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रविवार, 29 मार्च 2009

कविता


परायों के घर
विजय कुमार सप्पत्ति, सिकंदराबाद
कल रात
दिल के दरवाजे पर
दस्तक हुई।
उनींदी आंखों से देखा तो
तुम थीं।
तुम मुझसे
मेरी नज़्म माग रहीं थीं।
उन नज्मों को
जिन्हें मैंने सम्हाल रखा था
तुम्हारे लिए
एक उम्र तक,
आज कहीं खो गयीं थीं,
वक़्त के धूल भरे रास्तों में
शायद उन्हीं रास्तों में
जिन पर चल कर
तुम यहाँ तक आयी हो।
क्या तुम्हें किसी ने नहीं बताया
की परायों के घर
भीगी आंखों से नहीं जाते।

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