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शुक्रवार, 30 मार्च 2018

ॐ doha shatak rita sivani

ॐ 
दोहा शतक 
रीता सिवानी
















जन्म: १  फरवरी १९८०, मकरियार, सिवान, बिहार। 
आत्मजा:: स्वर्गीय चंदा देवी-श्री रामाशीष यादव। 
        श्रीमती लालमुनि देवी
जीवन साथी:  श्री संजय कुमार यादव। 
शिक्षा: बी.ए. ऑनर्स।  
प्रकाशन : विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में।  
सम्मान: दोहा शिरोमणि( साहित्य शारदा मंच खटीमा, उत्तराखंड)।
संपर्क : ए ९५, द्वितीय तल, सेक्टर १९ नोएडा २०१३०१ उत्तर प्रदेश। 
चलभाष: ९६५०१५३८४७।  
*

पूजे जाते हैं जहाँ, गौरी पुत्र गणेश।
वास वहाँ आकर करें, ब्रम्हा, विष्णु, महेश।। 
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करो कृपा माँ शारदे, दूर करो अज्ञान।
हाथ जोड़ विनती करूँ, दो विद्या वरदान।। 
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प्रभु! मैं भी कुछ आपका, कर पाऊँ गुणगान।
मेरा मन भी हो सके, हरि-मंदिर हनुमान।।
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हिंदी-बिंदी हिंद की, सजी हिंद के भाल ।
बैठी लेकिन ओढ़कर, अंग्रेज़ी की शाल।।
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अंधभक्त बनना नहीं, कभी किसी का यार।
चल पड़ता इससे किसी, बाबा का व्यापार।। 
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मिले जहाँ इज्ज़त नहीं, राह वहाँ की भूल।
अपने निज सम्मान को, अपना बना उसूल।।
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धरा जगत की एक है, अंबर सबका एक।
मनुज एक मिट्टी बने, रंगत-रूप अनेक।।
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चार कदम तुम प्यार के, बढ़ लो मेरी ओर।
फिर देखो मेरा ह्रदय, कैसा भाव-विभोर।। 
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जिन्हें पता ही यह नहीं, लज्जा का क्या नूर।
ऐसों का छोड़ो नहीं, दंडित करो हुजूर।।
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पापी को होता नहीं, तनिक कभी संताप।
तीर्थ नहाने से अगर, सर से हटता पाप।।
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दहशतगर्दों के भरा, मन में अजब फ़ितूर।
निर्दोषों को मारना, बना लिया दस्तूर।। 
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मिले जहाँ इज्ज़त नहीं, राह वहाँ की भूल।
स्वाभिमान को तू बना, अपना सदा उसूल।। 
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सच्चाई की राह पर, जो चलता रख धीर।
सब बाधाएँ पारकर, बन जाता वह वीर।। 
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रिश्ते में जब प्रीत हो, तभी बने वह ख़ास।
प्रीत बिना रिश्ते लगें, बोझिल मूक उदास।। 
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आडंबर से धर्म के, फैले बहुत विकार।
ज्वाला नफ़रत की जली, झुलस रहा संसार।। 
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धर्म सभी देते सदा, प्रेम भरे पैगाम।
आपस में लड़कर करें, मनुज इसे बदनाम।। 
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बिन छेड़े डसते नहीं, कभी किसी को साँप।
मानव को मानव डसे, बिन छेड़े ही आप।।
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पेड़ काट हमने सभी, जंगल दिए उजाड़ ।
हरियाली दिखती नहीं, बाकी बचे न झाड़।। 
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साथी सुख में सौ मिले, दुख में मिला न एक।
साथ कष्ट में जो रहें, मित्र वही है नेक।।
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छुपे हुए हैं योग में, सेहत के सब राज़।
बिना चूक हर रोग का, करता सदा इलाज।।   
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मिट्टी के हम सब बनें, मिट्टी ही पहचान।
चार दिनों का खेल यह, खेल रहा इंसान।। 
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मैं- मैं करते हैं सदा, गिरा नयन का नीर।
अपनों की समझें नहीं, अब अपने ही पीर।।
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रखो नहीं दिल में कभी, मित्र किसी की बात। 
हर रिश्ते की एक दिन,खुलती है औक़ात।। 
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सत्पथ पर चलना नहीं, कभी रहा आसान।
झूठ बिके झटपट यहाँ, सच की बंद दुकान।। 
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कहने को पढ़ते रहे, हम सब प्रेम-किताब।
उमड़ रहे दिल में मगर, नफ़रत के सैलाब।। 
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नफ़रत भरा ह्रदय रखे, बोलें मीठी बात ।
स्वार्थ साधने के लिए, कहते रहते तात।। 
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गर्व नहीं करना कभी, धन पर ए इंसान!।
कर जाता पल में प्रलय, छोटा सा तूफान।। 
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कपटी, दंभी, लालची, अपना करें बखान।
बातों से इनकी लगे, है ये बड़े महान।।  
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जिस थाली खाया कभी, किया उसी में छेद।
मतलब की थी मित्रता, बिन मतलब मतभेद।। 
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प्रेम और विश्वास पर, होते जो आबाद।
ऐसे रिश्तों से सदा, दूर रहे अवसाद।।   
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नेकी करिए या बदी, रहिए सदा सचेत।
बदले में आना वही, 'रीता' सूद समेत।। 
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भूख नहीं 'रीता' उन्हें, जिनके घर पकवान ।
जाने कितने भूख से, तड़प रहे  इंसान।।  
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दूर रहें या पास हम, जुड़े रहे अहसास।
सच्चे रिश्तों की यही, लगती बातें खास।। 
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'रीता' धरती ही नहीं, दूषित अब आकाश।
सभ्य आदमी सृष्टि का, करता स्वयं विनाश।।
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अपनी निंदा से कभी, होना मत हैरान।
यह भी जीवन के लिए, शुभ है जैसे पान।। 
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रामायण-गीता पढ़ो, चाहे तुम क़ुरआन।
ध्यान रहे इंसानियत, दिल में हो इंसान।। 
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बाल-दिवस समझे भला, क्या बच्चे मजबूर।
बचपन में जो हैं विवश, बनाने को मज़दूर।। 
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अपने भी करने लगे, अब अपनों से बैर।
अपना समझूँ मैं किसे, कहो कौन है गैर।।
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औरों के दुख से दुखी, होते जो इंसान।
अब शायद रचते नहीं, ऐसे जन भगवान।।
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मरी हुई संवेदना, रहा न जीवित प्यार ।
हानि-लाभ का कर रहे, अपने भी व्यवहार।।  
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श्रम करके पूरे करो, दिल के सब अरमान ।
मत बेचो इसके लिए, तुम अपना ईमान।। 
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हाड़-माँस के है सभी, पुतले हम इंसान।
जाति-धर्म के नाम पर, क्यों लड़ते नादान।। 
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बेटे -बेटी पर सभी, करते हैं अभिमान।
लोग बहू पर क्यों नहीं, करते भला गुमान।।
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अपनी बेटी बावली, लगे गुणों की खान।
उसमें कमियाँ ही दिखे, बहू लाख गुणवान।।
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मात-पिता के लाडले, नैनों के हैं नूर।
रोटी की ख़ातिर बसें, जाकर कोसों दूर।।
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तड़प- तड़प तन्हा मरे, हुआ बुढापा शाप।
बेटे बसे विदेश में, क्या करते माँ- बाप।।
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बनी नहीं जग में अभी, कोई कहीं किताब।
माँ की ममता का लगे, जिसके पढ़े हिसाब।। 
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माँ से जीवन में महक, माँ से दुनिया फूल।
माँ बिन लगती जिंदगी, तपकर उड़ती धूल।। 
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माँ के आँचल में मिली, जैसी हमको छाँव।
सारी दुनिया में नहीं, वैसी कोई ठाँव।।   
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हवा बसंती गा रही, झूम-झूमकर फाग ।
झूल डाल पर मस्त हो, कोयल छेड़े राग।। 
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अपना था समझा जिसे, किया उसी ने घात।
मन आहत-घायल हुआ, अपनों की सौग़ात।। 
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चाहे जितना यत्न कर, रख कितना सामान ।
'रीता' रीता जाएगा', खुले हाथ शमशान।। 
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रोग लगा 'मैं' का जिन्हें,  समझे किसकी बात।
औरों को निज बात से, पहुँचाते आघात।।
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जिसकी ख़ातिर कर दिए, सारे सपने चूर।
स्वार्थ साध बस गया वह, जाकर कोसों दूर।।
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भूली अपनी संस्कृति, बदल गया परिधान।
घूँघट में है अब कहाँ, दुल्हन की मुस्कान।।
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राज़ कहो दिल का नहीं, उनसे कभी  हुज़ूर।
जो म्र्लब के यार हों, पर यारी से दूर।।
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मन मेरा यह बावला, हो जाता है शाद।
ख़ुशहाली जब गाँव की, आती मुझको याद।।
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हर रिश्ते की जान वह, उससे घर-परिवार।
नारी जीवनदायिनी, नारी से संसार।। 
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पूजे जाने का नहीं, है उसका अरमान ।
नारी को भरपूर दें, स्नेह-प्रेम-सम्मान।। 
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महिला को अबला कभी, समझ नहीं नादान ।
दुर्गा-लक्ष्मी-शारदा, नारी की पहचान।। 
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जलन ईर्ष्या छोड़कर, जी से करना वाह।
पाना चाहो तुम अगर, सबका प्रेम अथाह।। 
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छोड़ अभी आलस्य तू, पकड़ कर्म की राह।
धन-दौलत सम्मान की, मन में है यदि चाह।।
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क्यों दुख में डूबा हुआ, पापी मन कुछ बोल।
स्वार्थ भुला सर्वार्थ-सुख, दे जीवन अनमोल।। 
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कह दे कोई आपसे, मन का झंझावात।
कहें कभी मत और से, और किसी से बात।। 
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श्वान अमीरों का पले, पा सुविधाएँ घोर।
भूखा पुत्र गरीब का, जग को लगता चोर।।
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औरत का होता नहीं, जिस घर में सम्मान।
वह घर, घर होता कहाँ, रहता भवन-मकान।।
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भूखे दुखी ग़रीब की, कभी न लेना आह।
अगर चाहता है मिले, भगवद्कृपा अथाह।।
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टी.वी. घर-घर चल रहे, सूनी है चौपाल।
शहरों सा ही अब हुआ, गाँवों का भी हाल।। 
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बसी खेत -खलिहान में, रहती पल-पल जान।
करता है श्रम जब कृषक, तब हो गेहूँ धान।। 
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अभिलाषा शहरी हुई, रोकर बोला गाँव।
कूलर-पंखे कर रहे, सूनी पीपल छाँव।।
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पानी सबकी ज़िंदगी, जाने सकल जहान।
फिर भी करते हैं सभी, पानी का नुक़सान।।
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जीवन का सोचो ज़रा, क्या होगा तब अर्थ।
रोका जो हमने नहीं, नीर बहाना व्यर्थ।। 
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किए बिना हनुमत भजन, मुझे न आए चैन ।
हनुमत-हनुमत ही रटे, यह जिह्वा दिन रैन।। 
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जलती जब दिल में धधक, बैर घृणा की आग।
ऐसे में कैसे भला, हो फगुआ का राग।। 
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देख देखकर जी रही, प्रियतम की तस्वीर।
विधना ने कैसी लिखी, नारी की तक़दीर।।
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विरह वेदना से विकल,विरही के दिन-रैन।
हृदय घात पल पल करे, हरदम भीगे नैन।।
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विरह व्यथा अपनी कहूँ, या आँखों का नीर।
सखी बताऊँ किस तरह, अपने उर की पीर।।
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तेरी यादों में सजन, बुरा हुआ है हाल।
इंतजार में लग रहे, दिवस  महीने-साल।। 
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राम नाम जिह्वा रटे, जिसकी सुबहो-शाम।
अंतकाल पाता वही, हरि का प्यारा धाम।।
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साईं का उपदेश है, बनो आदमी नेक।
जाति-धर्म कुछ भी नहीं, सबका मालिक एक।।
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ग्यारहवें अवतार हैं, शंकर के हनुमान।
मद में रावण कह गया, उनको कपि नादान।।
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वर माँगू माँ शारदे!, दे दो बुद्धि-विवेक।
'रीता'-मन रीता न हो, काज करूँ मैं नेक।। 
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सच्चे मन से कीजिए, पवन पुत्र का ध्यान।
'रीता' डर किस बात का, जब रक्षक हनुमान।। 
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जागेगा सोया हुआ, भाग्य आप ही आप।
सतत करें श्रम-साधना, तज आलस का शाप।। 
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मिलते हैं जग में सभी, अब झूठे इंसान।
झूठों में कैसे करें, सच्चे की पहचान।। 
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गोवर्धन पर्वत उठा, पूज बनाया पर्व।
तोड़ा यूँ श्री कृष्ण ने, इंद्र देव का गर्व।।
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चाहे जितना कीजिए, अपने मन का काम।
ध्यान रहे इतना मगर, नाम न हो बदनाम।। 
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ज्यों है माता शारदे, वीणा की झंकार।
त्यों ही मेरी लेखनी, मातु भरे हुंकार।। 
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साईं सुनते हैं सभी, भक्तों की मनुहार।
चलो कभी हम भी चलें, शिर्डी के दरबार।। 
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माँ के चरणों का सदा, जो करते हैं ध्यान ।
भक्ति -शक्ति करती उन्हें, माता सहज प्रदान।। 
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बजरंगी हनुमान की, मुझ पर कृपा असीम।
मेरे हर दुख- दर्द के, बनते वही हक़ीम।। 
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लाल बहादुर की तरह, कम ही माँ के लाल।
जिनके कर्मों से हुई, भारत भूमि निहाल।। 
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सत्य- अहिंसा का दिया, गाँधी जी ने मंत्र।
राह धर्म की ही चुनें, रहना अगर स्वतंत्र।। 
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हर दिन उसका व्यस्त है, संडे या त्यौहार।
छुट्टी नारी को नहीं, क्यों देता संसार।। 
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होता है हर साल ही, रावण का संहार।
बच जाता जीवित मगर, अंतस में हर बार।।
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जीवन के हर मोड़ पर, मिलते रावण-राम।
सिय-श्वासों मत भूलना, किसका है क्या काम।। 
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अंतर्मन भारी हुआ, सुन बेटी की पीर।
जो दहेज माँगे उसे, सजा मिले गंभीर ।। 
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हे भगवन! किससे कहें, अपने मन का हाल ।
शकुनि शरीख़ी आजकल, नेताओं की चाल।।
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कर्म करो अपना तभी, पाओगे सम्मान ।
गीता में  देते यही, प्रभु अर्जुन को ज्ञान।। 
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घबराना मत हार से, नींव जीत की हार।
बिना दूध मंथन किए, मक्खन बने न यार।। 
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कुछ और दोहे
प्रियतम तेरी याद में, पढ़कर तेरे पत्र।
मन की पुस्तक में करूँ, प्रिय बातें एकत्र।। 
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ठिठुर- ठिठुर कर ठंड में, काटे पथ पर रात ।
है 'निर्धन आवास' की, बस सरकारी बात।। 
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आपस के होंगे स्वत:, सारे ख़त्म  विवाद।
ज़रा भूलकर देखिए, झगड़ामय संवाद।। 
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दुख होता है देखकर, दुनिया के हालात।
बात-बात पर देखते, दिखा लोग औक़ात।।
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आजादी के हो गये, पूरे सत्तर साल।
मगर गरीबी से अधिक, जनता है बेहाल।।
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'रीता' मुक्ताहार- सा,घर का है संबंध।
नेह- डोर बाँधे रखें, आपस में अनुबंध।। 
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द्वेष भाव मन के मिटा, रखना रिश्ते साफ।
अपने गलती गर करें, कर देना तुम माफ।। 
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आजादी के हो गए, पूरे सत्तर साल।
मगर गरीबी से अभी, जनता है बेहाल।। 
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सच्चे मन से जो जपे, एक बार हनुमान।
कष्ट सभी हरकर करें, प्रभु उनका कल्याण।।
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डरता क्यों है तू भला, जप ले मन हनुमान।
पवनपुत्र हर कष्ट का, करते तुरत निदान।।
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भजते जो हनुमान को, पाते प्रभु का धाम।
करते हैं उन पर कृपा,  जग के स्वामी राम।।
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सागर को बौना किया, लाँघ सभी व्यवधान।
पता लगाकर आ गए, सीता का हनुमान।। 
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करें सृष्टि का सृजन लय, विलय नाश-संहार ।
किंतु शिवा का है अमिट, शिवजी पर अधिकार।। 
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गलती अपनी कब दिखे, जिनके सर अभिमान ।
सबकी करे बुराइयाँ, बस अपना गुणगान।। 
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काम नहीं कुछ भी करें, बड़ी-बड़ी बस बात।
ऐसे लोगों की स्वयं, खुलती है औक़ात।। 
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साईं सुनते हैं सभी, भक्तों की मनुहार।
चलो कभी हम भी चलें, शिर्डी के दरबार।।  
*
काँव- काँव क्यों कर रहे, लालच में ज्यों काग।
मिलना है सबको वही, लिखे ईश जो भाग।।   
*
पापी-झूठों से हुआ, कितना पतित समाज।
लोगों की करतूत भी, कहते आती लाज।।  
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वर्तमान में याद क्यों, करता भला अतीत।
जि ले जो है ज़िंदगी, छोड़ गया जो बीत।।

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