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शुक्रवार, 23 मार्च 2018

doha shatak rameshvar prasad sarasvat

ॐ 
दोहा शतक 
रामेश्वर प्रसाद सारस्वत 

















जन्म:   १-४-१९५४ सोंखखेड़ा, मथुरा उ॰प्र॰  
आत्मज: श्रीमती शांति देवी-श्री नत्थीलाल सारस्वत ।
जीवन संगिनी: श्रीमती वीणा सारस्वत । 
शिक्षा: बी॰एससी॰, बी॰वी॰एससी॰ एण्ड सी॰ए॰आई॰आई॰बी॰।
लेखन विधा: गीत, कविता, निबंध।
प्रकाशन:  नानी का गाँव बाल,  चटोरी चिड़िया,  काठ का घोड़ा,  छुटकी की चुटकी सभी बाल कविता-संग्रह ।  
उपलब्धि:  'विशिष्ट सम्मान' भारतीय बाल कल्याण संस्थान कानपुर, समन्वय सृजन सम्मान- २०१० सहारनपुर, 
 बाल-वाटिका, भीलवाड़ा द्वारा कविता-संग्रह काठ का घोड़ा सम्मानित २०१४,  बाल साहित्यकार सम्मान २०१५ 
धरोहर स्मृति न्यास, बिजनौर, राष्ट्रीय जनकल्याण समिति भारत द्वारा विशिष्ट नागरिक सम्मान,
साहित्य वारिधी २००९-१०, दोहा शिरोमणि शारदामंच खटीमा, कल्याण सिंह बिष्ट स्मृति बाल साहित्य सम्मान २०१७, 
साहित्य सागर सम्मान २०१७।
संप्रति: परियोजना निदेषक, पंजाब नेशनल बैंक, शताब्दी ग्राम विकास न्यास, माटकी-झरौली, सहारनपुर उ॰प्र॰। 
संपर्क: १००-पंत विहार, सहारनपुर उ॰प्र॰। 
चलभाष: ९५५७८२८९५० , ईमेल:   rpsaraswat1454@gmail.com  ।
*

जहरीली नदियाँ हुईं, सिकुड़े जीवन सूत्र।
अमृतधारा थीं कभी, अब ढोतीं मल-मूत्र।।
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लोभ-लालसा की कहाँ, सीमा है निर्दिष्ट।
जितना पाएँ कम पड़े, रहें अतृप्त अशिष्ट।।
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सुजला सुफला श्यामला, शस्यों से भरपूर।
मानव दोहन में लगा, होकर मद में चूर।।
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रौंद दिए जंगल सभी, नदियाँ लील-निचोड़।
मरघट तक ले आ गई, यह विकास की होड़।।
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अंधाधुंध कटान से, चीरा माँ का वक्ष।
रुक पाएगा अब भला, क्यों अकाल दुर्भिक्ष।।
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मानव करने में लगा, जीवन से खिलवाड़।
शामिल अंधी दौड़ में, ले विकास की आड़।।
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खनन संपदा की मची, ऐसी लूट-खसोट।
औने-पौने बेच दी, ले खादी की ओट।।
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तपती धरती पूछती, रह-रह यही सवाल।  
कब बरसोगे देवता, करने जगत निहाल।।
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सनन-सनन लू चल रही, लगें थपेड़े खूब।
झुलसे तरु कुम्हला रहे, जली धरा की दूब।।
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तप्त हवा सी लग रही, फैली चहुँ दिश रेत।
नहीं दिखाई पड़ रहे, जीवन के संकेत।।
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भीषण गर्मी पड़ रही, भूजल हुआ विलुप्त।
इंद्रदेव किस लोक में, करें मंत्रणा गुप्त।।   
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धूल भरी आँधी उठी, आए बादल झूम।
बिन बरसे जाते कहाँ, धूम-धाम से घूम।।
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यमुना साँसें गिन रही, सिसक रही है गंग।
नहरें छल कर ले गयीं, सलिला-सलिल तरंग।।
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अंधी दौड़ विकास की, मर्यादाएँ ध्वस्त।
कंकरीट के देश में, सब अपने में मस्त।।
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जेठ तपे जितना प्रबल, लू, पछुआ के संग।
उतना सावन बरसकर, बिखराता है रंग।।
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जेठ दुपहरी तप रही, बढ़ती दिन-दिन प्यास।
तरु की छाया ढूँढता, पंछी हुआ उदास।।
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पूरा पोखर पी गया, कितना प्यासा जेठ।
फिर भी नजर तरेरता, तिरछी मूँछें ऐंठ।।
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घूँट-घूँट को तरसते, परबस डंगर-ढोर।
बरखा बैरन लापता, दीखे ओर न छोर।।
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कैसी है यह त्रासदी, या विधिना का खेल।
पानी के दिन फिर गए, बिकता ज्यों घी-तेल।।
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कहाँ गईं वे बावड़ी, ठंडे जल की स्रोत।
ग्रसे गए किस शाप से, कुएँ-ताल पा मौत।। 
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प्याऊ-पोखर गुम हुए, सूखे मन से लोग।
घर-चौराहे हर तरफ, लगा बिसलरी रोग।।
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अच्छे दिन की बाट में, बीता कैसे साल।
निर्मोही मौसम हुआ, करता रोज धमाल।।
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धूल भरी आँधी उठी, धरा रूप विकराल।
छप्पर-छानी उड़ गए, घर के बिगड़े हाल।।
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जेठ दुपहरी तप रही, हर बरगद की छाँव।
कहो कौन सुलगा गया, जले गाँव के गाँव।।
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मन के घोड़े दौड़ते, सरपट बिना लगाम।
नहीं किसी को सूझता, क्या बरखा क्या घाम।।  
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पावस नाचे झूम के, पुरवा गाए गीत।
हरियाली धरती हुई, पा अंबर की प्रीत।।
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चकाचौंध है हर तरफ, है दूधिया प्रकाश।
मनुआ अंधी दौड़ में, सीने में ले प्यास।।
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राजनीति में हो रहे, कैसे-कैसे खेल।
मुलजिम छुट्टा घूमता, बेकसूर को जेल।।
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संविधान में ही बचा, लोकतंत्र है आज।
सुप्रीमो ही कर रहे, अब जनगण पर राज।।
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ऐसा मैंने कब कहा, रोज पलटते बोल।
करनी-कथनी में सदा, नेता रखते झोल।।
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धुली-धुली सी लग रही, चूने से लबरेज।
शायद मंत्री की लगे, इसी सड़क पर मेज।।  
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सच को सच कहना नहीं, करो झूठ बदनाम।
अब विपक्ष का रह गया, संसद में यह काम।।
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हावी लॉकर पर हुआ, गणित बिठाता तंत्र।
सैंया लोभी मिल रचें, रोज नये षड़यन्त्र।।।।
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खत जब सूरज ने लिखा, पुरवाई के नाम।
सुबह हँसी गुलदाउदी, बहका बेला शाम।।
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सुबह सुरमई हो रही, और दूधिया शाम।
चुप-चुप मौसम दे रहा, प्यार भरा पैगाम।।
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नैना झुक-झुक कर करें, खट्टी-मीठी बात।
प्रीति निगोड़ी ले उड़े, बिन ब्याहे जजबात।।
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ताजे फूलों सी हँसी, चंदा जैसा बिंब।   
स्मृति तल में तैरता, उसका ही प्रतिबिंब।।
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छूट गए अब गाँव के, तपते सुखद अलाव।
किस्से और कहानियों, का  पूर्ण अभाव।।
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हमने तो इस दौर से, किया अजब अनुबंध।
उड़कर भी साधे रखा, धरती से संबंध।।
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बिजली ने जब रूठकर, दिखलाए निज रंग।
हम भी फिर मन मार के, रहे चाँदनी-संग।।
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आँखमिचौली खेलकर, बिजली सारी रात।
निंदिया को देती रही, पल-पल हँस शह-मात।।
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देखा परखा है बहुत, हमने यह हर बार।
मन कब कहने में रहा, रहे सदा मन मार।।
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पल-पल बूढ़ी हो रही, है बरगद की छाँव।
कहीं आस अटकी हुई, लौटेगा वह गाँव।।
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पल-पल वह सहती रही, यादों का उन्माद।
दिल पर पत्थर रख लिया, भूली सब संवाद।।
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गुलमोहर खुश हो रहा, फूला हरसिंगार।
बरगद पीपल नीम से, बतिया रही बयार।।
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बाहर चल स्वीकारिए, कुदरत के उपहार।   
नया सवेरा कह रहा, खोलें मन के द्वार।।
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नीम खड़ा बौरा रहा, सजे जमुन के पात।
जेठ हठीला दे रहा, बेमन ये सौगात।।
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सुबह सुरमई हो रही, लगे सुहानी शाम।
मुई दुपहरी कटखनी, सब आराम हराम।।
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बूँदा-बाँदी हो रही, उठती सौंधी गंध।
आसमान से जुड़ रहे, धरती के संबंध।।
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बच्चे ने पाई नहीं, माँ के पय की गंध।
बोलो फिर कैसे जुड़े, नेह पगे संबंध।।
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पानी का संकट विकट, गहराया दुष्काल।
चल कर फिर से खोजिए, नदियाँ-पोखर-ताल।।
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नदी सूख काँटा हुई, रेत-लोटती नाव।
पानी के हैं लग रहे, अब मनमाने भाव।।
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राजनीति के ताल में, घुटनों-घुटनों कीच।
फेंकू, पप्पू नाम दो, या फिर कह लो नीच।।
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साम, दाम अरु दण्ड से, जीतो आज चुनाव।
जिसको जो भाए चलो, वही शकुनिया दाँव।।
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शुचिता की बातें हुईं, करना आज फिजूल।
अब तो मात्र विपक्ष को, चटवाना है धूल।।
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छल-बल हर दल में भरा, धन-बल भी भरपूर।
राजनीति में स्वच्छता, अब तो कोसों दूर।।
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तू मुझको नकटा कहे, मुझको तू है नीच।
हम दोनों ही पशु निरे, हमें सुहाती कीच।।
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राजनीति के पंक में, खुशी-खुशी जा लोट।
अच्छा-बुरा न सोच कुछ, हथिया जन का वोट।।
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किंचित भी देना नहीं, अब विपक्ष को एज।
फण्डा केवल एक ही, कर चुनाव मैनेज।।
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सर्दी में भी हँस रहे, ये गुलाब के फूल।
जो सब को प्रतिकूल है, इनको है अनुकूल।।
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सरसों शैशव काल में, होती ईख जवान।
गेहूँ तो हरिया रहे, बोरे में हैं धान।।
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गेंदे की पसरी हुई, है मदमाती गंध।
गुपचुप उसका हो गया, सुरज से अनुबंध।।
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जाड़ा आ सम्मुख खड़ा, ठोके अपनी ताल।
आग पकड़ने से डरे, अब कमजोर पुआल।।
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एक साथ कैसे सधैं, जीवन के संकेत।
इधर नदी दम तोड़ती, उधर सूखते खेत।।
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धीरे-धीरे हो रहा, है जड़ता का अंत।
अब सरसों के खेत मैं, कविता पढ़े बसंत।।
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पद्मावत को देखकर, मनवा हुआ अधीर।
बिना शीश लड़ते रहे, कहाँ गए वे वी।।
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एक निमष भूला नहीं, मुझको मेरा गाँव।
चल पड़ते उस ओर को, बरबस मन के पाँव।।
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उसकी भोर सुहावनी, मस्त सुरमई शाम।
गाँव हमारा स्वर्ग था, सब विधि सुख का धाम।।
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सदा रजाई में दिखे, बाहर दिखे न पाँव।
एक कोट-पतलून में, ढक जाता था गाँव।।
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समय सभी के पास था, सब थे मस्त मलंग।
गली-गली तब गाँव की, एक दूसरे संग।।
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लोभी मन गदगद हुआ, लख अलबेले ठाठ।
विस्मृत करने में लगा, बचपन का हर पाठ।।
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माँ की ममता का मिला, हमको यही निचोड़।
उसके बिन सूना लगे, जीवन का हर मोड़।।
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अंधी दौड़ विकास की, छोड़े नहीं वजूद।
इत टिहरी जलमग्न है, उत डूबा हरसूद।।
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तन भीगा बरसात में, मनवा उसके नेह।
याद रहेगा उम्र भर, सखि सावन का मेह।।
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सावन में झर-झर गया, हुआ प्रफुल्लित गात।
अंकुर फूटे नेह के, चहक उठे दिन रात।।
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जीवन जीने के लिए, जी इसको भरपूर।
आभासी  संसार से, रख अपने को दूर।।
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जन प्रतिनिधि सब नाम के, सब जनता से दूर।
प्रजातंत्र के खेल में, जन के सपने चूर।।
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ऐसे कैसे सौंप दूँ, मैं अपनी तकदीर।
पाँच वर्ष के बाद फिर, बदलूँगा तसवीर।।
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जंगल के कानून का, देखो तो अंधेर।
लगा मुखौटे भेड़िए, बन बैठे हैं शेर।।
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कोमल, चंचल तितलियाँ, करें प्रदर्शित प्रीत।
तत्पर हैं, चिंतित नहीं, हार मिले या जीत।।
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जीवन के सब सिलसिले, उलझाते हैं डोर।
कहने को आजाद हैं, पर ओझल हैं छोर।।
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दया-धर्म की नीतियाँ, अब तो हुईं फिजूल।
नील-गाय को मारने, केंद्र बताता रूल।।
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करते खण्डित मूर्ति को, फैलाते उन्माद।
कुछ लोगों के जीन में, दंगा, घृणा, फसाद।।
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निज युग के अनुरूप ही, कवि रचता इतिहास।
चंद शब्द लेकर भला, क्यों होता उपहास।।
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नकटों से नकटे मिलें, बजें बेसुरे बीन।
अब कौओं के सामने, कोयल के स्वर दीन।।
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कह रहीम कब के गए, सुनी न उनकी बात।
पानी अब दुर्लभ हुआ, परखो अब औकात।।
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जीवन की उलझन बढ़े, पा नकली प्रस्ताव।
कैसे दरिया पार हो, ले कागज की नाव।।
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भूले भटके ही करें, अब तो प्रभु को याद।
हर बाबा अब देश में, बेच रहा उत्पाद।।
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गौरैया सुन ले जरा, प्यार भरा संदेश।
तू भी तो खुद को बदल, बदल रहा परिवेश।।
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अब विकास के मायने, बहुमंजिला मकान।
किश्त चुकाने में चुकें, जीवन के अरमान।।
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कड़वी वाणी बोलकर, फैलाते उन्माद।
मानव दीखते किंतु हैं, सच दानव-जल्लाद।।
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आज हो रहा देश में, देख-देख मन खिन्न।
राष्ट्र-प्रेम की बात पर, मत क्यों होता भिन्न।।
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जब भी दुश्मन ने किए, सीने पर आघात।
मिल लोहा लेते रहे, कागज, कलम, दवात।।
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बंदे अपने को भला, क्यों कहता नाचीज।
बरगद तो होगा तभी, जब हो उसका बीज।।
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केवल अच्छे काम से, होता जग में नाम।
लगे निखट्टू का भला, किसको प्यारा चाम।।
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दृढ़ इच्छा, दृढ़ नियम से, सपने हों साकार।
बिना जतन के तो मिले, जीवन में बस हार।।
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आँख-आँख डालकर, जो नर करते बात।
दृढ़ इच्छा से जगत में, देते सबको मात।।
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आँखों में पानी नहीं, दिल में प्रेम न नेंक।
वे दुनिया को लूटते, छल के पाँसे फेंक।।
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धवल-वस्त्र धारण किए, पर दिल में है खोट।
बगुला-रूपी नर यहाँ, देते सबको चोट।।
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बिना नमक के कब रुचे, तरकारी का स्वाद।
ऐसे ही बिन भजन के, जीवन है बरबाद ।।
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जिसके जैसे कर्म हैं, पाता वैसे भोग।
सुख न बिना सत्कर्म के, चाहे साधो जोग।।१०१ 
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जिनको पाने के लिए हम इतने बेचैन।
क्या उनको मालूम है, हम कितने बेचैन।।
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वालमीकि रैदास या, बाबा तुलसीदास।
जाति-वर्ग से जोड़कर, क्यों होता उपहास।।
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रहिमन संत कबीर या, गुरु नानक रैदास।
इनके चिंतन से मिटे, तृषित मनों की प्यास ̊
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नीर लूट कर हँस रहा, निमर्म टिहरी बाँध। ० 
गंगा मैली हो रही, तन से उठे सड़ाँध।।
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