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रविवार, 22 मार्च 2009

कविता एक पुडिया - मौत का समान : प्रदीप पाठक


शोख हसीं बचपन,
और अब ताज़ा जवानी,
सब खत्म हो गया,
वह जो झील का पानी था,
फिर बेरंग हो गया,
सँभलते हुवे सपने,
सँवरते हुए अरमां,
फिर ओझल थे,
कोडियों को तरसते नैनां,
अब आँसुओं से बोझिल थे,
मैं तड़पता रहा,
एक लौ की गुजारिश करता रहा,
पर बेईमान सा हर एक कोई-
चोर नज़र आया,
मेरी जिंद जो पुडिया मे बंद थी,
उसे नोच आया,
मै सुबकता रहा,
रोता रहा,
हर पीडा में,
आज़ादी खोजता रहा,
कशमकश सी थी,
ज़िन्दगी औ' मौत के बीच,
हर अंगडाई में अपनी,
नई खामोशी सहेजता रहा,
अब क्या करूँ,
किसे कहूँ!
बहुत चुभन है,
कोई संभाले तड़पती तस्वीर को,
नहीं कोई लगन है।
मर रहा हूँ अब,
जल रहा हूँ अब,
शायद अब यही प्रायाश्चित्य है,
हर सांस मर्म पर आश्रित है।
( यह कविता मेरे उन नौजवान दोस्तों के लिए है जो ड्रग्स के शिकार हो रहे हैं... हम सब की गुजारिश है
इस ज़हर को मत अपनायें... यह सब कुछ ख़तम करता है.... सब कुछ...!! .... ज़िन्दगी बहुत ख़ूबसूरत है,
इसे हमारे साथ मिल कर आगे बढाइये... ग़म, नाउम्मीदी कभी आपके सपनों को नहीं डगमगायेगी....!!)

1 टिप्पणी:

Divya Narmada ने कहा…

मार्मिक कविता...आपकी फ़िक्र सामयिक और दूरदर्शी है. ---सलिल