प्रकारांतर से प्रक्रिया को वोट देने जैसी औपचारिकता का रूप दे दिया गया है। राजनीतिक पार्टियां ही प्रत्याशी तय करती हैं। वहां निर्वाचन के पवित्र अर्थ का ध्यान नहीं रखा जाता। भ्रष्ट-अपराधी अगर उम्मीदवार है तो उसका पार्टी स्तर पर उसका निर्वाचन सही कैसे कहा जा सकता है? महान राजनीतिक दलों को बहुतों में से एक परम सत्य के रूप में अगर अपराधी और दागी चरित्र के लोग ही जनप्रतिनिधि के रूप में विधायी संस्थाओं में देखने है तो यह निर्वाचन शब्द की घोर अवनति है। दो हीन चरित्रों वाले प्रत्याशियों में से किसी एक के निर्वाचन से देश में शांति, स्थिरता और समृद्धि कैसे आएगी, जिन्हें पाने के लिए लोकतंत्र के इस यज्ञ का आयोजन होता है?
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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गुरुवार, 23 अप्रैल 2009
शब्द यात्रा : अजित वडनेरकर - निर्वाचन
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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