दोहा सलिला:
हिंदी की जयकार हो, सकल विश्व में आज। अंगरेजी हो सहायक, हिंदी के सिर ताज।।
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मत जमीन को भूलिए, शिखरों पर जा मीत।
नहीं शिखर पर हमेशा, कोई रहता रीत।।
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मूर्ति भंजकों का हुआ, जब-जब राज-समाज।
पैर तले कुचले गए, तब-तब तख्तो-ताज।।
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खतरा हमें न शत्रु से, अन्य दलों से बैर।
नाश विपक्षी का करें, शत्रु मनाए खैर।।
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जो मुल्ला होता नया, ज्यादा खाता प्याज। बनी कहावत सत्य ही, समझ आ रहा आज।।
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व्यर्थ परीक्षा ले रहे, करिए पद नीलाम। ख़ास-ख़ास का चयन कर, भूल जाइए आम।।
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समय न उसके साथ था, समय न इसके संग। वह ऐंठा पछता रहा, तू करता हुडदंग।।
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मतदाता चाहे जिसे, उसको देता वोट निर्वाचित निष्पक्ष हो, अगर नहीं तो खोट
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सब वीराने किलों में, गूँज रही है आह।
अगिन गोलियाँ घुट मरीं, किसे रही परवाह?
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जनता की गर्दन दबा, करिए टैक्स वसूल।
जनप्रतिनिधि-अफसर पलें, मतदाता को भूल।।
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छोटे कर्जेदार की, खींच लीजिए खाल।
बड़े-बड़ों को भगाकर, करिए रोज बबाल।।
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काँटे बोने से नहीं, महका करते फूल।
कुर्सी पाकर सत्य यह, भूलें नहीं हुजूर।।
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खेल मौज अभिनय नहीं, हर पाते हैं भूख। भूख मिटाते जो वही, मरे जा रहे सूख।।
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नौकरशाहों के मिले, नेताओं से हाथ।
दल कोई हो रहेगा, सबसे ऊँचा माथ।।
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श्रमिक कृषक शिक्षक त्रयी, उत्पादन आधार।
यंत्री-डॉक्टर जरूरी, बाकी केवल भार।।
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