मुक्तक
मेघ आकर बरसते हैं, अरुण लगता लापता है।
फिक्र क्यों?, करना समय पर क्या कहाँ उसको पता है?
नित्य उगता है, ढले भी पर नहीं शिकवा करे-
नर्म दिल वह, हम कहें कठोर क्या उसकी खता है।।
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पुष्प सम पुष्पा हमेशा मुस्कुराए
मन मिलन के, वन सृजन के गीत गाए
बहारें आ राह में स्वागत करें नित-
लक्ष्य पग छू कर खुदी को धन्य पाए
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मित्रों से पाया, दिया मित्रों को उपहार।
'सलिल' नर्मदा जल बना, यह जीवन त्यौहार।।
पाकर संग ब्रजेश को, लगता हुआ नरेंद्र
नव प्रभात संतोष दे, अकलुष हो ब्यौहार।।
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