कुंडली
संजीव
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कविता शारद वंदना, करती कवि को शुद्ध
संजीव
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कविता शारद वंदना, करती कवि को शुद्ध
गुटबन्दी जो कर रहे, वे हैं परम प्रबुद्ध
वे हैं परम प्रबुद्ध, न अपना दोष देखते
परदोषों को बढ़ा-चढ़ाकर रहे लेखते
सलिल न गहता पंक, अमल हो पूजे सविता
कमल देख आनंद मिले, मन रचता कविता
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वाद-विवाद न व्यर्थ कर, कहें खेद- हों मौन.
साथ समय के प्रगट हो, सही-गलत है कौन?
सही-गलत है कौन?, जानकार क्या पाएंगे
सही-गलत है कौन?, जानकार क्या पाएंगे
वही पढ़ेगा समय काव्य जो रच जायेंगे
मन से मन का मेल, जब हो तब हो संवाद
मन न मिले तो मौन हो, रोकें व्यर्थ विवाद
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नव अंकुर को जो नहीं, दे सकता जो आशीष
उसकी बगिया उजड़ती, झुकता उसका शीश
कल की छाया में पले, कल की हों हम छाँह
दुनिया बिस्राती जिसे उसकी थामें बाँह
खुद की खातिर जी लेता, हर कागा-कूकुर
महके उसका बाग़, उगाता जो नव अंकुर *
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