संस्कृत दोहे: वंदना
दोहाकार:
डॉ. अनंत राम मिश्र ‘अनंत’,
हिंदी
रूपांतरण:
पं. गिरिमोहन गुरु- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
जननि राजहंसासने!, हे भगवती
प्रसीद।
मम मयूर मानसे त्वं, नक्तं दिवं निषीद।।
राजहंस आसीन माँ!, दे निज
कृपा-प्रकाश।
मन मयूर मम अहर्निश, रहे तुम्हारे पास।।
*
विधुवदने! वरदासने!,
वागीश्वरि कल्याणि।
काव्य-कौशलं देहि मे, हे
मातर्ब्रम्हाणि।।
चंद्रमुखी वर दो; करो,
वाग्देवि कल्याण।
काव्य-कुशलता दो मुझे,
जगजननी कर त्राण।।
*
अयि मातर्दुरितापहे! दूरी
कुरु दुरितानि।
भवती वयं भजामहे, न: प्रयच्छ पुण्यानि।।
हे माता! दुःख-ताप हर, करो पाप
सब दूर।
भजते हैं हम आपको, मिले पुण्य भरपूर।।
*
अहं भवच्चरणांबुजे, द्वये न
तोस्मि दयस्व।
अपसारभ मे कल्मषं, जगदीश्वरी क्षमस्व।।
मैं पदपद्मों में नमित, तुम
बिन कहीं न सार।
उर-कल्मष हर; क्षमाकर, लो जगजननि उबार।।
*
धर्म मोक्ष कामार्थ मिति, नहि
कदापि वाच्छामि।
प्रति जन्मत्वत्प्रसादयोर्भक्तिं समभिलषामि।।
चाह न धर्म; न मोक्ष की, चाहूँ
अर्थ; न काम।
अभिलाषा हर जन्म दो, भक्ति-प्रसाद ललाम।।
*
दुरितारे! सीतापते!,
दशरथनन्दन राम!
शिवं यच्छ जगते सदा, सगुणा ब्रम्ह ललाम।।
पाप-शत्रु सियनाथ हे!,
दशरथ-सुत श्री राम।
करें जगत कल्याण जो, सगुणा
ब्रम्ह प्रणाम।।
*
मुरलीधर सुरमधुर्यो!, मुनि जन
मानस हँस।
देहि रतिं पद्मो:स्वयोर्हेयदुकुलावतंस।।
सुमधुर वेणु अधर धरे, हे मुनि
मनस मराल।
हे प्रभु! निज पद-भक्ति दो, यादव दीनदयाल।।
*
महद्धनं यदि ते भवेत्, दीनेभ्यस्तद्देहि।
विधेहि कर्मं सदा शुभं, शुभं फलं त्वं प्रेहि॥
विधेहि कर्मं सदा शुभं, शुभं फलं त्वं प्रेहि॥
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