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शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

नमन नर्मदा : कृष्ण गोप, मंडला.

माँ सुकुमारी वत्सल सलिला, उज्जवल मधुमय क्षीर नर्मदा।

मध्य प्रान्त की जीवन रेखा, विस्तृत नेहिल नीर नर्मदा॥

उर्वर मिट्टी रच कछार में, सब्जी-फल भर देती है।

मछुआरों को मछली देती, हरती तट की पीर नर्मदा॥

फसल सम्पदा बाँट रहा है अमृत जल जीवनकारी।

मेकल का मस्तक ऊंचा है, अंचल की जागीर नर्मदा॥

बस्ती के मकान जुड़ने को, बालू के भंडार विपुल।

मंदी-मस्जिद गढ़ हैं, स्वयं सजाती तीर नर्मदा॥

सुर सरिता के हरे-भरे तट, आशाओं के पोषक हैं।

कोई किनारा कैसे छोड, हर मन की जंजीर नर्मदा॥

गंगा की मैया कहलाती, पापनाशिनी वरदानी।

दर्शन से ही पुण्यदायिनी, देखें नयन अधीर नर्मदा॥

हर महानता उद्गम क्षण में, होती लघुतम बीजाकार।

एक विहंगम नदी कपिल धारा तक क्षीण लकीर नर्मदा॥

विविध स्वरुप अमरकंटक से सिन्धु तीर सौराष्ट्र तलक।

कहीं चपल चंचलता कल-कल, कहीं गहन गंभीर नर्मदा॥

पूर्वमुखी सारी नदियों से, अलग कहानी कहती है।

पूरब से पश्चिम को बहती, अद्भुत एक नजीर नर्मदा॥

नश्वर है शरीर माटी का, अजर अमर आत्मा सबकी।

साक्षी है बनने-मिटने की, अमर-धार अशरीर नर्मदा॥

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