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गुरुवार, 21 अक्तूबर 2021

लेख : 'गाँधी विचार की प्रासंगिकता'

लेख :
'गाँधी विचार की प्रासंगिकता'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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                      बापू ऐसे इंसान हैं जो अपने जीवन काल में ही किंवदंती बन गए थे। सुविख्यात वैज्ञानिक आइंस्टाइन ने कह ही किया था कि आनेवाली पीढ़ियाँ इस बात पर मुश्किल से विश्वास कर सकेंगी कि कभी धरती पर इस तरह का हाड़-मांस वाला मनुष्य भी था। सनातन मूल्यों के वर्तमान संक्रमण काल में सत्य और अहिंसा की आधार शिला पर अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक, राजनैतिक और सामाजिक जीवन इमारत खड़ी करनेवाले, साधारण रूप-रंग, कद-काठी किंतु असाधारण ही नहीं अनुपमेय चिंतन शक्ति और कर्म निष्ठा के जीवंत उदाहरण गाँधी जी से आत्मिक जुड़ाव की अनुभूति कर, उनके व्यक्तित्व-कृतित्व से अभिभूत होकर, एकांतिक निष्ठा और समर्पण के दिव्य भाव से समर्पित होकर गाँधी का अनुकरण करनेवाले मनुष्य अब अलभ्य हैं। म. गाँधी की नौका पर चढ़कर चुनावी वैतरणी पार करनेवाले उनके नाम का सदुपयोग (?) उनके जीवन काल से अब तक असंख्य बार करते रहे हैं और न जाने कब तक करते रहेंगे। गाँधी जी के विचारों की हत्या कर, उनके अनुयायी होने का दावा करनेवालों की संख्या भी अनगिनत है किंतु बिना किसी स्वार्थ के गाँधी जी के व्यक्तित्व-कृतित्व से अपनत्व और अभिन्नता की प्रतीति कर काव्य कर्म को मूर्त करने की साधना न तो सहज है, न ही सुलभ। प्रतिदिन शुचि-सात्विक चिंतनपरक कर्म का वैचारिक अश्वमेध स्वहित तजे बिना बिना पूर्ण नहीं होता, जबकि तथाकथित गाँधीवादी और गाँधीवधिक दोनों गाँधी के विचार और कर्म की छाया स्पर्शतक नहीं कर पाते और तब अंधानुकरण या अंधालोचना कर अपने अहं की तुष्टि कर लेते हैं। दर्शन शास्त्र में स्नातकोत्तर अध्ययन करते समय गाँधी दर्शन से दो-चार होने के अवसर मिला है। समय-समय पर अपने आचरण में यदा-कदा वह प्रभाव पाता भी रहा हूँ। गाँधी दर्शन के अध्ययन से पूर्व और पश्चात के मनोभाव से साक्षात का सुअवसर ऐसा लगता है गाँधी विचार सलिला में अवगाहन कर रहा हूँ।

गाँधी का उद्भव और प्रभाव

                      गाँधी और बिहार का संबंध विशिष्ट है। गाँधी जी के शब्दों में ''बिहार ने ही मुझे सारे हिन्दुस्तान में जाहिर किया। उससे पहले तो मुझे कोई जानता भी न था। बीस साल अफ्रीका में रहने के कारण मैं हबसी सा बन गया था। उसके बाद मैं चम्पारन में आया और सारा हिन्दुस्तान जाग उठा। पहले मैं जनता भी न था कि चंपारण कहाँ है? लकिन जब यहाँ आया तो मुझे ऐसा मालूम हुआ कि मैं बिहार के लोगों को सदियों से जानता था और वे भी मुझे पहचानते थे।'' गांधी को बिहार लानेवाले राजकुमार शुक्ल चंपारन जिले के सामान्य कृषक थे जिन्होंने गाँधी जी से बार-बार अनुरोध कर उन्हें चंपारन आने के लिए मनाया और नील आंदोलन के माध्यम से बिहार ही नहीं देश और विश्व के भविष्य को प्रभावित कर बदलनेवाले युगपुरुष को गोरे निलहों के अमानुषिक अत्याचार समाप्त करने का माध्यम बनाया।

                      इस प्रसंग में डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी लिखते हैं ''बिहार के भी प्रतिनिधि अच्छी संख्या में लखनऊ (कांग्रेस महाधिवेशन १९१६) पहुँचे थे। उनमें कुछ लोग चंपारन के थे। जिनमें एक देहाती किसान राजकुमार शुक्ल थे। वह थोड़ी हिन्दी जानते थे पर और कोई भाषा नहीं। वह उन लोगों में थे जिन्होंने खुद नीलबरों के हाथों से दुःख पाया था। चंपारण जिले की सताई हुए प्रजा की ओर से वह कोंग्रस में पहुँचे थे। उनसे मेरी मुलाकात कुछ पहले से ही थी क्योंकि जब कभी कोई मुकदमा हाई कोर्ट पहुँच जाता था तो मैं फीस की परवाह न कर उन लोगों के वकील की हैसियत से काम कर दिया करता था।' १

                      राजकुमार कुछ साथियों के साथ गाँधी जी से मिले तो गाँधी जी ने रूचि ली किन्तु खुद सारी परिस्थिति देखे बिना बिना प्रस्ताव प्रस्तुत करने से मना कर दिया। बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद ने कांग्रेस में प्रस्ताव प्रस्तुत किया तो राजकुमार भी उस पर बोले। गांधी जी लखनऊ से कानपूर गए तो राजकुमार फिर पीछे लग गए। गाँधी जी आश्रम गए तो भी राजकुमार ने पीछा न छोड़ा और चंपारन के लिए दिन तय करने का अनुरोध किया। गाँधी जी के अनुसार - ''मैं आश्रम गया तो राजकुमार शुक्ल वहां भी मेरे पीछे लगे हुए थे। 'अब तो दिन मुकर्रर कीजिए।' मैंने कहा 'जाइए, मुझे फलां तारीख को कलकत्ते जाना है, वहाँ आइयेगा और मुझे ले जाइएगा।' कहाँ जाना, क्या करना, क्या देखना है, इसका मुझे कुछ पता नहीं था। कलकत्ता में भूपेन बाबू के यहाँ मेरे पहुँचने के पहले उन्होंने डेरा डाल रखा था। इस अपढ़, अनगढ़ पर निश्चयवान किसान ने मुझे जीत लिया।''२

                      गाँधी जी को पत्र लिखकर याद दिलाते समय राजकुमार ने श्री राम द्वारा अहल्या उद्धार प्रसंग की याद दिलाते हुए, उनसे चंपारन के १९ लाख किसानों के उद्धार की प्रार्थना की। गाँधी जी ने कलकत्ते आकर ले जाने का जो पत्र भेजा वह यथासमय राजकुमार को नहीं मिला। जब वे कलकत्ते पहुँचे तो गाँधी जी दिल्ली जा चुके थे। लौटकर राजकुमार ने फिर गाँधी जी को पत्र भेजा। इस बार गाँधी जी के पहुँचने के पहले ही राजकुमार ने कलकत्ते पहुंचकर भूपेन बाबू के घर पर डेरा जमा लिया था। ३ अप्रैल १९१७ को कांग्रेस महासमिति की बैठक में राजेंद्र बाबू तथा बिहार के कुछ अन्य सदस्य भी थे। राजेंद्र बाबू २ दिनों तक निरंतर गाँधी जी के बाजू में बैठे थे किन्तु उन दोनों में कोई बात न हुई।३

                      गाँधी जी के साथ ९ अप्रैल १९१७ को पटना रवाना होने तक राजकुमार ने ऐसा प्रदर्शित किया मानों पटना में सब व्यवस्था सुलभ है लेकिन १० अप्रैल की सुबह कलई खुल गई कि ऐसा था नहीं। वे गाँधी जी को पहले अपने वकील के यहाँ ले गए पर बात नहीं बनी तो राजेंद्र बाबू के घर पहुँचे। वे पुरी गए थे। मालिक की अनुपस्थिति में नौकर ने उन्हें अंदर नहीं ठहराया, यह खबर मिलने पर गाँधी जी के साथ लंदन में पढ़ चुके मौलाना मज़रुल हक़ आकर उन्हें अपने बंगले पर ले गए। गाँधी जी मुजफ्फरपुर होते हुए चंपारण के जिला मुख्यालय मोतिहारी पहुँचे।गाँधी जी का तार पाकर राजेंद्र बाबू ब्रजकिशोर बाबू के साथ मोतिहारी पहुँचे। गाँधी जी ने चंपारण आंदोलन द्वारा राजनीति को मंचों और प्रस्तावों के चक्रव्यूह से निकल कर मैदानी वास्तविकता की कसौटी पर कसा। ''गाँधी जी के सद्प्रयत्नों से निलहों के अत्याचारों से मुक्ति के लिए ब्रिटिश सरकार को एक कमीशन की नियुक्ति करनी पड़ी, जिसमें गाँधी जी भी एक सदस्य बनाए गए। शायद यह पहला अवसर था जब गाँधी जी के सामने सरकार को झुकना पड़ा।४

                      गाँधी जी का चंपारन पर क्या प्रभाव पड़ा और वह कितना स्थाई हुआ, यह जानने के लिए १९७३ (चंपारन सत्याग्रह के ५६ वर्ष बाद) की एक घटना देखें। श्री केदार पांडेय के मुख्य मंत्रित्व काल में बिहार के बड़े जिलों को दो छोटे जिलों में विभाजित करने का निर्णय हुआ ताकि केंद्र शासन से अधिक वित्तीय सहायता मिल सके। चंपारन जिला को मुख्यालय चंपारन तथा बेतिया दो खंडों में वभाजित करने का निर्णय लिया गया। पुराने गाँधीवादी तमतमाकर खड़े हो गए 'चंपारन के नाम कैसे बदली। भला ई ऐतिहासिक जिला बा, जहाँ गाँधी जी के सत्ग्रयाह के सुरआत भईल। दुनिया गाँधी जी के चंपारन नाम से जानेला।' जिले के सभी कोनों से जनभावनाएँ आने लगीं कि गाँधी जी का जिला चंपारन अपना इतिहास न खो दे। प्रखर जनआंदोलन के बाद चंपारन के दोनों हिस्सों को पूर्वी चंपारन और पश्चिमी चंपारन नाम मिले ताकि दोनों की पहचान बनी रहे की ये वही जिले हैं जहाँ १९१७ में गाँधी जी ने निलहों के अत्यचार के विरुद्ध मुर्दा हो रहे किसानों में अदम्य साहस भर कर सर्वशक्तिमान कहे जानेवाले अंग्रजी शासन को झुका दिया था। गाँधी जी का यह प्रभाव आज भी बरक़रार है, भले ही सुषुप्त होने के कारण हमें उसकी अनुभूति न होती हो।

सार्वजनिक जीवन में शुचिता और आर्थिक अनुशासन

                      गाँधी जी जैसे युगपुरुष जहाँ ठहरते हैं, वह स्थान तीर्थ हो जाता है। ऐसा ही अनुपम तीर्थ है साबरमती आश्रम। कवि प्रदीप के अनुसार 'दे दी हमें आजादी बिना खड्ग, बिना धार / साबरमती के संत तू ने कर दिया कमाल (चलचित्र, जाग्रति, १९५६, गायिका आशा भोंसले, संगीत निदेशक हेमंत कुमार)'। गांधी जी के अनुसार 'सफर करते करते श्रद्धा का संबल ख़त्म हो जाने पर वे नयी प्रेरणा ग्रहण करने के लिए आश्रमवास करते थे। २५ मई १९१४ को साबरमती नदी के किनारे, अहमदाबाद नगर के बाहर कोचरब नामक स्थान में तब के ख्यात बैरिस्टर जीवनलाल के मकान में यह आश्रम बनाया गया था। अब तो अहमदाबाद फ़ैल-पसरकर महानगर जो गया है और यह आश्रम अहमदाबाद के उदार में समा गया है। नगरीय चकाचौंध, समृद्धि तथा यांत्रिक जीवन को दिशा देने के लिए आश्रम को केवल ठहरने का स्थान न बनाकर, प्रेरणा स्रोत बनाने के लिए गाँधी जी ने आश्रमवासियों के लिए सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्वाद, अस्तेय, अपरिग्रह, श्रम, स्वदेशी, अभय, अस्पृश्यता निवारण तथा सहिष्णुता को अनिवार्य कर दिया। गाँधी जी ने कहा- 'आश्रम का आदर्श गरीबी धारण करना है, भूखे मरतों की सेवा करना है।' आश्रम स्थापन के कुछ ही दिन बाद, ठक्कर बापा का एक पत्र गाँधी जी को मिला जिसमें एक गरीब ईमानदार अन्त्यज कुटुंब को आश्रय देने की बात थी।आश्रम के नियम पालन की शर्त पर दूधाभाई उनकी पत्नी दाती बहिन तथा पुत्री लक्ष्मी आश्रम आ गए तो तूफान खड़ा हो गया। बा सहित सभी आश्रमवासियों ने आपत्ति की किन्तु गाँधी जी ने धैर्यपूर्वज सबकी आपत्तियों का निराकरण कर छुआछूत के भाव को दूर किया। वैदिक काल से प्रचलित आश्रम व्यवस्था को गाँधी जी ने सामुदायिक समाज संरचना के केंद्र के रूप में जनजागृति का केंद्र बनाकर लोकोपयोगी नव भूमिका वहन करने में समर्थ बनाया। जब तक आश्रम मूल रूप में था वे यहाँ रहे और जब यह शहर के बीच आ गया, विद्युत् आदि सुविधाएँ आ गईं तो गाँधी जी सेवाग्राम चले गए। सुविधाओं और विलासिताओं को साध्य मानते आज के जनप्रतिनिधि क्या गाँधी जी के इस कदम से कुछ सीखेंगे?

                      निरंतर आंदोलनों के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने के लिए गाँधी जी को जन सामान्य से चंदा लेना पड़ता था। उन्होंने लोक से प्राप्त राशि को सम्हालने की जिम्मेदारी जमनालाल जी बजाज को सौंपी थी। एक बार जमनालाल जी को एक पैसे हिसाब न मिला। गाँधी जी ने इसके लिए जमनालाल जी को ही जिम्मेदार माना और उन्हें एक पैसा अपने पास से जमा करना पड़ा। उस समय कांग्रेस की सदस्यता चार आने थी जिसे लोक 'चवन्नी' कहता था और यह चाँदी की बनी होती थी। गाँव-गाँव, गली-गली नारा गूँजता 'एक चवन्नी चाँदी की/ जय बोलो महात्मा गाँधी की। धनपतियों से अकूत चंदा बटोरकर चुनाव जीतने और बाद में धनपतियों के हित को ध्यान में रखकर काम करनेवाली सरकारें गाँधी जी की जय न बोलकर, उनके आर्थिक अनुशासन को अपना सकें तो देश का कायाकल्प होते देर न लगे।

आत्मालोचन और आत्मालोचन

                      आत्मालोचन और आत्मालोचन ही आत्मोन्नयन की प्रक्रिया है। सामान्यत: हम औरों का मूल्याङ्कन कर उनकी गलतियाँ निकालते रहते हैं। सामनेवाले पर एक अंगुली उठाते समय हम भूल जाते हैं कि अन्य तीनों उँगलियाँ हमारी और इंगित कर बताती हैं कि हममें तीन गुनी अधिक कमियाँ हैं। गाँधी जी निरंतर आत्मावलोकन व आत्मालोचन के नियमित अभ्यासी थे। इसीलिए वे आत्मोन्नयन के पथ पर अबाध गति से बढ़ते रह सके। अपनी आत्म कथा 'सत्य के प्रयोग' में वे 'सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात, मा ब्रूयात सत्यं अप्रियं' के नीति वाक्य के सर्वथा विपरीत अप्रिय सत्य का भी कई बार उद्घाटन करते हैं पर यह अप्रिय सत्य उनके स्वयं के बारे में है, वे अन्यों की कमियों की चर्चा नहीं करते। वे लिखते हैं-

                      'मैंने खूब आत्म निरिक्षण किया है, एक-एक भाव की जांच की है, उसका पृथक्करण किया है किन्तु उसमें से निकले हुए परिणाम सबक लिए अंतिम ही हैं, वे सच्चे हैं अथवा वे ही सच्चे हैं, ऐसा दवा मैं कभी नहीं करना चाहता।' - पृष्ठ ४

                      'मेरे पिता कुटुंबप्रेमी, सत्यप्रिय, शूर और उदार किन्तु क्रोधी थे। वे थोड़े विषयासक्त भी रहे होंगे। उनका आखिरी ब्याह चालीस साल के बाद हुआ था।' -पृष्ठ ७

                      'मैं बहुत ही शर्मीला लड़का था। शाला में अपने काम से ही काम रखता था। घंटी बजने के समय पहुँचता था और शाला के बंद होते ही घर भाग जाता था। 'भागना' शब्द मैं जान-बूझकर लिख रहा हूँ क्योंकि किसी से बात करना मुझे अच्छा नहीं लगता था। साथ ही यह डर लगा रहता था कि कोई मेरा मजाक न उड़ाए।' पृष्ठ १०

                      'मैं अपनी स्त्री के प्रति विषयासक्त था। शाला में भी मुझे उसके विचार आते रहते थे। कब रात पड़े और कब हम मिलें, यह विचार बना ही रहता था' - पृष्ठ १५

                      'मैं बहुत डरपोक था। चोर, भूत. साँप आदि के डर से घिरा रहता था। ये डर मुझे खूब हैरान भी करते थे। रात कहीं अकेले जाने की हिम्मत नहीं होती थी। अँधेरे में तो मैं महीन जाता ही न था। दीये के बिना सोना लगभग असंभव था। - पृष्ठ २०

                      अपने एक मित्र के बहकावे में आकर मांसाहार करने, वैश्या के पास जाने जैसे प्रसंग गाँधी जी बेहिचक लिखते हैं। हममें से शायद ही कोई अपनी कमजोरियाँ और गलतियाँ सार्वजनिक रूप से स्वीकारेगा किन्तु गाँधी जी को इसमें कोई संकोच नहीं होता। उनके अनुसार 'एक चीज ने मन में गहरी जड़ जमा ली - यह संसार नीति पर टिका हुआ है। नीतिमात्र का समावेश सत्य में है। सत्य को तो खोजना ही होगा।' -पृष्ठ २९

                      'सत्य के प्रयोग' में गाँधी जी अपने जीवन की चर्चा पूरी ईमानदारी, तटस्थता और निष्पक्षता से करते हैं। ५, ६

गाँधी जी की दृष्टि में सच्चा स्वराज्य

                      भारत की आधी-अधूरी स्वतंत्रता से गाँधी जी सहमत नहीं थे किंतु उनके शिष्यों का धैर्य चुक गया था। गाँधी जी के अनुसार - 'जब राजसत्ता जनता के हाथ में आ जाती है, तब प्रजा की आजादी में होनेवाले हस्तक्षेप की मात्रा कम से कम हो जाती है.... स्वराज्य का अर्थ है सरकारी नियंत्रण से मुक्त होने के लिए लगातार प्रयत्न करना, फिर वह नियंत्रण विदेश सरकार का हो या स्वदेशी सरकार का। यदि स्वराज्य हो जाने पर की हर छोटी बात के नियमन के लिए सर्कार का मुंह तकना शुरू कर दें तो वह स्वराज्य-सरकार किसी काम की न होगी।' ७

                      इस प्रसंग में स्वतंत्रता के बाद से सभी सरकारों ने निरंतर जनगण को अधिकाधिक सरकारी कानूनों और प्रतिबंधों के पाश में कसा है। नमक और नील करों के विरुद्ध आंदोलन करनेवाले गाँधी जी का पेट्रोल की बढ़ती कीमतों, वनोपजों पर आदिवासियों अधिकार समाप्त करने, किसानों की समस्याओं और सरकारी अनुदानों के प्रति क्या रवैया होता, विचारणीय है। स्वतंत्रता के तुरंत बाद गाँधी-वध ने सरकारों को उस नैतिक नियंत्रण से छूट दिला दी जो हर सरकार पर होना आवश्यक होता है। फलत: भारत में 'लोक' पर 'तंत्र' अधिकाधिक हावी होता गया। अपने निहित स्वार्थों और सत्ताभिलाषा में जन प्रतिनिधि नौकरशाही के हाथों में बंदी होते गए। आज भारत के नौकरशाहों विश्व सर्वाधिक कार्यकारी शक्तियाँ केंद्रित हैं। अपनी नौकरी करते समय मोती तनखाह और अनगिनत भत्ते और सुविधाएँ पाने के बाद भी वे राष्ट्रीय पद्म सम्मान पा लेते हैं, मंत्री बन जाते हैं। जान प्रतिनिधि चुनावों के समय जनता से किये गए वायदे भूलकर मनमानी नीतियाँ बनाते हैं। क्या गाँधी जी ऐसा होने देते?

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और गाँधी जी

                      गाँधी जी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और अखिल भारतीय हिन्दू महासभा की विचार धरा से पूरी तरह असहमत होते हुए भी उनके प्रति सहिष्णु थे। संघ के विरुद्ध शिकयतें मिलने पर उनहोंने पहल कर संघ के कैंप का न केवल भ्रमण किया अपितु संघ की प्रशंसा भी की। वे जमनालाल बजाज के साथ वर्धा में संघ का भ्रमण तथा डॉ. हेडगेवार से भेंट के संबंध में लिखते हैं- 'उस कैंप को देखकर मैं बहुत खुश हुआ था। वहाँ कड़ा अनुशासन था, सादगी थी, और सवर्ण व अवर्ण सब समान थे। संघ को चलानेवाले श्री हेडगेवार जी बहुत बड़े सेवक थे और सेवा के लिए ही जीते थे।'

                      विधि की विडंबना है कि गाँधी जी को संग के प्रति सद्भावना का उत्तर दुर्भावना से मिला। संघ ने आरंभ से आज तक गाँधी जी, उनकी विचारधारा तथा उनके अनुयायियों को देशद्रोही और चरित्रहीन चलाने का अभियान चलाए रखा। गाँधी जी के प्राण भी संघ के ही एक कार्यकर्ता ने लिए। संघ इस अमानुषिक कृत्य को भी न्यायोचित ही ठहराता रहा। गाँधी जी का विचार उनके अनुयायियों में इस तरह घर कर गया था कि इस घटना के बाद भी प्रधानमंत्री नेहरू, गृह मंत्री पटेल आदि न केवल संघ के आयोजनों में सम्मिलित हुए अपितु संघ पर लगे प्रतिबंध भी शिथिल किए। यदि वे संकीर्ण और कट्टर होते तो ऐसा न होता। सहिष्णुता और सद्भाव की मिसाल यह भी कि कई बार आम चुनावों में नेहरू जी ने कांग्रेस के सशक्त उम्मीदवार हटाकर कमजोर उम्मीदवार इसलिए खड़े किए कि विपक्ष के अच्छे नेता सदन में पहुँच सकें। प्रधान मंत्री होते हुए भी उन्होंने विपक्ष के एक नए संसद को अच्छे भाषण (जो उन्हीं की सरकार के विरोध में था) के लिए न केवल शाबाशी दी यह भी कह दिया कि तुम एक दिन प्रधान मंत्री बन सकते हो। कालांतर में वह सांसद (अटलबिहारी बाजपेई जी) प्रधान मंत्री बना भी। क्या आज प्रधान मंत्री या अन्य नेताओं से वैचारिक विपक्षियों के प्रति ऐसी सद्भावना की अपेक्षा की जा सकती है?

गाँधीवादी अर्थ व्यवस्था

                      गाँधी जी ने देश के लिए सर्वोदयी (सबका उदय तथा विकास) अर्थव्यवस्था प्रतिपादित की। वे पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में समृद्धों द्वारा श्रमिकों की लूट, यांत्रिकता के कारण कुटीर तथा लघु उद्योंगों के सम्मुख संकट, उत्पादन तथा बाजार के मध्य अस्थिरता, वेतनजीवियों का शोषण, केंद्रीयकरण, वर्ग द्वेष, परावलंबता तथा मनुष्य पर धन की वरीयता के दोष देखते हैं। गाँधी जी साम्यवादी अर्थ व्यवस्था में उत्पादन बहुलता, यंत्रों की गुलामी, मानव मूल्यों की उपेक्षा, अपव्यय, श्रम की अवमानना के कारण उसे त्याज्य बताते हैं। वे इन दोनों अर्थ व्यवस्थाओं के दोषों को छोड़कर उनके गुणों को आत्मसात करती सर्वोदयी अर्थ व्यवस्था के पक्षधर हैं जिसके गुण सत्ता और धन का विकेन्द्रीकरण, सामाजिक विषमता का अंत, अहिंसक समाज, संघर्ष नहीं सहयोग, समरसता, सहिष्णुता आदि है।८

                      गाँधी जी के विचारों के विपरीत विकास के नाम पर पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को दिन-ब-दिन अधिकाधिक अपनाये जाने का दुष्परिणाम कि भारत में कुछ परिवारों की संपत्ति और आय में वृद्धि विश्व में अधिकतम है जबकि करोड़ों श्रमजीवी भुखमरी की कगार पर हैं। सरकार को विवश होकर सरकारी संपत्तियाँ बेचनी पड़ रही हैं। तंत्र पर हो रहे आभारी व्यय के कारण लोक के प्राण संकट में हैं।

गाँधी जी और हिंदी

                      बिहार छात्र सम्मेलन में अध्यक्ष की आसंदी से गाँधी जी ने कहा - 'हमने मातृ भाषा है, इस पाप का कड़वा फल हमें जरूर भोगना पड़ेगा। .... मातृभाषा का अनादर माँ के अनादर के बराबर है। जो मातृभाषा का अनादर करता है वह 'स्वदेश भक्त' कहलाने लायक नहीं है। ... भाषा को बनाना और बढ़ाना हमारा अपना ही कर्तव्य है।' ९ स्मरणीय है कि १९१८ में हिंदी साहित्य सम्मेलन इंदौर में गाँधी जी की ही अध्यक्षता में हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा घोषित किया गया था। गाँधी जी देवनागरी लिपि को सर्वाधिक वैज्ञानिक मानते हुए राष्ट्रीय लिपि बनाने और देश की सब भाषाओँ को देवनागरी लिपि में ही लिखे जाने की वकालत करते थे किन्तु बाद उनकी भाषा नीति सरकारी अफसरों के मन नहीं भाई। परिणाम यह कि भाषा विवाद बढ़ता गया और राजनैतिक दल अपने संकुचित स्वार्थ के,लिए आग में घी डालते रहे।

हरिजन सेवा ही धर्म सुधार

                      छुआछूत की सामाजिक महामारी से आपद मस्तक ग्रस्त हो चुके भारत में गाँधी जी ने रामबाण औषधि हरिजन सेवा के रूप में खोजी और उसे अपरिहार्य बताया। वे कहते हैं- ' यदि सारे संसार भारत देश क सबसे बड़ा समाज सुधार आंदोलन है। इससे ६ करोड़ गुलामी में जीवनयापन करनेवाले प्राणियों के हित का संबंध है। हरिजनों व् हिन्दुओं का हित हिंसात्मक उपायों से नहीं हो सकता।'१०

                      'मजहब चाहे अनेक हों पर धर्म एक ही है' कहते हुए गांधी जी, पंथों और संप्रदायों की विविधता को सेवा धर्म अपनाकर एक करने के प्रति आग्रही थे।

खादी और स्वावलंबन

                      पूँजीवादी और साम्यवादी अर्थव्यवस्थाओं के दोषों को दूर कर, दीन देहाती को स्वावलंबी बनाने के लिए गाँधी जी ने चरखा, करघा और खादी के तीन उपाय न केवल उन्हें जनांदोलन का रूप भी दिया और असंख्य जनों को इनसे जीविकाधार मिला। देश का दुर्भाग्य है कि कालान्तर में सरकारों ने इन कार्यक्रमों को महत्व न यहीं दिया। फलत:, आज ग्रामीण बेरोजगारी सुरसा की तरह मुँह बाए है। खादी के माध्यम से जीविकोपार्जन के विचार पर गाँधी जी से ही कई सवाल किये जाते रहे। गाँधी जी ने समाधान करते हुए कहा- 'सेल्फ सफिसिएंसी का अर्थ नहीं है। सेल्फ सफिसिएंट याने सेल्फ कन्टेन्ड नहीं। किसी भी हालत में हम सभी चीजें पैदा कर भी इन्हें सकते करना है। हमको पूर्ण पूर्ण स्वावलंबन के नजदीक पहुँचना है। जो चीजें हम पैदा नहीं कर सकते उन्हें पाने के लिए उनके बदले में देने के लिए हमें अपनी आवश्यकता पैदा करना ही होगा। लेकिन जो कुछ अधिक पैदा करेंगे, वह बंबई नहीं भेजेंगे, और न वैसे दूर के शहरों पर नजर रखकर उन्हीं के काम पैदा करने की इच्छा रखेंगे' ११

                      गाँधी जी गाँवों को अपनी आवश्यकता से अधिक उत्पादन करने में समर्थ बनाकर पहले आवश्यकताओं को पूर्ण कर उसके बाद निर्यात के पक्षधर थे। ऐसा होने पर ग्रामीण जन आज की तरह सरकारी अनुदानों की भीख की बाट न जोहते। सरकारों ने पूंजीपतियों के स्वार्थसाधन को वरीयता देकर ग्रामीणों पारंपरिक व्यवसायों दिया। आज गाँधी जी होते तो ग्रामों और ग्रामवासियों की स्थिति यह न होती।

सत्य, अहिंसा और शिक्षा 

                      गाँधी विचार का आधार सत्य और अहिंसा ही है। गाँधी जी 'सत्य को परमेश्वर' मानते थे। उनके अनुसार 'जिन सत्य और सनातन नियमों द्वारा विश्व का जड़-चेतन विधान चलता है, उनके अविश्रान्त खोज करते रहना तथा उनके अनुसार अपना जीवन बनाते रहना और असत्य आदि साधनों द्वारा प्रतिकार करना सत्याग्रह है'। गाँधी जी की 'अहिंसा आचरण का स्थूल नियम मात्र नहीं, बल्कि मन की वृत्ति है, जिस वृत्ति में कहीं द्वेष की गंध तक न हो वह अहिंसा है।' 'ये सत्य और अहिंसा सिक्के के दो पीठों की भाँति एक ही सनातन वस्तु के दो पहलुओं के समान हैं।' 'प्रेम का शुद्ध व्यापक रूप अहिंसा है।'  

                      'हिंदुस्तान की राष्ट्रीय शिक्षा की व्यवस्था हिंदुस्तान के ८० से ८५ फी सदी लोगों को किस प्रकार का जीवन बिताना पड़ता, इस विचार को सामने रखकर होनी चाहिए। ...शिक्षा से निर्वाह का प्रश्न हल होना चाहिए। अत; उद्योग-धंधों को शिक्षा-शिक्षण का प्रधान अंग होना चाहिए। ....जनता के निर्वाह का मसला हल किए बिना संस्कार या ईश्वर का ज्ञान देनेवाली शिक्षा की बात करना बेकार है।' पहले पेट पूजा फिर काम दूजा, भूखे भजन न होय गुपाला जैसी लोकोक्तियों के मर्म को गाँधी जी समझते थे। वे आजीविकापरक शिक्षा बच्चों, स्त्री-पुरुषों सबके लिए आवश्यक मानते थे। इस ओर ध्यान न देकर केवल किताबी शिक्षा के कारण करोड़ों शिक्षित बेरोजगारों की फ़ौज देश पर भर तो है ही, कुंठित मानसिकता और सुप्त पुरुषार्थ के कारण वह अपराधों की जननी भी है। 

                      सारत:, यह सहज ही देखा जा सकता है कि गाँधी जी की दृष्टि जीवन, समाज और देश के हर क्षेत्र पर है। वे समग्रता और अखंडता के पक्षधर हैं। वर्तमान खंडित जीवन दृष्टि वाले नेता, अफसर और न्यायाधिपति गाँधी दर्शन को आत्मसात किए बिना देश का कल्याण नहीं कर सकते। वर्तमान वैश्विक परिस्थितियों के परिदृश्य में आयात घटाने, निर्यात बढ़ाने और उन्नत जीवन स्तर के लिए गाँधी जी के विचारों और कार्यक्रमों का शासन, प्रशासन, लोक और व्यक्ति द्वारा अध्ययन, विश्लेषण, पुनर्मूल्यांकन कर देश-काल-परिस्थति अनुसार  आत्मसात करने और जमीनी स्तर पर क्रियान्वित किये जाने की आवश्यकता जीवन के हर क्षेत्र में है। जितनी जल्दी यह आरंभ किया जा सकेगा, उतनी शीघ्र समस्याओं के समाधान मिलने आरंभ हो जाएँगे। 
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संदर्भ
१. आत्मकथा, डॉ. राजेंद्र प्रसाद १९४७, २. सत्य के मेरे प्रयोग, म. गाँधी १९२५, ३. पावनचरित डॉ. राजेंद्र प्रसाद, अमरेंद्र नारायण २०२१, ४. समय, संदर्भ और गाँधी, शंकर दयाल सिंह, ५. सत्य के प्रयोग, म. गाँधी, १९५७, ६. गाँधी जी का जीवन उन्हीं के शब्दों में, कृष्ण कृपालानी, ७ . मेरे सपनों का भारत, मो. क. गाँधी, सं. सिद्धराज ढड्ढा १९६९, ८. सर्वोदय अर्थ व्यवस्था, जवाहिर लाल जैन, १९५६, ९. बापू कथा, हरिभाऊ उपाध्याय, १९९३, १०. महात्मा जी का महाव्रत, व्योहार राजेंद्र सिंह, १९३५, ११. खादी क्या, क्यों और कैसे, गाँधी जी, संपादक भारतन कुमारप्पा, १९५७। 
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प्रथम रचना में बापू के चरणों में प्रणति-पुष्प अर्पित कर कवि कामना करता है 'देना नित मुझे मार्गदर्शन / कर सकूँ सत्य का अवलोकन'। सत्य - अवलोकन की प्रक्रिया में छद्म गाँधीवादियों की विचार यात्रा को 'दे दी हमें आजादी बिना खड्ग, बिना ढाल / साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल' से आरम्भ होकर 'मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी' तक पहुँचते देख सत्यान्वेषी कवि बरबस ही पूछ बैठता है-
क्या हम हर क्षण, हर पल
सिर्फ गाँधी की दुहाई देंगे?
मृत्यु के पश्चात् भी
क्या हर अच्छे और बुरे कार्य के लिए
उन्हें जिम्मेवार ठहराते रहेंगे?
वर्षों से ध्यान मग्न
उनकी तन्द्रा को भंग करेंगे?
क्या बापू ही
आज तक हर बुराई के लिए
जिम्मेवार हैं?
तो भाई! क्यों नहीं आज तक
आप सभी ने मिलकर
मिटा दिया उन बुराइयों को?




कवि ही नहीं, मैं और आप भी जानते हैं कि येन-केन-प्रकारेण सिर्फ और सिर्फ सत्ता को साध्य माननेवाले और गाँधी जी के प्रति लोक-आस्था को भुनानेवाले राजनैतिक लोग अपने मन-दर्पण में कभी नहीं झाँकेंगे। इसलिए वह अपने आप से गाँधी के नाम नहीं विचार के अनुकरण की परंपरा का श्री गणेश करना चाहता है-
मैं बापू के चरित्र से
प्रभावित तो हूँ
और उनके ही समान
बनना चाहता हूँ,
बापू के रंग में रंगकर
एक आदर्श
प्रस्तुत करना चाहता हूँ।




इस राह में सबसे बड़ी बाधा है बापू का न होना। कवि का यह सोचना स्वाभाविक है कि आज बापू होते तो उनके चरणों में बैठकर उन जैसा बनने की यात्रा सहजता से हो पाती-
हे बापू!
आपके न रहने से
प्रभावित हुआ हूँ मैं।
मेरे अंतर्मन की आशा
जिसमें कुछ कर दिखाने की
थी अभिलाषा
जाने कहाँ विलुप्त हो गयी?




इन पंक्तियों को पढ़कर बरबस याद हो आती है वह कविता जिसे हमने अपने बचपन में पाठ्य पुस्तक में पढ़कर गाँधी को जाना और एक अनकहा नाता जोड़ा था-
माँ! खादी की चादर दे-दे, मैं गाँधी बन जाऊँगा
सब मित्रों के बीच बैठकर रघुपति राघव गाऊँगा...
... एक मुझे तू तकली ला दे, चरखा खूब चलाऊँगा




तब हम सप्ताह में एक दिन तकली भी चलाते थे, और चरखा चलाना भी सीख लिया था। आज तो बच्चों को विद्यालय जाने और पढ़ना-लिखना सीखने के पहले अभिभावक के पहले चलभाष देने में गर्व अनुभव कर रहे हैं।
यह सनातन सत्य है कि कोई हमेशा सदेह नहीं रहता। गाँधी जी की हत्या न होती तो भी उनका जीवन कभी न कभी तो समाप्त होना ही था। इसलिए अपने मन को समझाकर कवि गाँधी - मार्ग पर चलने का संकल्प करता है-
देख मत दूसरे के दोषों को
तू अपने दोषों का सुधार कर
अहंवाद समाप्त कर
जग में समन्वय पर्याप्त कर
अपनी हर भूल से शिक्षा ले
निज पापों का परिहार कर




गाँधी-दर्शन 'स्व' नहीं' 'सर्व' के हित साधन का पथ है। कवि गाँधी जी के आदर्श को अपनाने की राह पर अकेला नहीं सबको साथ लेकर बढ़ने का इच्छुक है-
हे बंधु! सुनो
छोड़ो भी ये नारेबाजी
अब मिल तो गयी है आज़ादी
कुछ स्वयं करो
कुछ स्वयं भरो




निज दोषों और कमियों का ठीकरा गाँधी जी पर फोड़कर खुद कुछ न करनेवाले अन्धालोचकों को कटघरे में खड़ा करते हुए कवि निर्भीकता किंतु विनम्रता से पूछता है-
बकौल तुम्हारे
उनको किसी अच्छाई का श्रेय
नहीं दिया जा सकता
तो अकेले हर बुराई के लिए
वो जिम्मेवार कैसे
फिर गाँधी जैसे व्यक्तित्व को
तुम जैसे तुच्छ सोच
और निरर्थक कृत्य वाले के
प्रमाण पत्र की
किंचित आवश्यकता नहीं
वह स्वयं में प्रामाणिक हैं.




अपने आदर्श को विविध दृष्टिकोणों से देखने की चाह और विविधताओं में समझने की चाह अनुकरणकर्ता को अपने आदर्श के व्यक्तित्व-कृतित्व के निरीक्षण-परीक्षण तथा उसके संबंध में अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिए प्रेरित ही नहीं विवश भी करती है। कुछ रचनाओं में भावुकता की अतिशयता होने पर भी कवि ने गाँधी जी के जीवन काल में और गाँधी जी की शहादत के बाद हुए सामाजिक, राजनैतिक और मानसिक परिवर्तनों का तुलनात्मक अध्ययन कर सटीक निष्कर्ष निकाले हैं।
यूँ लगा कि
गाँधी और उनके बाद
'भारत का भाग्य' चला गया।
अब वह मर्मस्पर्शी अपनत्व कहाँ?
अब वह सतयुग सा आभास कहाँ?
'गाँधी और उनके बाद'
वस्तुत:
सत्य यही है कि
युग बदला
समय का मूल्य सब भूल गए
नैतिकता का पतन हुआ
दुखद परिस्थितियों को
आत्मसात करना पडा
सत्य कहा मन ने कि
एक युग का अंत हुआ है
'गाँधी और उनके बाद'




प्रथमार्ध में छंद मुक्त रचनाओं के साथ द्वितीयार्ध में रचनाकार ने हिंदी ग़ज़ल (जिसे आजकल गीतिका, मुक्तिका, अनुगीत, तेवरी आदि विविध नामों से विभूषित किया जा रहा है) के शिल्प विधान में चाँद रचनान्जलियाँ समर्पित की हैं। गुरु वंदना के पश्चात प्रस्तुत इन रचनाओं का स्वर गाँधी चिन्तनपरक ही है-
क्यों लिखते हो खार सुनों तुम
लिख दो थोड़ा प्यार लिखो तुम




प्यार की वकालत करते गाँधी जी और गाँधीवाद का प्रभाव 'मुहब्बत का असर है, आज कविता खूब लिखता हूँ', 'ज़िन्दगी सत्य की डगर पर है', 'प्रेम का ही आवरण दिग छा गया है', 'भारती हो भारती की जय करो', 'राम सदा ही / हैं दुःख भंजन' आदि पंक्तियाँ येन-केन संग्रह के केंद्र बिंदु को साथ रख पाती हैं।




चतुष्पदिक मुक्तकों में 'हम दिखाते रह गए बस सादगी', 'सतयुग सरीखी रीत निभाया न कीजिए', 'आश औरि विश्वास लै, बाँधि नेह कय डोर', 'भू मंडल के जीव-जंतु सब, पुत्र भांति हैं धरती के', 'ममता, समता दिव्यता नारी के प्रतिरूप', 'ऊबड़-खाबड़ बना बिछौना' जैसी पंक्तियाँ विविध विषयांतर के बाद भी मूल को नहीं छोड़तीं। गाँधी दर्शन के दो बिंदु 'हिंदी-प्रेम' और निष्काम कर्म योग' पर केन्द्रित दो मुक्तक देखें-
हिंदी में रचना करें, हिंदी में व्याख्यान
हिन्दीमय हो हिन्द तब, हो हिंदी उत्थान
राजनीति का अंत ही उन्नति का आधार
भारत तब विकसित बने, हो भाषा का मान
*
कर्म करो मनु प्रभु बसें, हो हर अड़चन दूर
कृपा-दृष्टि की छाँव भी, मिले सदा भरपूर
मालिक नहिं कोई हुआ, धन-वैभव की खान
'शुक्ल' रहे इस जगत में, हर कोई मजदूर




उक्त दोनों दोहा-मुक्तकों में क्रमश: 'स्वभाषा' और न्यासी (ट्रस्टीशिप) सिद्धांत को कवि ने कुशलता से संकेतित किया है। यह कवि सामर्थ्य का परिचायक है। कवि ने मानक आधुनिक हिंदी के साथ लोक भाषा का प्रयोग कर गाँधी जी की भाषा नीति को व्यावहारिक रूप दिया है।




'प्रेम डोर से बाँध ह्रदय को', 'द्वेष, कपट, छल, बैर मिटे कुछ / मिलकर ऐसी नीत लिखो तुम', 'द्वेष भाव से विलग रहा हूँ', 'राम-भारत सम भ्रातृ-प्रेम हो', 'भले व्यक्ति को नेता चुन ले', 'लेप नेह का हिय पर मलता', 'मन को दुखी करो मत साथी, होगा जो प्रभु ने ठाना' आदि गीताशों में गाँधी-चिन्तन इस तरह पिरोया गया है कि कथ्य की विविधता के बावजूद गाँधी-सूत्र उस गीत का अभिन्न भाग हो गया है।




कृति के अंत में सवैये, घनाक्षरी, आल्हा, पद कुण्डलिया तथा चौपाई की प्रस्तुति छांदस कविता के प्रति रचनाकार की रूचि और कुशलता दोनों को बिम्बित करती है। कवि ने अपना गाँधीचिन्तक परक दृष्टि कोण इन लघु रचनाओं में भी पूर्ववत रखा है।




राम प्रभो मनवा अति मोहत - राम प्रेम, सवैया




'भारती के भाल पर, प्रकृति के गाल पर
सुर और टाल पर, हिंदी हिंदी छाई है ' - स्वभाषा प्रेम, घनाक्षरी




वंदे मातरम बोल सभी के मन में ऐसी अलख जगाय -राष्ट्र-प्रेम, आल्हा




माँ से बड़ा न कोई जग में.... - मातृ-प्रेम, पद




सारा दिन मेहनत करे ह्रदय चीर मजदूर -श्रमिक शोषण, कुण्डलिया




अंतर्मन सत-रूप बसाओ - सत्य-प्रेम, चौपाई




हित छोड़ो, मत देश -राष्ट्र-प्रेम, सोरठा




सत्य पर हम बलि जाएँ - सत्य-प्रेम, रोला




हिन्द देश, हिंदी जुबां, हिन्दू हैं सब लोग -सर्व धर्म समभाव, दोहा




काव्य को दृश्य काव्य, श्रव्य काव्य और चम्पू काव्य में वर्गीकृत किया गया है। दृश्य काव्य के अंतर्गत दृश्य अलंकार हैं। संस्कृत काव्य में इसे हेय या निम्न माना गया है। इस कारण न तो संस्कृत काव्य में न हिंदी काव्य में चित्र अलंकारों को अधिक प्रश्रय मिला। मैंने चित्र अलंकार का सर्वाधिक उपयुक्त और सटीक प्रयोग डॉ. किशोर काबरा रचित महाकाव्य उत्तर भागवत में श्री कृष्ण द्वारा महाकाल की पूजन प्रसंग में देखा है। प्रबंध काव्य कुरुक्षेत्र गाथा में में स्तूप अलंकार और ध्वजा अलंकार के रूप में मैंने भी चित्र अलंकार का प्रयोग किया है। ओमप्रकाश ने वर्ण पिरामिड तथा डमरू चित्रालंकार प्रस्तुत किये हैं। युवा रचनाकार में निरंतर नए प्रयोग करने की रचनात्मक प्रवृत्ति सराहनीय है।




कहने की आवश्यकता नहीं कि कोई भी छंद हो, कोई भी विषय हो कवि को हर जगह गाँधी ही दृष्टिगत होते हैं। गाँधी दर्शन के प्रति यह प्रबद्धता ही इस कृति को पठनीय, मननीय और संग्रहणीय बनाती है। मुझे विशवास है कि पाठक वर्ग में इस कृति का स्वागत होगा।
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नवगीत:
गाँधी को मारा
आरोप
गाँधी को भूले
आक्रोश
भूल सुधारी
गर वंदन कर
गाँधी को छीना
प्रतिरोध
गाँधी नहीं बपौती
मानो
गाँधी सद्विचार
सच जानो
बाँधो मत सीमा में
गाँधी
गाँधी परिवर्तन की
आँधी
स्वार्थ साधते रहे
अबोध
गाँधी की मत
नकल उतारो
गाँधी को मत
पूज बिसारो
गाँधी बैठे मन
मंदिर में
तन से गाँधी को
मनुहारो
कर्म करो सत
है अनुरोध




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