कुल पेज दृश्य

रविवार, 11 नवंबर 2018

हाइबन

हाइबन
*
'विश्वैक नीड़म्' (संसार एक घोंसला है), 'वसुधैव कुटुम्बकम्' (पृथ्वी एक कुटुंब है) आदि अभिव्यक्तियाँ भारतीय मनीषा की उदात्तता की परिचायक हैं। विश्ववाणी हिंदी इसी पृष्ठभूमि में विश्व की हर भाषा-बोली के शब्दों और साहित्य को गले लगाती है। हिंदी साहित्य लेखन को मुख्यत: गद्य-पद्य दो वर्गों में रखे जाने के साथ ही दोनों मिलाकर अथवा दोनों विधाओं के गुण-धर्म युक्त साहित्य रचा जाता रहा है। 'गद्य ग़ीत', 'अगीत' आदि ऐसी ही काव्य-विधाएँ हैं। गद्य गीत वह गद्य है जिसमें आंशिक गीतात्मकता हो। अगीत ऐसे गीत हैं जिनमें गीत के बंधन शिथिल कर आंशिक गद्यात्मकता को आत्मसात किया गया हो। इन दोनों विधाओं की रचनाएँ कथ्यानुसार आकार ग्रहण करती हैं। हाइकु, ताँका, सेदोका, चोका, स्नैर्यू आदि काव्य विधाएँ हिंदी में ग्रहण की जा चुकी हैं। जापानी काव्य विधा 'हाईकु' के रचना विधान (तीन पंक्तियों में ५-७-५ उच्चार) में पद्य-गद्य का मिश्रित रूप है 'हाइबन'।
डॉ. हरदीप कौर संधू के अनुसार- ''हाइबन' जापानी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है 'काव्य-गद्य'। हाइबन गद्य तथा काव्य का संयोजन है। १७ वीं शताब्दी के कवि बाशो ने इस विधा का आरंभ १६९० में आपने एक दोस्त को खत में सफरनामा /डायरी के रूप में 'भूतों वाली झोंपड़ी' लिखकर किया। इस खत के अंत में एक हाइकु लिखा गया था। हाइबन की भाषा सरल, मनोरंजक तथा बिंबात्मक होती है। इस में आत्मकथा, लेख , लघुकथा या यात्रा का ज़िक्र आ सकता है। पुरातन समय में हाइबन एक सफरनामे या डायरी के रूप में लिखी जाता था। यात्रा करने के बाद बौद्ध भिक्षु पूरी दिनचर्या को वार्ता के रूप में लिख लेता था और अंत में एक हाइकु भी''
चढ़ती लाली
पत्ती -पत्ती बिखरा
सुर्ख गुलाब।
(यह हाइकु विकलांग बच्चों के माता -पिता के मन की दशा को ब्यान करता है। इन बच्चों की जिंदगी तो अभी शुरू ही हुई है अभी तो दिन चढ़ा ही है। सूर्य की लालिमा ही दिखाई दे रही है…मगर सुर्ख गुलाब …ये बच्चे …पत्ती-पत्ती हो बिखर भी गए। इनको तमाम जिंदगी इनके माता -पिता ही सँभालेंगे। स्कूल ऑफ़ स्पेशल एजुकेशन -"चिल्ड्रन विथ स्पेशल नीड्स "… का अनुभव ब्यान करता http://trivenni.blogspot.ca/2014/05/blog-post_8141.html)

कुछ और उदाहरण-
बहेतू हवा
लाई धूनी की गंध
देव द्वार से।
(अभी अभी बाहर टहलने निकली तो वातावरण में धूप अगरबत्ती फूल सबका मिला जुला गंध बहुत ही मोहक लगा.... लेकिन कहीं पास में ना तो कोई माता पंडाल है और ना कोई मन्दिर है)
*
अट्टा जो मिले
ढूँढें झिर्री जीवन
रश्मि हवा भी
(अगर जोड़ते है इसे एक लड़की के अरमानों से...जिसकी गरीब मोहब्बत की झोपड़ी को कुचल कर उसके ऊपर बना दिया गया है... एक महल... उसे थमा दिया गया है सोने का एक महल... जिसमे कैद है वो... अपने अरमानों के साथ... नहीं है एक धड़कता दिल जो बन सके एक झरोखा... उसकी कैद जिन्दगी में... जिससे आ सके थोड़ी सी रोशनी और खुली हवा...चरों ओर ऊँची-ऊँची दीवारें है... जिनसे टकराकर दुआए भी लौट जाती हैं ... हैं तो बस दीवारें और अँधेरा ... और ढूँढती रहती है वो एक झरोखा... उन दीवारों में)
*
नभ बिछुड़ा
बेसहारों का आस
उडु भू संगी ।
*
कुछ अन्य जापानी काव्य विधाएँ-

हाइकु (३ पंक्तियों में ५-७-५ उच्चार) भूल न जाना झाड़ियों में खिले ये बेर के फूल -बाशो
. नश्वर संसार में छोटी सी चिड़िया भी बनाती है नीड़ -इस्सा
. मंदिर के घंटे पर चुपचाप सोई है एक तितली -बुसोन
.
आकाश बड़ा
हौसला हारिल का
उससे बड़ा -नलिनिकान्त
. ईंट-रेत का मंदिर मनहर देव लापता -संजीव वर्मा 'सलिल' .
जेरीली हवा
हमनेज करीदी
अबे भुगतां -मालवी हाइकु, ललिता रावल
*
ताँका (५ पंक्तियों में ५-७-५-७-७ उच्चार)
जापानी काव्य विधा ताँका (短歌)  को नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के दौरान प्रसिद्धि मिली। इसके विषय धार्मिक या दरबारी हुआ करते थे। हाइकु का उद्भव इसी से हुआ।[1] इसकी संरचना ५+७+५+७+७=३१ वर्णों से  होती है। एक कवि प्रथम ५+७+५=१७ भाग की रचना करता था तो दूसरा कवि दूसरे भाग ७+७ की पूर्त्ति के साथ शृंखला को पूरी करता था। फिर पूर्ववर्ती ७+७ को आधार बनाकर अगली शृंखला में ५+७+५ यह क्रम चलता; फिर इसके आधार पर अगली शृंखला ७+७ की रचना होती थी। इस काव्य शृंखला को रेंगा कहा जाता था।
इस प्रकार की शृंखला सूत्रबद्धता के कारण यह संख्या १०० तक भी पहुँच जाती थी। ताँका पाँच पंक्तियों और ५+७+५+७+७=३१ वर्णों के लघु कलेवर में भावों को गुम्फित करना सतत अभ्यास और सजग शब्द साधना से ही सम्भव है। इसमें यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि इसकी पहली तीन पंक्तियाँ कोई स्वतन्त्र हाइकु है। इसका अर्थ पहली से पाँचवीं पंक्ति तक व्याप्त होता है।
ताँका का शाब्दिक अर्थ है लघुगीत अथवा छोटी कविता।[2] लयविहीन काव्यगुण से शून्य रचना छन्द का शरीर धारण करने मात्र से ताँका नहीं बन सकती। साहित्य का दायित्व बहुत व्यापक है। अत: ताँका को किसी विषय विशेष तक सीमित नहीं किया जा सकता।
रो रही रात
बुला रही चाँद को
तारों को भी
डरती- सिसकती
अमावस्या है आज - डॉ. अनीता कपूर
.
मदन गंध
कहाँ से आ रही है?
तुम आए क्या?
महके हैं
घर-आँगन मेरे -आचार्य भगवत दुबे
.
मन बैरागी
हुआ है आज बागी
तुम्हें देख के
बुनता नए स्वप्न
जीन की आस जागी -मंजूषा 'मन'
*
सेदोका (६ पंक्तियों में ५-७-७, ५-७-७ उच्चार)
जापान में ८वीं सदी में प्रचलित रहा छंद जिसमें प्रेमी या प्रेमिका को सम्बोधित कर ५-७-७, ५-७-७ दो अधूरी काव्य रचनाएँ (प्रश्नोत्तर / संवाद भी) संगुफित होती हैं। इसे कतौता (katauta = kah-tah-au-tah) कहते हैं। इसमें विषयवस्तु, ३८ वर्ण, पंक्ति संख्या या तुक बंधन रूढ़ नहीं होता। सेदोका का वैशिष्ट्य संवेदनशीलता है।
ले जाओ सब
वो जो तुमने दिया
शेष को बचाना है
सँभालने में
आधी चुक गई हूँ
भ्रम को हटाना है -डॉ. अनीता कपूर .
क्या पूछते हो रास्ता जाता कहाँ है? बताऊँ सच सुनो। जाता नहीं है रास्ता कोई कहीं भी हमेशा जाते हमीं। -संजीव वर्मा 'सलिल'
*
चोका
चोका उच्चार पर आधारित उच्च स्वर में गाई जाने वाली एक लम्बी कविता (नज़्म) है। चुका में ५ और ७ वर्णों के क्रम में यथा ५+७+५ +७+५+ ....... पंक्तियों को व्यवस्थित करते हैं और अन्त में एक ताँका अर्थात ७ वर्ण की एक और पंक्ति जोड़ देते हैं।  इसमें पंक्ति संख्या या विषय बंधन नहीं है। 
खुद ही काटें
ये दु:ख की फ़सलें
सुख ही बाँटें 
है व्याकुल धरती
बोझ बहुत 
सबके सन्तापों का
सब पापों का
दिन -रात रौंदते
इसका सीना
कर दिया दूभर
इसका जीना 
शोषण ठोंके रोज़
कील नुकीली
आहत पोर-पोर
आँखें हैं गीली
मद में ऐंठे बैठे
सत्ता के हाथी
हैं पैरों तले रौंदे 
सच के साथी
राहें हैं जितनी भी
सब में बिछे काँटे ।  -रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' *
हाइगा (चित्र कविता)
एक छोटा लड़का जिसे हाइगा के लिए मार्गदर्शन दिया जा रहा है।
हाइगा शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है 'हाइ' और 'गा'। हाइ शब्द का अर्थ है हाइकु और 'गा' का तात्पर्य है चित्र। इस प्रकार हाइगा का अर्थ है चित्रों के समायोजन से वर्णित किया गया हाइकु। वास्तव में हाइगा’ जापानी पेण्टिंग की एक शैली है, जिसका शाब्दिक अर्थ है-’चित्र-कविता’। हाइगा की शुरुआत १७ वीं शताब्दी में जापान में हुई। तब हाइगा रंग-ब्रुश से बनाया जाता था।
भारतीय लघु काव्य विधाएँ
ककुप

माहिया
जनक छंद (३ पंक्तियाँ १३-१३-१३ मात्राएँ)
सबका सबसे हो भला
सभी सदा निर्भय रहें
हो मन का शतदल खिला -आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
.
कुसुमाकर फिर आ गया
नवपल्लव पुष्पों छिपा
फिर मनोज जग छा गया -डॉ. ओमप्रकाश भाटिया 'अराज'
*
कहमुकरी





कोई टिप्पणी नहीं: