कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 5 मार्च 2009

मुक्तक

पारस नाथ मिश्र, शहडोल

सफ़र भी खूबसूरत है चलो तुम भी,
शहसवारों की जरूरत है चलो तुम भी।
व्यावहारिक दक्षता कब काम आयेगी?
पाँव पड़ने का मुहूरत है चलो तुम भी।

गीत

पारस नाथ मिश्र, शहडोल

माटी का आकर बना है,
माटी का आधार बना है।
फिर क्यों प्यार न हो माटी से-
माटी का संसार बना है...

माटी के उत्तान महल ये,
माटी की औंधी झोपडियां।
माटी डाल गयी माटी के-
हाथों में बलात हथकडियां।
माटी की छाया में, माटी की-
मूरत शहीद होती है।
माटी के हाथों, माटी की-
नित माटी पलीद होती है.
माटी के क्रेता-विक्रेता
माटी का व्यापार बना है...

यद्यपि माटी के दीपक पर
माटी का पतंग जल जाता।
फिर भी शाश्वत रहा विश्व में,
माटी से माटी का नाता।
माटी अमृत और ज़हर भी,
माटी अमर और नश्वर भी।
युग-युग का विप्लव है माटी,
कल्प-कल्प का शांत समर भी.
माटी सृजन, सतत शाश्वत पर
माटी पर संहार पला है..

माटी का प्रणयी मिटता,
माटी की परिणीता के पीछे।
माटी का भगवान् भटकता,
माटी की सीता के पीछे।
माटी का मसीह, माटी को
चूम-चूम चन्दन कर जाता।
माटी का रसूल माटी ले,
माटी का कुरान रच जाता.
माटी के चरणों की रज ले,
माटी का पाषाण तरा है...

मैं माटी का बुला रहा हूँ,
कोइ माटी का आ जाए।
माटी पहचाने माटी को,
माटी को माटी पा जाए।
माटी का पुतला है साकी,
माटी का ही पीने वाला।
माटी पर ही मर मिटाता है,
हर माटी का जीने वाला.
साकी माटी के प्याले में,
माटी का ही सार भरा है,
फिर क्यों प्यार न हो माटी से
माटी का संसार बना है...

********************************

गीत

लज्जा

अवध प्रताप शरण

एक शाम खजुराहो की निर्वसना नारी
से कर बैठा प्रश्न एक अनजान अनाडी.
नारी का तो लज्जा ही भूषण है देवी.
तुमने चोली-लाज तजी, किसको दी साडी?

उत्तर में मुस्काई मधुर आर्या-प्रतिमा,
बोली-भद्र! तुम्हारा प्रश्न अरण्य-रुदन है.
लज्जा तो आवरण पुरुष ने डाला मुझ पर-
नग्न, सत्य, शाश्वत है और चिरंतन है.

नग्न न थी तो कलाकार ने नग्न कर दिया.
नग्न हुई तो कलाकार ने नयन ढँक लिए.
नग्न मूर्ति के कलाकार को मिली प्रशंसा-
नग्न मूर्ति ने दृष्टि, व्यंग,आक्षेप सह लिए.

दुर्बलता ताकत श्रृद्धा नर की नारी है,
उसे वासना-ममता की कठपुतली लगती.
सहनशीलता ही नारी का सच्चा गुण है.
मान या कि अपमान मौन हो सह लेती है.

मुझे कला की संज्ञा देकर नग्न किया है.
कलाकार ही मुझे बताये कला कहाँ है?
नेत्र, अधर, भ्रू, पग, सिर रहते नग्न सदा ही-
और कौन सा अंग कलामय यहाँ ढला है?

दूर देश से कई पर्यटक आते रहते.
मुझको कहते मूर्ति कला का अजब नमूना.
सत्य अजब हूँ, यही भारतीयों का कहना-
लाजवती भारत की नारी पर तन सूना.

नित्य सहस्त्राधिक पुरुषों के सम्मुख होकर
यह विवस्त्र तन लज्जित होकर दिखलाती हूँ.
नग्न किया, तन देखो फिर खुद ही शरमाओ
माँ भगिनी मैं सुता लाज से गड जाती हूँ.

*******************************************

गीत

विशाल देश का अन्तस्


अवध प्रताप शरण


अंधी गलियाँ, मूक डगर,
उजडे गाँव-विवस्त्र शहर।
महानगर में शीत लहर.
अनगिनती शव किये शीत ने
कितनी लोई?, कितने कम्बल?...

नत मस्तक लाचार नयन,
भूख अधिक कम है राशन।
अश्रुगैस-डंडा शासन
अनगिन पेट कलपते भूखे
कितना गेहूं?, कितना चांवल?...

लाखों अंधे, लाखों लूले।
लाखों पिचके, लाखों फूले।
अपाहिजों से खूब वसूले?
लुप्त दावा, परिचारक रूठे
कितने रोगी?, कितने घायल?...

*************************************

कोई टिप्पणी नहीं: