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शुक्रवार, 2 अगस्त 2013

kabeer aur kamaal : doha ka dhamal


दोहा संसार के राजपथ से जनपथ तक जिस दोहाकार के चरण चिह्न अमर तथा अमिट हैं, वह हैं कबीर ( संवत १४५५ - संवत १५७५ )। कबीर के दोहे इतने सरल कि अनपढ़ इन्सान भी सरलता से बूझ ले, साथ ही इतने कठिन की दिग्गज से दिग्गज विद्वान् भी न समझ पाये। हिंदू कर्मकांड और मुस्लिम फिरकापरस्ती का निडरता से विरोध करने वाले कबीर निर्गुण भावधारा के गृहस्थ संत थे। कबीर वाणी का संग्रह बीजक है जिसमें रमैनी, सबद और साखी हैं।


एक बार सद्‍गुरु रामानंद के शिष्य कबीरदास सत्संग की चाह में अपने ज्येष्ठ गुरुभाई रैदास के पास पहुँचे। रैदास अपनी कुटिया के बाहर पेड़ की छाँह में चमड़ा पका रहे थे। उन्होंने कबीर के लिए निकट ही पीढ़ा बिछा दिया और चमड़ा पकाने का कार्य करते-करते बातचीत प्रारंभ कर दी। कुछ देर बाद कबीर को प्यास लगी। उन्होंने रैदास से पानी माँगा। रैदास उठकर जाते तो चमड़ा खराब हो जाता, न जाते तो कबीर प्यासे रह जाते... उन्होंने आव देखा न ताव समीप रखा लोटा उठाया और चमड़ा पकाने की हंडी में भरे पानी में डुबाया, भरा और पीने के लिए कबीर को दे दिया। कबीर यह देखकर भौंचक्के रह गये किन्तु रैदास के प्रति आदर और संकोच के कारण कुछ कह नहीं सके। उन्हें चमड़े का पानी पीने में हिचक हुई, न पीते तो रैदास के नाराज होने का भय... कबीर ने हाथों की अंजुरी बनाकर होठों के नीचे न लगाकर ठुड्डी के नीचे लगाली तथा पानी को मुँह में न जाने दिया। पानी अंगरखे की बाँह में समा गया, बाँह लाल हो गयी। कुछ देर बाद रैदास से बिदा लकर  कबीर घर वापिस लौट गये और अंगरखा उतारकर अपनी पत्नी लोई को दे दिया। लोई भोजन पकाने में व्यस्त थी, उसने अपनी पुत्री कमाली को वह अंगरखा धोने के लिए कहा। अंगरखा धोते समय कमाली ने देखा उसकी बाँह  लाल थी... उसने देख कि लाल रंग छूट नहीं रहा है तो उसने मुँह से चूस-चूस कर सारा लाल रंग निकाल दिया... इससे उसका गला लाल हो गया। तत्पश्चात कमाली मायके से बिदा होकर अपनी ससुराल चली गयी।

कुछ दिनों के बाद गुरु रामानंद तथा कबीर का काबुल-पेशावर जाने का कार्यक्रम बना। दोनों परा विद्या (उड़ने की कला) में निष्णात थे। मार्ग में कबीर-पुत्री कमाली की ससुराल थी। कबीर के अनुरोध पर गुरु ने कमाली के घर रुकने की सहमति दे दी। वे अचानक कमाली के घर पहुँचे तो उन्हें घर के आँगन में दो खाटों पर स्वच्छ गद्दे-तकिये तथा दो बाजोट-गद्दी लगे मिले। समीप ही हाथ-मुँह धोने के लिए बाल्टी में ताज़ा-ठंडा पानी रखा था। यही नहीं उन्होंने कमाली को हाथ में लोटा लिये हाथ-मुँह धुलाने के लिए तत्पर पाया। कबीर यह देखकर अचंभित रह गये ककि  हाथ-मुँह धुलाने के तुंरत बाद कमाली गरमागरम खाना परोसकर ले आयी।

भोजन कर गुरु आराम फरमाने लगे तो मौका देखकर कबीर ने कमाली से पूछा कि उसे कैसे पता चला कि वे दोनों आने वाले हैं? वह बिना किसी सूचना के उनके स्वागत के लिए तैयार कैसे थी? कमाली ने बताया कि रंगा लगा कुरता चूस-चूसकर साफ़ करने के बाद अब उसे भावी घटनाओं का आभास हो जाता है। तब कबीर समझ सके कि उस दिन गुरुभाई रैदास उन्हें कितनी बड़ी सिद्धि बिना बताये दे रहे थे तथा वे नादानी में वंचित रह गये।

कमाली के घर से वापिस लौटने के कुछ दिन बाद कबीर पुनः रैदास के पास गये... प्यास लगी तो पानी माँगा... इस बार रैदास ने कुटिया में जाकर स्वच्छ लोटे में पानी लाकर दिया तो कबीर बोल पड़े कि पानी तो यहाँ कुण्डी में ही भरा था, वही दे देते। तब रैदास ने एक दोहा कहा-
जब पाया पीया नहीं, था मन में अभिमान.
अब पछताए होत क्या नीर गया मुल्तान.



कबीर ने इस घटना अब सबक सीखकर अपने अहम् को तिलांजलि दे दी तथा मन में अन्तर्निहित प्रेम-कस्तूरी की गंध पाकर ढाई आखर की दुनिया में मस्त हो गये और दोहा को साखी का रूप देकर भव-मुक्ति की राह बताई -

कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूंढें बन माँहि .
ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाँहि.

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संत कबीरदास जी से तो हर हिन्दीभाषी परिचित है. कबीर की साखियाँ सभी ने पढी हैं. कबीर पशे से जुलाहे थे किन्तु उनकी आध्यात्मिक ऊँचाई के कारण मीरांबाई जैसी राजरानी भी उन्हें अपना गुरु मानती थीं. जन्मना श्रेष्ठता, वर्णभेद तथा व्द्द्वाता पर घमंड करनेवाले पंडित तथा मौलाना उन्हें चुनौतियाँ देते रहते तथा मुँह की खाकर लौट जाते. ऐसे ही एक प्रकांड विद्वान् थे पद्मनाभ शास्त्री जी.
उन्होंने कबीर को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा तथा कबीर को नीचा दिखने के लिए उनकी शिक्षा-दीक्षा पर प्रश्न किया. कबीर ने बिना किसी झिझक के सत्य कहा-

चारिहु जुग महात्म्य ते, कहि के जनायो नाथ.
मसि-कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ.

अर्थात स्वयं ईश्वर ने उन्हें चारों युगों की महत्ता से अवगत कराया और शिक्षा दी. उन्होंने न तो स्याही-कागज को छुआ ही, न ही हाथ में कभी कलम ली.

पंडित जी ने सोच की कबीर ने खुद ही अनपढ़ होना स्वीकार लिया सो वे जीत गए किन्तु कबीर ने पंडितजी से पूछा कि उन्होंने जो ज्ञान अर्जित किया है वह पढ़कर समझा या समझकर पढ़ा?

पंडित जी चकरा गए, तुंरत उत्तर न दे सके तो दो दिन का समय माँगा लेकिन दो दिन बाद भी उत्तर न सूझा तो कबीर से समझकर पढ़नेवाले तथा पढ़कर समझनेवाले लोगों का नाम पूछा ताकि वे दोनों का अंतर समझ सकें. कबीर ने कहा- प्रहलाद, शुकदेव आदि ने पहले समझा बाद में पढ़ा जबकि युधिष्ठिर ने पहले पढ़ा और बाद में समझा. पंडित जी ने उत्तर की गूढता पर ध्यान दिया तो समझे कि कबीर सांसारिक ज्ञान की नहीं परम सत्य के ज्ञान की बात कर रहे थे. यह समझते ही वे अपना अहम् छोड़कर कबीर के शिष्य हो गए.
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 1. माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे।
एक दिन ऐसा आएगा,मैं रोंदुगी तोहे।।
कबीर कहते हैं कि माटी कुम्हार से कहती है कि तू मुझे बर्तन बनाने के लिए रोंदता है। परन्तु तू यह सत्य भूल जाता है कि एक दिन तू मुझ में ही मिल जाएगी। तब मैं तुझे इसी तरह से रोंदूगी। अर्थात हर मनुष्य को मरने के पश्चात मिट्टी में ही मिलना होता है।
2. चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए।।
कबीर कहते हैं कि वह चक्की को देखकर दुखी होकर रोने लगते हैं। क्योंकि मनुष्य चक्की के समान मोह-माया के बंधनों में पीस जाता है। इस तरह से पिसी हुआ मनुष्य कभी सदगति को प्राप्त नहीं होता और दुखी होता हुआ मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।
3. बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय।।
कबीर कहते हैं कि मैं संसार के लोगों में बुराई खोजने निकला था। परन्तु जब मैंने अपने अंदर झाँकना आरंभ किया, तो मुझे इस संसार में अपने से बुरा और कोई नहीं मिला। अर्थात् दूसरों की बुराई करने से पहले स्वयं के ह्दय में देखना चाहिए हमें पता चल जाएगा कि हम स्वयं भी बुराई से सने पड़े हैं।
4. माया मरी ना मन मरा, मर मर गये शरीर,
आशा त्रिश्ना ना मरी, कह गये दास कबीर।
कबीर कहते हैं कि कवि का मन और माया कभी नहीं मरते हैं। अर्थात् मन उसे विषय वासनाओं में भटकता है और माया उसे भ्रमित करती हैं। इन दोनों के नियंत्रण में मनुष्य युगों से बंधा रहा है। शरीर मर जाते हैं परन्तु मनुष्य की त्रिशंना कभी नहीं मरती है।
5. दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे ना कोये
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे होये।
कबीर के अनुसार मनुष्य जब दुखी होते हैं, तो भगवान को याद करते हैं। वह उसे याद करके रोते हैं। परन्तु जैसे ही दुख समाप्त हो जाता है और सुख आ जाता है, तो वह उसी ईश्वर को याद करना भूल जाते हैं। कबीर कहते हैं, जो मनुष्य सुख में ही प्रभू को याद करना आरंभ कर दें, तो उन्हें कभी दुख सता नहीं सकता है।
कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूंढें बन माँहि .
ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाँहि.


कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर.
पाछो लागे हरि फिरे, कहत कबीर-कबीर.


काल करे सो आज कर, आज करे सो अब्ब.
पल में परलय होयेगी, बहुरि करैगो कब्ब.

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर.
पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर.



दोहा करे कमाल 

कबीर जुलाहा थे। वे जितना सूत कातते, कपडा बुनते उसे बेचकर परिवार पालते लेकिन माल बिकने पर मिले पैसे में से साधु सेवा करने के  बाद बचे पैसों से घर के लिए सामान खरीदते. सामान कम होने से गृहस्थी चलाने में माँ लोई को परेशान होते देखकर कमाल को कष्ट होता। लोई के मना करने पर भी कबीर 'यह दुनिया माया की गठरी' मान कर 'आया खाली हाथ तू, जाना खाली हाथ' के पथ पर चलते रहे। 'ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया' कहने से बच्चों की थाली में रोटी तो नहीं आती। अंतत: लोई ने कमाल को कपड़ा बेचने बाज़ार भेजा। कमाल ने कबीर के कहने के बाद भी साधुओं को दान नहीं दिया तथा पूरे पैसों से घर का सामान खरीद लिया। कमाल की भर्त्सना करते हुए कबीर ने कहा-


बूडा वंश कबीर का, उपजा पूत कमाल।
हरि का सुमिरन छाँड़ि कै, भरि लै आया माल।।

चलती चाकी  देखकर, दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में, साबित बचा न कोय।।
कमाल कबीर की दृष्टि में भले ही खरा न रहा हो पर था तो कबीर का ही पूत... बहुत सुनने के बाद उसके मुँह से भी एक दोहा निकल पड़ा-
 
चलती चाकी देखकर , दिया कमाल ठिठोंय।
जो कीली से लग रहा, मार सका नहीं कोय।।

कबीर यह गूढ़ दोहा सुनकर अवाक रह गए और बोले की तू
कहने को कह गया लेकिन कितनी बड़ी बात कह गया तुझे खुद नहीं पता।

कबीर-कमाल के इन दोहों के दो अर्थ हैं। एक सामान्य- कबीर ने कहा कि चलती हुई चक्की को देखकर उन्हें रोना आता है कि दो पाटों के घूमते रहने से उनके बीच सब दाने पिस गये कोई साबित नहीं बचा। कमाल ने उत्तर दिया कि चलती हुई चक्की देखकर उसे हँसी आ रही है क्योंकि जो दाना बीच की कीली से चिपक गया उसे पाट चलते रहने पर भी कोई हानि नहीं पहुँच सके, वे दाने बच गये।

इन दोहों का गूढ़ अर्थ समझने योग्य है- 
कबीर ने दूसरे दोहे में कहा ' इस संसार रूपी चक्की को चलता देखकर कबीर रो रहा है क्योंकि स्वार्थ और परमार्थ के दो पाटों के बीच में सब जीव नष्ट हो रहे हैं, कोई भी बच नहीं पा रहा।

कमाल ने उत्तर में कहा- संसार रूपी चक्की को चलता देखकर कमाल हँस रहा है क्योंकि जो जीव ब्रम्ह रूपी कीली से लग गया उसका सांसारिक भव-बाधा कुछ नहीं बिगाड़ सकी। उसकी आत्मा पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त होकर ब्रम्ह में लीन हो गयी।

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फूल सूखकर झर हुए, बिलख शाख से दूर।
रहा आखिरी सांस तक काँटा संग हुजूर।।
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खून जलाया ढेर सा, देख फूल पर फूल।
खून बूँद भर देखकर, तड़प उठा है शूल।।     

2 टिप्‍पणियां:

Prithvi Singh ने कहा…

बहुत अच्छी बातें बतायी आपने। बहुत बहुत धनयवाद आपका।

Unknown ने कहा…
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