जबलपुर में पीपल के एक पुरातन वृक्ष को विस्थापित कर पुनः रोपने का अद्भुत सफल प्रयोग हुआ , मेरी साहित्यिक शब्दांजली , इस सुप्रयास को ....
विस्थापन
विवेक रंजन श्रीवास्तव
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बाबा कस्बे की शान हैं . वे उनके जमाने के कस्बे के पहले ग्रेजुएट हैं . बाबा ने आजादी के आंदोलन का जमाना जिया है , उनके पास गाँधी जी और सुभाष बाबू की कस्बे की यात्राओं के आंखों देखे हाल के कथानक हैं . बाबा ने कस्बे के कच्चे मकानों को दोमंजिला पक्की इमारतों में बदलते और धूल भरी गलियों को पक्की सीमेंटेड सड़कों में परिवर्तित होते देखा है.पूरा कस्बा ही जैसे बाबा का अपना परिवार है . स्कूल में निबंध प्रतियोगिता हो या कस्बे के किसी युवा को बाहर पढ़ने या नौकरी पर जाना हो , किसी की शादी तय हो रही हो या कोई पारिवारिक विवाद हो , बाबा हर मसले पर निस्वार्थ भाव से सबकी सुनते हैं , अपनेपन से मश्विरा देते हैं . वे अपने हर परिचित की बराबरी से चिंता करते हैं . उन्होंने दुनियां देखी है , वे जैसे चलते फिरते इनसाइक्लोपीडिया हैं . समय के साथ समन्वय बाबा की विषेशता है . वे हर पीढ़ी के साथ ऐसे घुल मिल जाते हैं मानो उनके समवयस्क हों . शायद इसी लिये बाबा "बाबा " हैं .
बाबा का एक ही बेटा है और एक ही नातिन अनु, जो उनकी हर पल की साथिन है . अनु के बचपन में बाबा स्वयं को फिर से जीते हुये लगते हैं . वे और अनु एक दूसरे को बेहद बेहद प्यार करते हैं .शायद अनु के बाबा बनने के बाद से ही वे कस्बे में हर एक के बाबा बन गये हैं . बाबा स्त्री शिक्षा के प्रबल समर्थक हैं . बाबा को घर के सामने चौराहे के किनारे लगे बरगद से बहुत लगाव है . लगता है बरगद बाबा का समकालीन है . बरगद और बाबा अनेक घटनाओं के समानांतर साक्ष्य हैं . दोनों में कई अद्भुत साम्य हैं , अंतर केवल इतना है कि एक मौन की भाषा बोलता है दूसरा मुखर है . बरगद पर ढ़ेरों पक्षियों का आश्रय है , प्रत्यक्ष या परोक्ष बाबा पर भी गांव के नेतृत्व और अनेकानेक ढ़ंग से जैसे कस्बा ही आश्रित है . अनु की दादी के दुखद अनायास देहांत के बाद , जब से बाबा ने डाढ़ी बनाना छोड़ दिया है , उनकी श्वेत लंबी डाढ़ी भी मानो बरगद की लम्बी हवा में झूलती जड़ों से साम्य उत्पन्न करती हैं , जो चौराहे पर एक दूसरे को काटती दोनों सड़कों पर राहगीरों के सिरों को स्पर्श करने लगी हैं . बच्चे इन जड़ों को पकड़कर झूला झूलते हैं . बरगद कस्बे का आस्था केंद्र बन चुका है . उसके नीचे एक छोटा सा शिवालय है . लोग सुबह शिवपिंडी पर जल चढ़ाते सहज ही देखे जा सकते हैं . तपती गर्मियों मे बरगदाही के त्यौहार पर स्त्रियाँ बरगद के फेरे लगाकर पति की लम्बी उम्र के लिये पूजन करती हैं , बरगद के तने पर बंधा कच्चा सूत सालों साल स्त्रियों की उन भावना पूर्ण परिक्रमाओ का उद्घोष करता नही थकता .
अनु , बाबा की नातिन पढ़ने में कुशाग्र है . बाबा के पल पल के साथ ने उसे सर्वांगीण विकास की परवरिश दी है . कस्बे के स्कूल से अव्वल दर्जे में दसवी पास करने के बाद अब वह शहर जाकर पढ़ना चाहती है . पर इसके लिये जरूरी हो गया है परिवार का कस्बे से शहर को विस्थापन .. क्योंकि बाबा की ढ़ृड़ प्रतिज्ञ अनु ने दो टूक घोषणा कर दी है कि वह तभी शहर पढ़ने जायेगी जब बाबा भी साथ चलेंगे . बाबा किंकर्तव्यविमूढ़ , पशोपेश में हैं .
विकास के क्रम में कस्बे से होकर निकलने वाली सड़क को नेशनल हाईवे घोषित कर दिया गया है . सड़क के दोनो ओर भवनों के सामने के हिस्से शासन ने अधिगृहित कर लिये हैं बुल्डोजर चल रहा है , सड़क चौड़ी हो रही है . बरगद इस विकास में आड़े आ रहा है . वह नई चौड़ी सड़क के बीचों बीच पड़ रहा है . ठेकेदार बरगद को उखाड़ फेंकना चाहता है . बाबा ने शायद पहली बार स्पष्ट उग्र प्रतिरोध जाहिर कर दिया है , कलेक्टर साहब को लिखित रूप से बता दिया गया है कि बरगद नहीं कटेगा सड़क का मार्ग बदलना हो तो बदल लें . कस्बे का जन समूह एकमतेन बाबा के साथ है .
गतिरोध को हल करने अंततोगत्वा युवा जिलाधीश ने युक्ति ढ़ूढ़ निकाली , उन्होंने बरगद को समूल निकालकर , कस्बे में ही मंदिर के किनारे खाली पड़े मैदान में पुनर्स्थापित करने की योजना ही नहीं बनाई उसे क्रियांवित भी कर दिखाया . विशेषज्ञो की टीम बुलाई गई , क्रेन की मदद से बरगद को निकाला गया , और नये स्थान पर पहले से किये गये गड्ढ़े में बरगद का वृक्ष पुनः रोपा गया है . लोगों के लिये यह सब एक अजूबा था . अखबारों में सुर्खिया थी . सबको संशय था कि बरगद फिर से लग पायेगा या नहीं ? बरगद के नये स्थान पर पक्का चबूतरा बना दिया गया है , जल्दी ही बरगद ने फिर से नई जगह पर जड़ें जमा लीं , उसकी हरियाली से बाबा की आँखों में अश्रुजल छलक आये . बरगद ने विस्थापन स्वीकार कर लिया था .बाबा ने भी अनु के आग्रह को मान लिया था और अनु की पढ़ाई के लिये आज बाबा सपरिवार सामान सहित शहर की ओर जा रहे थे , बाबा ने देखा कि बरगद में नई कोंपले फूट रही थीं .
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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मंगलवार, 24 मार्च 2009
जबलपुर में पीपल के एक पुरातन वृक्ष को विस्थापित कर पुनः रोपने का अद्भुत सफल प्रयोग हुआ
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
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