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सोमवार, 1 जून 2020

मुक्तिका

मुक्तिका:
जंगल काटे...
संजीव
'सलिल'
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जंगल काटे, पर्वत खोदे, बिना नदी के घाट रहे हैं.
अंतर में अंतर पाले वे अंतर्मन-सम्राट रहे हैं?.
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जननायक जनगण के शोषक, लोकतंत्र के भाग्य-विधाता.
निज वेतन-भत्ता बढ़वाकर अर्थ-व्यवस्था चाट रहे हैं..
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सत्य-सनातन मूल्य, पुरातन संस्कृति की अब बात मत करो.
नव विकास के प्रस्तोता मिल इसे बताते. हाट रहे हैं..
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मखमल के कालीन मिले या मलमल के कुरते दोनों में
अधुनातनता के अनुयायी बस पैबन्दी टाट रहे हैं..
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पट्टी बाँधे गांधारी सी, न्याय-व्यवस्था निज आँखों पर.
धृतराष्ट्री हैं न्यायमूर्तियाँ, अधिवक्तागण भाट रहे हैं..
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राजमार्ग निज-हित के चौड़े, जन-हित की पगडंडी सँकरी.
जात-पाँत के ढाबे-सम्मुख ऊँच-नीच के खाट रहे हैं..
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'सेवा से मेवा' ठुकराकर 'मेवा हित सेवा' के पथ पर
पग रखनेवाले सेवक ही नेता-साहिब लाट रहे हैं..
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मिथ्या मान-प्रतिष्ठा की दे रहे दुहाई बैठ खाप में
'सलिल' अत्त के सभी सयाने मिल अपनी जड़ काट रहे हैं..
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हाट = बाज़ार, भारत की न्याय व्यवस्था की प्रतीक मूर्ति की आँखों पर
पट्टी चढी है, लाट साहिब = बड़े अफसर, खाप = पंचायत, जन न्यायालय, अत्त के
सयाने = हद से अधिक होशियार = व्यंगार्थ वास्तव में मूर्ख.
१-६-२०१०

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