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शुक्रवार, 6 जुलाई 2018

दोहा शतक: जगन्नाथ प्रसाद बघेल

दोहा शतक: डॉ. जगन्नाथ प्रसाद बघेल


जन्म - १ जनवरी, १९५४ (सरकारी ). गाँव सीस्ता, जिला मथुरा (उ.प्र.). 
शिक्षा - एम.एससी., एम. ए., पीजीडी पत्रकारिता, पीएच.डी. 
जीविका व्यवसाय - पूर्व उप महाप्रबंधक (तकनीकी), महानगर  टेलीफोन निगम लि. मुंबई.
प्रकाशित साहित्य -  आठ पुस्तकें प्रकाशित, कई अन्य प्रकाशनाधीन ।
             काव्य - स्वप्न और समय, घुटने की पीर, युगशतपदी, ब्रज मंडल में, संस्कृति के आयाम
             इतिहास - अजपथ के कीर्तिपुरुष, ब्रज के लोकदेवता खुशहाली
             समाज शास्त्र - भारत के धनगर.  
अन्य -    संकलनों, अखबारों व पत्रिकाओं में यदा-कदा रचनाएं  प्रकाशित 
संपादन -   मुंबई के हिंदी कवि, मुंबई की हिंदी कवयित्रियाँ, युगीन काव्या. 
पुरस्कार - उ. प्र हिंदी संस्थान का इतिहास विधा के लिए ईश्वरी प्रसाद सर्जना पुरस्कार-२०१३ 
               तथा महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी का फणीश्वरनाथ रेणु पुरस्कार-२०१३ 
गतिविधियाँ - आजीवन सदस्य इंडियन हिस्ट्री काँग्रेस; जेएनयू, मालदा, त्रिवेन्द्रम एवं कोलकाता में आयोजित राष्ट्रीय सत्रों में शोध पत्र 
                अनेक साहित्यिक, सांस्कृतिक व सामाजिक संस्थाओं के साथ संलग्नता महिलाओं के नासिकाभूषण - नथ पर शोध कार्य। 
संपर्क: डी-२०४, प्लैजेंट पा्र्क, दहिसर पुल के पास, दहिसर (प),  मुंबई -४०००६८ 
            फोन - ९८६९०७८४८५, ९४१०६३९३२२ 
            ई मेल - drjpbaghel@gmail.com



हारा, बना गुलाम ही, भारत जितनी बार,
नहीं किसी भी देश ने झेलीं इतनी हार । 1
भारत की धरती बड़ी अद्भुत और विचित्र,
रणबाँकों का भी यहाँ बदला मूल चरित्र । 2
सारी दौलत देश की सिमट एक ही साथ,
जमा हो रही आजकल कुछ लोगों के हाथ। 3
मत पालो भ्रम ये कि जज देते ही हैं न्याय,
आखिर है इन्सान ही उनका भी समुदाय । 4
माना है जिस भूमि ने शारीरिक श्रम हेय,
भारत ही है वह जहाँ भिक्षाटन है श्रेय । 5
इतना भारी हो गया हमें भाग्य से मोह,
सहा भेद अन्याय सब नहीं किया विद्रोह । 6
अँधियारे का अर्थ है, उजियारे का लोप ,
अँधियारे पर ही लगे, दोष और आरोप । 7
अपने हित, अपनी खुशी, किसको नहीं पसन्द,
कौन, नहीं जो चाहता, जीवन में आनन्द । 8
कसिए सत के निकष पर, तब करिए स्वीकार,
सुजन मिलेंगे बहुत कम, दुर्जन कई हजार । 9

हमको जो सुख दे रहा, करिये उसका मान,
लेने से देना अधिक माना गया महान । 10
रसना बोली सीखना, वर्ष लगे बस तीन,
मुझको जीवन भर लगा, हुआ न वाक्-प्रवीन। 11
वे ही ईश्वर के निकट हरि के वही करीब
जिनके जीने से जियें अन्य अनेकों जीव । 12
घर की हालत सोचकर मत होईये अधीर,
हम से तो शिव की व्यथा है ज्यादा गंभीर । 13
बचिए उस वाचाल से, जो बोले रस घोल,
अप्रिय लगे लगता रहे, सुनिए साँचे बोल । 14
झुकना रुकना सीखिए रखिए गुप्त विचार,
समय देख सह लीजिए, असहनीय व्यवहार। 15
करिए मत वह जो लगे हमें न खुद अनुकूल,
बात चाहकर भी जिसे, नहीं सकें हम भूल । 16
बूझो उनसे विषय पर हो जिनका अधिकार
सुनो याद ऱख लो उन्हें जो हों नेक विचार । 17
त्यागी और पराक्रमी होवें जो विद्वान,
साधो उनसे जतनकर संगति का वरदान । 18
खल की टिकी न मित्रता धनलोभी का धर्म
यश न लालची का टिका दुर्जन का सत्कर्म । 19
जारी हो अतिचार यदि सहता नहीं समाज
राजा कैसा भी रहे, टिका न उसका राज । 20

जन्मा दिखलाने लगा पाँव हमें खुद पूत,
सपने में आने लगा हमें हमारा भूत । 21
कठिनाई के बाद ही साँप सके थे भाग
बदले में अब आ गए अधिक विषैले नाग। 22

करता क्यों मेहनत अरे नेता बनकर देख
तेरी किस्मत के सभी बदल जाएंगे लेख । 23
धोखे से करती नहीं वार कभी सरकार,
सीटी देकर चोर को कर देती हुशियार । 24
है जिसको कुछ ज्ञान की, दर्शन की अभिलाष,
भूखा तपसी हो जहाँ, जावे उसके पास । 25
सह ले जो अन्याय को रहे साधकर मौन,
हो सकता उससे भला, भला आदमी कौन । 26
बना रहे हैं योजना ताजमहल की आज,
कितने शाहजहाँ यहाँ, कितनी ही मुमताज। 27
चलता चूहों की यहाँ पकड़-छोड़ का खेल,
पिंजड़े वाले का हुआ, पकड़कार से मेल । 28
मैं कोशिश करता रहा, बनकर जिऊँ मनुष्य,
रोटी के जंजाल में बीत गया आयुष्य । 29
होता हो यदि मित्र का किसी तरह उत्कर्ष,
करे न प्रतिस्पर्धा तनिक, मन में हो न अमर्ष । 30
मानव बन पाना कभी नहीं रहा आसान,
चढ़ने पड़ते हैं यहाँ कई-कई सोपान । 31

आँखों वाले ढो रहे, अँधे हुए सवार,
तीर्थ मंत्रि-परिषद हुए, देश हुआ सरकार । 32
अंधे होते काईँयाँ, लेते लाभ टटोल,
उन्हें जवानी ढो रही, खुद की आँखें खोल । 33

हमने देखा ध्यान से दिन में नजर पसार,
लिए सड़क के पेट से, बँगलों ने आकार । 34
लेते ही पकड़े गए, रिश्वत रुपये पाँच,
पाँच लाख जिसने लिए, उसे न आई आँच । 35
चर्चा ये होने लगी, अखबारों में रोज,
नेताजी ने खा लिया दलितजनों का भोज । 36
मानेगा कोई नहीं भले बड़ा हो काम,
नाटक करने से सहज हो जाता है नाम । 37
तीनों भाई छोड़कर भागे जो दायित्व,
उनसे था शत्रुघ्न का ज्यादा श्लाघ्य कृतित्व । 38
गाली खाईं तीन तब, एक मिली आशीष,
तपसी चिमटा तानता, हम निपोरते खीस । 39
रोटी का भूला नहीं कुत्ते ने अहसान,
संकट के क्षण देखकर देने आया जान । 40
भाषा में से झलकते मानव के विश्वास,
शब्द शरण पाते रहे संस्कारों के पास । 41
अकुलाता है धन अगर हो जाता है श्रेय,
उछल बनाता रूप के दिखलावे को ध्येय । 42

शंका जन्मी ही नहीं उठा न कोई वाद,
शीघ्र हो गई पतिव्रता वह शादी के बाद । 43
हमको है निज धर्म से संस्कृति से अनुराग,
कूट-कूटकर के भरा जहाँ तपस्या-त्याग । 44

गलती कर मढ़ दीजिए किसी और पर दोष,
टोके कोई यदि कहीं, मत बैठो खामोश । 45
औरों का जो रच गए भाग्य और उत्थान,
खुद उनको देना पड़ा, प्राणों का बलिदान । 46
संकट में सूझा हमें सबसे सरल निदान,
भारत में नारा गढ़ो हल होगा आसान । 47
भारी है अचरज हमें, होता है संदेह,
यों ही तो होगा नहीं कोई जनक विदेह । 48
धन का बल का बुद्धि का होता जहाँ विकास,
आ ही जाता है वहाँ सहज आत्म-विश्वास । 49
अपना हित कैसे सधे, उत्तम यही उपाय,
बिना किसी का अहित कर अपना हित सध जाय । 50
करिए मत निर्णय कभी विज्ञापन ही देख,
बुद्धि लगाकर देखिए, मीन है, कि है मेख । 51
छापा सूरज पर पड़ा, अगले दिन चुपचाप,
नया ब्रांड बाजार में उतरा चंदा छाप । 52
तोता मैना एक-से, बोले उतना बोल,
जितना मालिक ने कहा, उतना ही मुँह खोल । 53

व्यापारी से कौन है बड़ा विश्व में वीर,
रख देता जो बदलकर धरती की तकदीर । 54
भारत के जैसे हुए लोग कहाँ बलवान,
निगल गए सूरज धरी धरती गैंद समान । 55

ज्ञानी हैं हम इसलिए, किए न आविष्कार,
हमें पता है एक दिन हरि लेंगे अवतार । 56
भीषण जल-संकट हुआ, रुष्ट हुआ भगवान,
जगह-जगह होने लगे, यज्ञों से आह्वान । 57
देहि देहि रटते हुए हम फैलाए हाथ,
युगों-युगों से माँगते कृपा करो हे नाथ । 58
बेड़ी डाले धर्म की श्रुति स्मृति नखत पुराण,
जन्म मृत्यु जीवन बँधा कैसे पावें त्राण । 59
हारा बिन संघर्ष ही भारत में विज्ञान,
देखी जो प्रतिकूलता छोड़ भगा मैदान । 60
मरते मंदिर तीर्थ में जहाँ हजारों भक्त,
पता नहीं क्यों हो गया है भगवान विरक्त । 61
पाया भारत में सदा वीरों ने सम्मान,
महावीर दो ही हुए वर्धमान हनुमान । 62
माना मोहक हैं वचन, हैं अभिराम वरांग,
वे गणिका, ये गणक हैं, दिखलाते पंचांग । 63
हमने ही पूजे जपे हमीं हुए आक्रांन्त,
युग बीते लेकिन हुए ग्रह न हमारे शान्त । 64

तारे देखे कर लिए नभ में अनुसंधान,
मेष वृषभ से मीन तक, ग्रहण-काल दिनमान । 65
नाड़ी की गति में छिपा जीवन का गतिमान,
इसी लिए जाता सदा नाड़ी पर ही ध्यान । 66

मन से तन ही श्रेष्ठ है, कहता विज्ञ समाज,
मन का रंजन कवि करे, तन-रंजन कविराज । 67
टोने जादू टोटके वशीकरण की मार,
पता नहीं क्यों आज तक देख सकी सरकार, 68
लात न मारो पेट पर लग जाता है पाप,
पुरुष भले ही चुप रहे पत्नी देती शाप । 69
अपना खुद उपकार कर किया पुण्य का काम,
कष्ट-मुक्ति की युक्ति को दिया धर्म का नाम । 70
योगी भोगी सन्त मुनि सबका एक मुकाम,
इस जीवन के बाद में मिले विष्णु का धाम । 71
गढ़ते हैं वे नर नए अपने मार्ग अनेक,
जिनकी बुद्धि कुशाग्र है, जिनका तीव्र विवेक । 72
नारी त्रिगुण स्वरूपिणी सत रज तम साकार,
हुआ प्रबल जो गुण, हुआ उसी तरह व्यवहार । 73
नजरें थीं सापेक्ष जब देखा आँख पसार,
अलग रूप हमको दिखा दुनिया का हर बार । 74
दिखती है दुनिया हमें अपनी रुचि अनुसार,
अपराधी को कठघरा दिखता है संसार । 75

रंग चुने हैं लोक ने कर वैचारिक जोख,
रंग जोगिया भक्ति का, ऋंगारिक है शोख । 76
लैला मजनूँ का हुआ प्रेम बहुत मशहूर,
तो भी उनसे रह गया पद पूजा का दूर । 77

ऋंगारी कवि ने किया प्रेयसियों का गान,
भोग्या में दिखला दिया देवी-सा पदमान । 78
राधा है बड़भागिनी भक्तों की आराध्य,
हुए भक्ति के नाम पर वर्णन बड़े असाध्य । 79
शब्दों में संस्कृति बसी, शब्द अर्थ के वाह,
क्या उत्कृष्ट, निकृष्ट क्या, मिल जाती है थाह । 80
वणिक हुआ कवि आज का बिक्री का अभ्यस्त,
अर्थ गुप्त रखने लगा होकर अर्थ परस्त । 81
संस्कृति की जड़ में बसा कीचड़ का संसार,
लगे पोसने में उसे धर्म और व्यापार । 82
इतने हैं वे वाकपटु इतने हैं गठजोड़,
लूट रहे हैं शान से लाखों लाख करोड़ । 83
कोई भी इस देश का हिन्दू सेवक-दास,
नहीं बना राजा कभी पढ़ देखा इतिहास । 84
ढीले बंधन जाति के थे जिस-जिस दौरान,
भारत पर असफल रहे, बाहर के अभियान। 85
मर्यादा का भान हो नीयत हो निष्पाप,
नहीं मानिये आप तब हिंसा में भी पाप। 86

गाँधी और रवीन्द्र
जन्मे दो दो युग-पुरुष, एक देश युग एक ।
युग ने दोनों का किया, मान सहित अभिषेक ।। 1 ।।
युग-वंदित युग-श्रेष्ठ द्वय, युग-दृष्टा द्वयमेव ।
पश्चिम के वे महात्मा, पूरब के गुरुदेव ।। 2।।
एक साथ दो दो उगे, भारत में आदित्य ।
देश-भक्ति जगमग हुई, ललित हुआ साहित्य ।।3।।
राष्ट्र-पिता इनका विरुद, उनका विरुद कवीन्द्र ।
मोहन मोहनदास गुण, रवि-गुण नाथ रवीन्द्र ।। 4।।
संत निहत्था पा गया सम्राटों पर जीत ।
कवि ने जीता जगत को भर अंजलि में गीत ।।5।।
गांधी ने दर्शन दिया किया अचूक प्रयोग ।
अभिजन को टैगोर का भाया भावालोक ।।6।।

धन आये ...
निर्धन दुखिया, धन बिना, धनिक दुखी, धन हेतु ।
इनकी धड़-गति राहु सी, उनकी सिर-गति केतु ॥1।
धन के बिन घरनी दुखी, दुखिया सधन ग्रहस्थ ।
वर भी वही वरेण्य जो, धनपति, राज-पदस्थ ॥2॥
धन आए लालच बढ़ा, पद पाए अभिमान ।
जिनका मन पर सन्तुलन, वे नर देव समान ॥3॥
धन पाए नीयत गई, पद पाए ईमान ।
धन पद बिना बधेल कब, कहा गया इन्सान ॥4॥
धन था नीयत नेक थी, धन की हुई न वृध्दि ।

पद भी था, ईमान भी, आई नहीं समृध्दि ॥5॥
धन साधन ऊँची पहुँच, या कि निकट सम्पर्क ।
गलत सही सच भी सही, झूठे तर्क वितर्क ॥6॥
श्रम, संयम के योग से, रचे गये इतिहास ।
भोग, असंयम ने किये, संस्कृतियों के नाश ॥7॥
साँठ गाँठ कर बच गया, था जिसका सब दोष।
अपराधी घोषित हुआ, बैठा जो खामोश ॥8॥
एक तरफ जनता खड़ी, एक तरफ थे सेठ ।
शासन सारा सेठ के, गया चरण में लेट ॥9॥
मन्दिर में की दण्डवत, ली गरीब की जान ।
मैं बघेल समझा नहीं, क्यों खुश था भगवान ॥10॥
मन्नत क्यों पूरी हुई, कर बकरे कुरबान ।
क्यों बघेल सुनता नहीं, करुण चीख रहमान ॥11॥
बोली तो बोली रही, झरती रही मिठास ।
बोली भाखी, बन गई, भाषा का इतिहास ॥12॥
अँगरेजी की जोर से, जब से चली दुकान ।
तब से ही सहमे डरे, हिन्दी के विद्वान ॥ 13॥
अँगरेजी के बन गए, ग्राहक सब अभिजात ।
हिन्दी के दर पर खड़े, बस गरीब-गुरबात ॥14॥
हर विदेश की चीज पर, देश रहा जब रीझ ।
क्यों उतारते लोग तब, अंगरेजी पर खीझ ॥15॥

श्रम करि थके न फल मिला, मन के मिटे न क्लेश ।
यदि बघेल फल चाहिये, आओ चलें विदेश ॥16॥

प्रतिभा झोली में लिए, मत भारत में डोल ।
कर जुगाड़ परदेश चल, वहीं मिलेगा मोल ॥17॥
जीवित है इस देश में, जाति-वंश-कुल वाद ।
किशनलाल की दिग्विजय, किसे आ रही याद ॥18॥
तन के सुन्दर बहुत ही, मन के बड़े मलीन ।
राजमहल तो पा गए, रहे सम्पदा-हीन ॥19॥
जमुना में विष घुला गया, उठे कालिया जाग।
तीर तीर काबिज हुए, फिर से नागर नाग ॥20॥

जिसकी लाठी उसकी भैंस..
जहाँ जहां घी दूध का, भारत में व्यवसाय ।
भैंस तबेलों में मिली, गोशाला में गाय ॥1॥
दुनिया भर में है यही , भारत देश अनूप ।
भैंसों भरोसे ही मिला, जहाँ दूध, घी, तूप ॥2॥
बिना दूध की भैंस को, खूँटे पर ही घास ।
गाय दुधारू दीखती, कचरे के भी पास ॥3॥
यम का वाहन है महिष, गौ में देव निवास ।
गोरों का यह मान है, कालों का उपहास ॥4॥
बल क्या भैंसों में नहीं, बैल कहाँ बलदूत ?
तो भी अभिनन्दित हुआ, गायों का ही पूत ॥5॥

सरल संयमी भैंस ही, गाय चतुर चालाक ।
गायों की तो भी जमीं, भोलेपन की धाक ॥6॥
मँहगी मिलती भैंस ही, सस्ती मिलती गाय ।
गौ माता है, मोल कम, यही लोक का न्याय ॥7॥

अधिक भैंस ही , गाय कम, जन-धन का आधार।
श्रध्दा पर भारी पड़ा, सदा लोक व्यवहार ॥8॥
गली मुहल्ले सड़क पर, खुली घूमतीं गाय ।
लाठी वाले घूमते , भैंस रहे हथियाय ॥9॥
नहीं मान बहुसंख्य का, अल्पसंख्य का मान ।
भैंसों के ही देश में, भैंस रही अनजान ॥10॥
(27-02-2007)

सूली पर इतिहास
(दोहा प्रबंध)
जिन कलमों ने लिख दिए, स्मृति-संहिता-पुराण,
वे सब की सब हो गईं, आज निरी निष्प्राण । 1
कलमें जो मशहूर थीं, क्यों हो गईं उदास ?
सूली पर जब चढ़ रहा, भारत का इतिहास । 2
पूजनीय ब्राह्मण जहाँ, माँ जैसी है गाय,
न्यौछावर होता जहाँ, इन पर जन समुदाय । 3

गो ब्राह्मण प्रतिपाल की, होतीं जय जयकार,
लिए जहाँ इस ही लिए , प्रभुओं ने अवतार । 4
तन मन धन देकर हरा, जिसने इनका क्लेश,
वह, इस धरती का हुआ, उतना बड़ा नरेश । 5
शिवा अहिल्या के यहाँ, होते थे यशगान,
कृष्ण यहीं पर बन गए, मानव से भगवान । 6

बुद्ध यहीं बुद्धू बने, विस्मृत हुआ अशोक,
कलमों ने लीकें रचीं, चलता आया लोक। 7
हिन्दू धर्मोद्धार की , रचकर नई मिसाल,
उभर चुका है एक अब, गो-ब्राह्मण प्रतिपाल । 8
पशुपालों का वंश फिर, फिर गरीब का पूत,
बनकर आया हिन्दुओं की सत्ता का दूत । 9
वह कसाइयों से लड़ा, और चुराईं गाय,
बाँटीं उनको ही मिले, जो गरीब असहाय। 10
आदिवासियों का जहाँ जीवन है बदहाल,
देश उड़ीसा है वहीं, होतीं मौत अकाल । 11
रोजगार है ही नहीं, अनपढ़ हैं सब लोग,
जिनकी केवल नियति है, भूख गरीबी रोग। 12
इस गरीब की आत्मा, रोई, उठी पुकार,
हे रवीन्द्र इस देह को, इन दुखितों पर वार । 13
किए असंभव काम कुछ, और किए उपकार,
दारासिंह हीरो हुआ, पाल रवीन्द्र कुमार । 14
बालक बूढ़े कर लिए, वनवासी एकत्र,
शिक्षा का करने लगा, वह प्रचार सर्वत्र । 15

आदिवासियों में हुआ, दारासिंह मशहूर ,
ख्याति फैलती ही गई, उसकी दूर सुदूर । 16
दारा का चलता रहा, जनसेवा का काम,
हिन्दू बनने लग गया, हर वनवासी ग्राम। 17
दूर दूर तक पा गई, जब यह बात प्रचार ,

जागे हिन्दू धर्म के, फिर से ठेकेदार । 18
चला चुके थे धर्म-रथ, जो थे हुए हताश ,
मन्दिर को मस्जिद बता, करवा चुके विनाश। 19
दीख गया इनके नया, चरागाह फिर पास,
मिले और साजिश रची, ली तरकीब तलाश । 20
एक विदेशी का वहीं, रहता था परिवार ,
कुष्ठ रोगियों का वहीं, करता था उपचार। 21
घर में देखा एक दिन, मौके की थी ताक,
दुष्टों ने बेटों सहित, किया जलाकर राख । 22
सफल हो गए विप्लवी, कर मनचाहा काम,
खबर छपी अखबार में, है दारा का काम। 23
आदिवासियों ने सुना, वे रह गए अवाक ,
प्राणि-दया का रूप है, दारा का मन, पाक। 24
है गरीब का जन्म ही धरती पर अभिशाप,
लगे गरीबों को, किए, जो औरों ने पाप। 25
पुलिस खोजती आ गई, हर कुटिया हर द्वार,
आदिवासियों का हुआ, जीना भी दुश्वार । 26

उन पर अब होने लगे, जमकर अत्याचार,
दारासिंह की आत्मा, फिर से उठी पुकार । 27
मर कर भी न बताएंगे, दारा से है नेह,
इन्हें बचा ले वार दे, दारा अपनी देह । 28
दारा पहुँचा एक दिन, स्वयं पुलिस के पास,
बनी बहादुर पुलिस ने, कैद किया इतिहास। 29

हिन्दू मानस में उठा, एक नया तूफान,
गैर-हिन्दुओं पर तने, हर कमान के बान। 30
अँगड़ाई लेकर उठी, धुर हिन्दुई हिलोर,
लगे चीखने जोर से, कुछ बौरे चहुँओर ।31
हुआ गोधरा, हो गया, गरबीला गुजरात,
लाशों के ऊपर मिली, सत्ता की सौगात।32
होती आईं , हो रहीं, हत्याएं दिन रात ,
हुए यहाँ नरमेध भी, आए दिन की बात ।33
क्षम्य ब्रह्महत्या हुईं, करें अगर वे लोग,
जिनके घर में पक रहे, राजनीति के भोग।34
सिंहासन दिलवा सकें, तथा करें सहयोग,
वे ही हैं इस देश के, अब रखवाले लोग।35
जिनको सत्ता से मिला, रक्षा का वरदान,
वे हत्यारे घूमते, दिखलाते हैं शान ।36
जुड़े हुए जिनके कहीं, सत्ता से हैं तार,
जा विदेश बसते वही, कर के नर संहार।37
उकसाते नरमेध जो, वे हैं सत्तासीन,
सजा पराए पाप की, भोग रहा धनहीन ।38
जनसेवक की जान को, कहाँ मिलेगा ठौर,
राजनीति खा जाएगी कितने दारा और ।39
कागज के वन पर चली, कलम लिखेगी न्याय,
सूली पर इतिहास है, कौन बचावे हाय ? 40
(ग्राहम स्टेन्स का आरोपित हत्यारा दारासिंह अपनी पृष्ठभूमि एवं
तथ्यों के आधार पर निर्दोष किन्तु धार्मिक षडयंत्र का शिकार
हुआ लगता है – गुवाहाटी में प्रकाशित - दैनिक सेन्टीनल में 18-10-2003

एवं दैनिक पूर्वांचल प्रहरी में 22-12-2003)

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