भाषा विविधा:
दोहा सलिला सिरायकी :
संजीव
[सिरायकी पाकिस्तान और पंजाब के कुछ क्षेत्रों में बोले जानेवाली लोकभाषा है. सिरायकी का उद्गम पैशाची-प्राकृत-कैकई से हुआ है. इसे लहंदा, पश्चिमी पंजाबी, जटकी, हिन्दकी आदि भी कहा गया है. सिरायकी की मूल लिपि लिंडा है. मुल्तानी, बहावलपुरी तथा थली इससे मिलती-जुलती बोलियाँ हैं. सिरायकी में दोहा छंद अब तक मेरे देखने में नहीं आया है. मेरे इस प्रथम प्रयास में त्रुटियाँ होना स्वाभाविक है. जानकार पाठकों से त्रुटियाँ इंगित करने तथा सुधार हेतु सहायता का अनुरोध है.]
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बुरी आदतां दुखों कूँ, नष्ट करेंदे ईश।
साडे स्वामी तुवाडे, बख्तें वे आशीष।।
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रोज़ करन्दे हन दुआ, तेडा-मेडा भूल।
अज सुणीज गई हे दुआं,त्रया-पंज दा भूल।।
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दुक्खां कूँ कर दूर प्रभु, जग दे रचनाकार।
डेवणवाले देवता, वरण जोग करतार।।
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कोई करे तां क्या करे, हे बदलाव असूल।
कायम हे उम्मीद पे, दुनिया कर के भूल।।
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शर्त मुहाणां जीत ग्या, नदी-किनारा हार।
लेणें कू धिक्कार हे, देणे कूँ जैकार।।
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शहंशाह हे रियाया, सपणें हुण साकार।
राजा ते हे बणेंदी, जनता ते हुंकार।।
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गिरगिट वांगण मिन्ट विच, मणुज बदलदा रंग।
डूरंगी हे रवायत, ज्यूं लोहे नूँ जंग।।
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हब्बो जीवण सफल हे, घटगा गर अलगाव।
खुली हवा आजाद हे, देश- न हो भटकाव।।
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सिद्धे-सुच्चे मिलण दे, जीवन-पथ आसान।
खुदगर्जी दी भावणा, त्याग सुधर इंसान ।।
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8 टिप्पणियां:
Kusum Vir via yahoogroups.com
आदरणीय आचार्य जी,
वर्षा शर्मा ' रैनी ' जी के दोहे बहुत अच्छे लगे l
आपका बहुत आभार l
सादर,
कुसुम वीर
akpathak317@yahoo.co.in via yahoogroups.com
आ0 सलिल जी
आप का प्रयास स्तुत्य और शोधपरक है
आप के ’दोहा’-विधा को पुनर्जीवित करने का प्रयास सराहनीय है
बधाई स्वीकार करें
सादर
आनन्द पाठक,जयपुर
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Kusum Vir via yahoogroups.com
परम आदरणीय आचार्य जी,
सिरायकी लोकभाषा में दोहा लिखने के आपके
सर्वोत्कृष्ट प्रयास की जितनी भी सराहना की जाए उतनी कम है l
आपकी अपार काव्य शक्ति प्रतिभा को शत - शत नमन l
सादर,
कुसुम वीर
कुसुम जी
धन्यवाद.
दोहा यात्रा में आपका सहभागी होना उत्साहवर्धन करता है. आपसे कुछ अधिक दोहे कुछ अधिक जल्दी-जल्दी मिलें तो मुझे अधिक आनंद आयेगा ।
आनंद जी
आपका आभार शत-शत. माँ शारदा की प्रेरणा से विविध मंचों पर शताधिक युवक अपनी पूर्ण ऊर्जा से काव्य की विविध विधाओं में सृजनरत हैं, उनसे मुझे भी सतत सृजन की प्रेरणा मिलती है.
Shriprakash Shukla via yahoogroups.com
आदरणीय आचार्य जी,
आपका दोहा विधा पर शोध कार्य अति उत्तम है I दोहा एक ऐसा छंद है जो हर कोई थोड़े से प्रयास से सृजन कर सकता है और ग़ज़ल के एक अशआर की तरह गागर में सागर भरने की क्षमता रखता है I आप अपने कार्य में निश्चिंतता से जुटे रहें I नीरज जी की कुछ पंक्तियाँ इसी तरह का सन्देश देती हुयी याद आगयीं I
मत फिकर करो दुनियाँ की थोथी (?) बातों की,
न्यायाधीश समय निर्णय कर देगा स्वयं एक दिन
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल
I am pleasantly surprised to read your Saryaki Dohe.
Incidentally this is my mother tongue and we still use in
our generation in India.
How come you have written these Dohas? Do you have any Saryaki connection?
warm regards,
Surender
आदरणीय
वन्दे मातरम
मेरा अनुमान सही निकला। आप, प्राण शर्मा जी, अहलुवालिया जी आदि सरायकी की जानकारी रखते होंगे। मुझे सरायकी पढ़ने का अवसर २ पत्रिकाओं में मिला। देश में प्रचलित सभी भाषाएँ / बोलियाँ देवनागरी में लिखी जाएँ तो उन्हें बोलनेवाले एक-दूसरे को समझ सकेंगे तथा इससे भाषिक और राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी। गाँधी जी के इस विचार का अनुकरण करते हुए बालकोचित प्रयास करता रहा हूँ. खड़ी हिंदी के साथ बुन्देली, बघेली, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, बृज, अवधी, मैथिली, राजस्थानी, मालवी और निमाड़ी में रचनाये करने के बाद सरायकी में लिखते समय बहुत संकोच है कि मुझे इसका कोई साहित्य नहीं मिला।
नम्र निवेदन है कि कृपया बताएं की सरायकी में दोहा लिखने की परंपरा है या नहीं? हो तो कुछ दोहे अवश्य भेजें ताकि उनका अध्ययन कर सीख सकूं। न हो तो इन दोहों को देखकर मार्गदर्शन करें कि कहाँ-क्या सुधारा जाए? मेरा प्रयास शुद्ध सरायकी के स्थान पर सरायकी-हिंदी के मिले-जुले रूप को अपनाने का है ताकि हिंदी पाठक समझ सके. आपके पत्र से संबल मिला, धन्यवाद।अब तो आपकी सरायकी रचनाओं की प्रतीक्षा रहेगी।
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