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गुरुवार, 12 मार्च 2009

कवितायें
लक्ष्मी शर्मा
एक विभ्रम में
शायद शब्द कुछ बन पाते
हो पाते साकार
इसके पूर्व ही
एक विभ्रम में
बिखर गए शब्द
हो गए निराकार.

और कागज़ के स्थान पर
निरंतर
छपते रहे
मस्तिष्क के पटल पर.

चलता रहा यह अनवरत क्रम
और बनते -गिरते रहे
लगातार
बार-बार
बार-बार

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रूपांतरण
वक़्त को
ओढ़कर
सो गयी मैं.

कई वर्ष बीत गए,
जब जागी अपनी निद्रा से
तो उस अन्तराल को देखकर
आश्चर्यचकित रह गयी.
बड़ा आश्चर्य हुआ,
इस बीच जो कुछ
मैंने देखा
वह स्वप्न सरीखा था।
मोरपंखी,
रंग-बिरंगे-
कई चित्र
मुझे लगा
इस अन्तराल ने
मुझे
दो व्यक्तित्वों में बदल दिया है।

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अनवरत क्रम
स्वप्निल आँखों में
एकाकीपन
और अधिक गहराने लगता है।

चारों ओर
वीरानगी नजर आती है।
गुजरती हवाएं
कचोटती सी लगती हैं।

अपना ही साया
हो गया है बेगाना
सब कुछ
खोया-खोया सा
महसूस होता है.

सूरज के उगने से
लेकर
चाँद के ढलने तक
अनवरत चलता है यह क्रम
झोली भर सुख की तलाश में
प्रतीक्षारत हूँ मैं।

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