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गुरुवार, 28 अक्तूबर 2021

साहित्य समीक्षा_ दोहा-दोहा नर्मदा सुरेन्द्र सिंह पंवार

साहित्य समीक्षा_
दोहा-दोहा नर्मदा
सुरेन्द्र सिंह पंवार
सम्पादक- “साहित्य-संस्कार”
[कृति- दोहा-दोहा नर्मदा/ संपादक-आचार्य संजीव ‘सलिल’- प्रो.(डा) साधना वर्मा/ प्रकाशक- विश्व वाणी हिंदी संस्थान,समन्वय प्रकाशन अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,जबलपुर ४८२००१, पृष्ठ १६०, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, मूल्य- २५०/-]
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छोटे से आकार में, भरे गूढतम अर्थ।
दोहा दुर्लभ छंद है, साधें इसे समर्थ।।
तेरह-ग्यारह पर यति, गुरु-लघु सोहे अंत।
ओज,सोज,साखी सबद, दोहा गाये संत।।
कालजयी-छंद ‘दोहा’, अपभ्रंश काल से अब तक अपनी स्वाभाविक ठसक और बनक के साथ विद्यमान है. देखा जाए तो दोहा, “मत चूको....” से स्फूर्त लक्ष्यवेध और प्रेम-दिवाणी का “नगर ढिंढोरा” है। दोहा, ‘रामबोला’ को “तुलसीदास”बनाने तथा “झूठी पातर भकत है” सुनाकर सामंतों को झुकाने की सामर्थ्य रखता है। शक्ति, भक्ति, अनुरक्ति, प्रकृति...सभी कुछ, दोहे में समाया जा सकता है.
“अरथ अधिक अरु आखर थोरे” (संक्षिप्तता) और “घाव करें गंभीर” (मारकता) के कारण दोहा की लोकप्रियता सर्वकालिक है. एक बात और, दोहा पढ़ने-सुनने एवं सराहने वाले को ऐसा लगाना चाहिए कि कहने वाले ने उसके मन की बात कही है, बस!----दोहाकारकौन है? यह जानने की उत्सुकता उसे नहीं होती।
अध्यवसायी आचार्य संजीव ‘सलिल’ और उनकी जीवन संगिनी प्रो.(डॉ) साधना वर्मा ने देश भर के ४५ दोहाकारों के सौ-सौ दोहे संग्रहित कर ३ दोहा-संकलन सम्पादित किये हैं. विश्ववाणी हिंदी संस्थान की "शान्तिराज पुस्तक माला" योजनान्तर्गत समन्वय प्रकाशन अभियान, जबलपुर से प्रकाशन अनुक्रम में ‘दोहा शतक मञ्जूषा-१’ का शीर्षक है, “दोहा-दोहा नर्मदा”.१७०० से अधिक दोहों के इस साझा-संकलन में देश भर के १५ दोहाकारों की साझा अभिव्यक्तियाँ हैं, जिनमें ईश्वर, इंसान, जीवन-मृत्यु, अलस्सुबह की दिनचर्याएँ- चाँदनी रात में चाँद की तारों से छेड-छाड़, बचपन-यौवन-बुढापा, यथार्थ को देखने का जज्बा, भौतिक वस्तुओं की उपलब्धियों की मरीचिका, सर्वमांगल्य भाव-वसुधैव कुटुम्बकम की परिकल्पना, भाषायी विवाद-सामाजिक टकराव-आतंकवाद, राजनीति
का लक्ष्य, स्वार्थ और दिशाभ्रम, धर्म-आस्तिकता-पाखण्ड, उद्यमेन हि सिध्यन्ति का जयघोष, अर्थाभावजनित लाचारी, युवा रोजगार की संभावनाएँ, तकनीकी और अंतरजाल, नौकरी की विवशताएँ, प्रतिभा-पलायन, सेवानिवृत-जीवन, स्त्री-विमर्श, प्रकृति, नेह-नर्मदा, बदलते मौसम, पर्यावरण-प्रदूषण इत्यादि बहुवर्णी विषय हैं।
दोहाकारों ने महानगरों के आधुनिक जीवन की दुर्बलताओं और संकीर्णताओं को प्राथमिकता से उकेरा है-----
जब से मेरे गाँव में, पड़े शहर के पाँव।
भाई-चारा हारता, जीते नफरत दाँव।। -सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’/१२
तिनका-तिनका जोड़कर, किया भवन तैयार।
रहने की बारी हुई, मिला देहरी-द्वार।। -श्रीधर प्रसाद व्दिवेदी/३८
कोख किराया ले रही,ममता है लाचार।
चौपालें खामोश हैं, खून सने अख़बार।। -विनोद जैन ‘वाग्धर’/३१
चना चबैना बाजरा, मक्का रोटी साग।
सब गरीब से छिन गया,हुआ अमीरी राग।। -प्रेमबिहारी मिश्र/६
सच है, जब मानव-मूल्यों में गिरावट आती है, समाज की विषमतायें-
विद्रूपतायें गहराने लगतीं हैं, तो कवि-मन व्यथित हो जाता है, उसकी कलम भौथरीहो जाती है और ऐसी परिस्थितियों में उपजे दोहे, विष-बुझे तीरों जैसी व्यंजना देतेहैं—
चला मुखौटों का चलन, जब से सीना तान।
गिद्धों के तन भी सजे, हंसों के परिधान।। -विजय बागरी/१०
मंदिर के ठेके बिकें, पूजा है व्यापार।
कैसे-कैसे ठग यहाँ, बन-बैठे अवतार।। -प्रेमबिहारी मिश्र/८५
न्यायालय में भी हुई, हाय! न्याय की हार।
सत्य खड़ा कटघरे में, झूठ जयी जयकार।। -विनोद जैन ‘वाग्धर’/१००
ऐसा अक्सर होता है, कि जिस विशेष-क्षेत्र से रचनाकार का संबंध होता है, वह संकोचरहित होकर उसके ज्ञान का उपयोग करता है। अपनी वर्गीय चेतना को दोहाबध्द करते समय दोहाकार आंचलिकता को महत्व देता है। ऐसे दोहों में यथास्थिति दर्शन तो है किन्तु दिशा-निर्देशन का अभाव है-
दिवस बिताते काम में, लौटे शाम जरूर।
रोज कमाकर खा रहे, हमसे भले मजूर।। -मिथलेश राज बड़गैया /८३
अवसर-सीमा असीमित, उठ छू लो आकाश।
अंतहीन अवसर सुलभ, चमके युवा प्रकाश।। -त्रिभुवन कौल/५४
धूप निगोड़ी सो रही, मूंड उघारे आज।
पीपर झौरे बैठकर, बिसरी परदा-लाज।। -आभा सक्सेना ‘दूनवी’/८१
पावस नाचे झूमकर, पुरवा गाए गीत।
हरियाली धरती हुई, पा अंबर की प्रीत।। -रामेश्वर प्रसाद सारस्वत/२६
वैसे संकलन के दोहों का सौन्दर्य-बोध आंतरिक, अन्त:गर्भित, सामाजिक
और संस्कारी है। वर्जित प्रदेशों में प्रवेश कर ये दोहे अनुर्वर भूमिकाओं को चेतनाके अमृत-जल से सिंचित कर नए युग के अनुरूप बहुरंगी गुलाबों की खेती उगा रहे हैं परन्तु कहीं-कहीं गुलाब के साथ कैक्टस से भी लगाव दिखाई देता है. तथापि दोहाकार भाषा और छंद के प्रति संवेदित हैं, जीवन के प्रति सदाशयी हैं, कुल मिलाकर वे अपने कुल-धर्म का पालन कर रहे हैं-
कथनी-करनी में नहीं, करना कोई भेद।
हो मतभेद भले मगर, तनिक न हो मनभेद।। -छाया सक्सेना ‘प्रभु’/97)
तुरपाई दुःख की करें, रफू शोक कर संग।
मन में पालें हौसला, तन हो सके विहंग। -श्यामल सिन्हा/८
माया नट के पाँव में, घुँघरू बँधे हजार।
छम-छम ध्वनि सब सुन रहे, कैसे उतरे पार।। -चंद्रकांता अग्निहोत्री/३१
जीवन ऊर्जा-शिखर है, परम तपस्या राम।
जाना जिसने प्रेम को, जान लिया यह धाम।। -छगन लाल गर्ग ‘विज्ञ’/१
बिन गुरुत्व धरती नहीं, धुर बिन चले न चाक।
गुरुजल बिन बिजली नहीं, गुरु के बिना न धाक।।-डॉ. गोपालकृष्ण भट्ट ‘आकुल’/ ५१
वाकई, वर्मा-दम्पति बधाई के पात्र हैं। वे आचार्य रामचंद्र शुक्ल युग के
सृदश ऐसे नये कवि(दोहाकार) तैयार कर रहे हैं, जो जीवन की विषमताओं की ओर देखते हैं, जो आज के व्यस्त, व्यापृत युग में दोहा की प्रासंगिकता को सिध्द करते हुए अलंकारिकता, भाव-गाम्भीर्य, सरसता, संदेशात्मकता, अर्थ-गौरवता आदि की कसौटी पर स्तरीय-दोहों का सृजन कर रहे हैं। जो यह जानते हैं कि बिहारी जैसी समाहारी शक्ति सम्पन्न भाषा, कबीर की सहजता-सरलता और रहीम जैसी नीतिपरकता दोहों को जीवंत बनाती है। वे यह भी जानते हैं कि उन्हें दोहों की परिमाणात्मकता की अपेक्षा उसकी गुणात्मक प्रभावोत्पादकता पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए और इसी में दोहा, दोहाकार, दोहा-संकलन और संपादक-व्दय की सफलता सन्निहित है। “दोहा-दोहा नर्मदा” के इस सारस्वत-अनुष्ठान को अज्ञेय द्वारा सम्पादित ‘तार-सप्तक’ के कवियों की रचना-श्रंखला से जोड़कर देखा जा सकता है. संकलित दोहों में विशेष की शक्ति तो है। वे, आम–आदमी की जुबान पर चढ़ेंगे, लोक- व्यवहृत भी होंगेऔर जिनके चलते ‘दोहा शतक मञ्जूषा’ में सम्मिलित होने वालेदोहाकार, ‘तार-सप्तकों’ के कवियों-सी प्रतिष्ठा पा सकेंगे, ऐसा विश्वास है।
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