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रविवार, 29 मार्च 2009

कविता

शर्म नहीं आती

देवेन्द्र कुमार मिश्रा, छिंदवाडा

शर्म नहीं आती उन्हें
मर चुका हो जिनकी
आंखों का पानी
बचते-भागते फिरते हों जो
धिक्कार है उनकी जवानी।
दो कौडी का तुम्हारा अभिमान
कुटिल खल कामी।
तुम्हें है
किस बात का गुमान?
अपना हित देखा
अपनी खातिर जिया
दूसरों को भाद में झोंकता
तू कहाँ रहा
मनुज की सन्तान?
बचपन में मिट्टी से खेला
जवानी में उसी की
कर दी मट्टीपलीद
बुढापे में भी
रोता रहा अपना रोना
तुझसे भली है
जानवरों की संतान।
न बुद्धि बल,
न हृदय बल,
न बांहों में जोर।
कपटी-कायर
तेरी नियत में खोट,
तेरे मं में चोर।
कुत्ते भी भौंकते हैं,
चोर की रह रोकते हैं।
मालिक के प्रति
होते हैं वफादार।
तू?
अपनों का नहीं,
गैरों का क्या होगा?
नीच, नराधम
अहसान फरामोश
नाली के कीडे
बता कहाँ से तुझमें
आदम का जोर ?

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