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मंगलवार, 31 मार्च 2009

दोहे लोकतंत्र के - चंद्रसेन 'विराट'

लोकतंत्र का नाम है. कहाँ लोक का तंत्र?
भीड़-तंत्र कहना उचित, इसमें भीड़ स्वतंत्र.

सधे लोकहित लोक से, तभी लोक का तंत्र.
पर कुछ चतुरों ने किया, इसे वोट का यंत्र.

राजनीति जनतंत्र की, है कापालिक तंत्र.
शाखाओं को सीचती, भूल मूल का मन्त्र.

यह भेड़ों की भीड़ है, यह भेड़ों की चल.
अर्ध शती बीती मगर, वही हाल बेहाल.

भेडें हैं भोली बहुत, समझ न पातीं चाल.
रहते इनमें भेडिये, ओढ़ भेड़ की खाल.

भेड़जनों के भेडिये, बनकर पहरेदार,
लोकतंत्र के नाम पर, करते स्वेच्छाचार.

भेडचाल छूटी नहीं, रहे भेड़ के भेड़.
यही चाहते भेडिये, खाएं खाल उधेड़.

भेड़ों में वह भेडिया, शामिल बनकर भेड़.
रोज भेड़ कम हो रहीं, खून रँगी है मेड.

यह भेड़ों की भीड़ जो, सबसे अधिक विशाल.
उसे हाँकते भेडिये, बदल-बदलकर खाल.

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