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शब्द
-- विजय निकोर
शब्द
-- विजय निकोर
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कहे और अनकहे के बीच बिछे
अवशेष कुछ शब्द हैं केवल,
शब्द भी जैसे हैं नहीं,
ओस से टपकते शब्द
दिन चढ़ते ही प्रतिदिन
वाष्प बन उढ़ जाते हैं
और मैं सोचता हूँ... मैं
आज क्या कहूँगा तुमसे ?
अनगिनत भाव-शून्य शब्द
इस अनमोल रिश्ते की धरोहर,
व्याकुल प्रश्न, अर्थ भी व्याकुल,
मिथ्या शब्दों की मिथ्या अभिव्यक्ति,
एक ही पुराने रिश्ते से रिसता
रोज़- रोज़ का एक और नया दर्द
बहता नहीं है, बर्फ़-सा
जमा रह जाता है।
फिर भी कुछ और मासूम शब्द
जाने किस तलाश में चले आते हैं
उन शब्दों में ढूँढता हूँ मैं तुमको
और वर्तमान को भूल जाता हूँ।
तुम्हारी उपस्थिति में हर बार
यह शब्द नि:शब्द हो जाते हैं
और मैं कुछ भी कह नहीं पाता
शब्द उदास लौट आते हैं।
तुम्हारी आकृति यूँ ही ख़्यालों में
हर बार, ठहर कर, खो जाती है,
और मैं भावहीन मूक खड़ा
अपने शब्दों की संज्ञा में उलझा
ठिठुरता रह जाता हूँ।
ऐसे में यह मौन शब्द
असंख्य असंगतियों से घिरे
मुझको संभ्रमित छोड़ जाते हैं।
इन उदासीन, असमर्थ, व्याकुल
शब्दों की व्यथा
भीतर उतर आती है,
सिमट रहा कुछ और अँधेरा
बाकी रात में घुल जाता है,
और उसमें तुम्हारी आकृति की
एक और असाध्य खोज में
यह शब्द छटपटाते हैं ...
तुमसे कुछ कहने को, वह
जो मैं आज तक कह न सका।
हाँ, तुमसे कुछ सुनने की
कुछ कहने की जिज्ञासा
अभी भी उसी पुल पर
हर रोज़ इंतजार करती है।
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