कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

दोहा सलिला: दोहों की दीपावली, अलंकार के संग..... संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:                                                                        

दोहों की दीपावली, अलंकार के संग.....

संजीव 'सलिल'
*
दोहों की दीपावली, अलंकार के संग.
बिम्ब भाव रस कथ्य के, पंचतत्व नवरंग..
*
दिया दिया लेकिन नहीं, दी बाती औ' तेल.
तोड़ न उजियारा सका, अंधकार की जेल..   -यमक
*
गृहलक्ष्मी का रूप तज, हुई पटाखा नार.     -अपन्हुति
लोग पटाखा खरीदें, तो क्यों हो  बेजार?.    -यमक,
*
मुस्कानों की फुलझड़ी, मदिर नयन के बाण.  -अपन्हुति
जला फुलझड़ी चलाती, प्रिय कैसे हो तरण?.   -यमक
*
दीप जले या धरा पर, तारे जुड़े अनेक.
तम की कारा काटने, जाग्रत किये विवेक..      -संदेह
*
गृहलक्ष्मी का रूप लख, मैया आतीं याद.
वही करधनी चाबियाँ, परंपरा मर्याद..            -स्मरण
*
मानो नभ से आ गये, तारे भू पर आज.          -भ्रांतिमान 
लगे चाँद सा प्रियामुख, दिल पर करता राज..  -उपमा
*
दीप-दीप्ति दीपित द्युति, दीपशिखा दो देख. -वृत्यानुप्रास
जला पतंगा जान दी, पर न हुआ कुछ लेख.. -छेकानुप्रास
*
दिननाथ ने शुचि साँझ को, फिर प्रीत का उपहार.
दीपक दिया जो झलक रवि की, ले हरे अंधियार.. -श्रुत्यानुप्रास
अन्त्यानुप्रास हर दोहे के समपदांत में स्वयमेव होता है.
*
लक्ष्मी को लक्ष्मी मिली, नर-नारायण दूर.  -लाटानुप्रास
जो जन ऐसा देखते, आँखें रहते सूर..      
*
घर-घर में आनंद है, द्वार-द्वार पर हर्ष.      -पुनरुक्तिप्रकाश
प्रभु दीवाली ही रहे, वर दो पूरे वर्ष..
*
दीप जला ज्योतित हुए, अंतर्मन गृह-द्वार.   -श्लेष
चेहरे-चेहरे पर 'सलिल', आया नवल निखार..
*
रमा उमा से पूछतीं, भिक्षुक है किस द्वार?
उमा कहें बलि-द्वार पर, पहुंचा रहा गुहार..   -श्लेष वक्रोक्ति 
*
रमा रमा में मन मगर, रमा न देतीं दर्श.
रमा रमा में मन मगर, रमा न देतीं दर्श?  - काकु वक्रोक्ति 
*
मिले सुनार सुनार से, अलंकार के साथ.
चिंता की रेखाएँ शत, हैं स्वामी के माथ..  -पुनरुक्तवदाभास  

******************



14 टिप्‍पणियां:

- drdeepti25@yahoo.co.in ने कहा…

दोहा गुरु!
निशि-दिन इतनी अधिक साहित्य सेवा सेवा के लिए आपको नमन !
सादर,
दीप्ति

Navin C. Chaturvedi ✆ ने कहा…

आ. सलिलजी
सादर प्रणाम

मैंने ये दोहे आपके ब्लॉग से लिए हैं. सब से पहले हम इन्हें लय के अनुसार बैठा कर देखते हैं.
यदि मेरे समझने में ग़लती हो तो मुझे बताने की कृपा करें प्लीज

दोहों की दीपावली, अलंकार के संग.
बिम्ब भाव रस कथ्य के, पंचतत्व नवरंग..

दिया दिया लेकिन नहीं, दी बाती औ' तेल.
तोड़ न उजियारा सका, अंधकार की जेल.. -यमक

मैं इसे यूँ कहना चाहूँगा:-

उजियारा - कैसे मिटे - अन्धकार की जेल
दिया - दिया, पर ना दिया, बाती के सँग तेल

यहाँ पहली पंक्ति में 'कैसे मिटे' अपने अगल- बगलवाले दोनों कथ्यों से जुड़ा हुआ है इस क्रिया का कोइ साहित्यिक नाम है अवश्य जो फिलहाल मुझे याद नहीं आ रहा

पहली पंक्ति में स्रोत / पाठक के सामने प्रश्न उपस्थित हो गया दूसरी में समाधान
*
गृहलक्ष्मी का रूप तज, हुई पटाखा नार.-अपन्हुति
लोग पटाखा खरीदें, तो क्यों हो बेजार? -यमक
इस दोहे के सन्दर्भ में दो बातें
पहली- दोहे के तीसरे चरण के अंत में दो गुरु ? सही है?
और अभिव्यक्ति वो नहीं बन पा रही जो श्रोता पाठक तक पहुँचते ही वाह वाह वाली बात पैदा करे
[मैं क्षमा प्रार्थी हूँ]

मैं शायद यूँ कहता

बम्ब पटाखे ढूँढता, जा जा कर बाज़ार
फिर काहे चिल्लाय जब, हुई पटाखा नार

स्पष्ट वादिता के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ, और निवेदन करता हूँ एक बार पुन: देखें, और यदि मेरे समझने में ही ग़लती है तो मुझे समझायें

sanjiv 'salil' ने कहा…

नवीन जी !
एक ही बात को भिन्न-भिन्न तरीकों से कहना ही रचनाकार का वैशिष्ट्य होता है.
आपके द्वारा किये गये परिवर्तनों से आपकी शैली सामने आ गयी है.
अमरे कहने का तरीका भिन्न है.
उजियारा - कैसे मिटे? -यहाँ दिशा भ्रम है.
दीप बाला जाता है अँधियारा मिटाने के लिये, उजियारा कैसे मिटे? यह विचार का विषय है ही नहीं.
काहे, चिल्लाय आदि शब्द खड़ी हिंदी में काव्य दोष कहे जायेंगे.
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

http://divyanarmada.blogspot.com

sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavita ने कहा…

आ० आचार्य जी,
दोहों में अलंकारों के प्रयोग का सोदाहरण वर्णन पढ़ कर आपकी विद्वता और व्याकरणीय परिपक्वता को नमन |
चौथे दोहे में तरण के स्थान पर शायद त्राण हो |
रमा रमा में मन मगर रमा न देती दर्श
वाले दोहे में दोनों पंक्तियाँ एकसी है |
क्या एक
पंक्ति का अंतिम शब्द हर्ष है ?
सादर
कमल

sanjiv 'salil' ने कहा…

चौथे दोहे में 'तरण' नहीं 'त्राण' ही है.
रमा रमा में मन मगर रमा न देती दर्श वाले दोहे में दोनों पंक्तियाँ एक सी जान-बूझकर हैं.
द्वितीय पंक्ति में प्रश्न चिन्ह से ही भिन्नार्थ अभिव्यक्त है.

santosh bhauwala ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavita ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी,
आपके अद्भुत दोहों को नमन !!!
सादर संतोष भाऊवाला

- drdeepti25@yahoo.co.in ने कहा…

अवश्य ! अपनी क्षमतानुसार कोशिश करेगें, हमारे लिखे में कहीं संशोधन अपेक्षित हो, तो आप रहनुमाई कीजिएगा !

Mukesh Srivastava ✆ ने कहा…

mukku41@yahoo.com ekavita

आचार्य जी,
सारी पंक्तिया आपकी गरीमा, ज्ञान और विद्वता के अनुरूप ही है,
एक बार पुनः नमन -

मुकेश इलाहाबादी

dks poet ✆ dkspoet@yahoo.com ekavita ने कहा…

आदरणीय सलिल जी
वर्तमान में दोहा सम्राट की उपाधि के योग्य आप ही हैं। बधाई स्वीकार करें।
सादर

धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’

Divya Narmada ने कहा…

यह तो आपका औदार्य है... मैं स्वयं को विद्यार्थी के रूप में ही देख पाता हूँ. साहित्य सलिला के किनारे अँजुरी भर जल से ही तृप्त हूँ. धार में उतरने का साहस ही नहीं होता.

asheesh yadav ने कहा…

आशीष यादव
October 30, 2011 at 9:34pm

आदरणीय आचार्य जी,
अलंकारों से सुसज्जित तमाम दोहें बहुत ही अच्छे लगे|
कृपया मुझे अपन्हुति, पुनरुक्तवदाभास ewam काकु वक्रोक्ति अलंकार के बारे जानकारी दें|
एक बात जरा स्पष्ट करे की इस पंक्ति में कौन सा अलंकार है,
मानो नभ से आ गये, तारे भू पर आज. -भ्रांतिमान (ये आप ने लिखा है)
लेकिन मुझे यहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार प्रतीत हो रहा है| शंका का उचित समाधान करें|
आप का शिष्य
आशीष यादव

sanjiv salil ने कहा…

sanjiv verma 'salil'
अपन्हुति, पुनरुक्तवदाभास ewam काकु वक्रोक्ति अलंकार के बारे जानकारी दें|
अपन्हुति : जब उपमेय का निषेध के उपमान का होना कहा जाए.
सुधा सुधा प्यारे नहीं, सुधा अहै सत्संग.
अमृत अमृत नहीं है, सत्संग ही अमृत है.
पुनरुक्तवदाभास : जब अर्थ की पुनरुक्ति दिखाई देने पर भी पुनरुक्ति न हो.
दुलहा बना वसंत, बनी दुल्हन मन भायी.
एक बात जरा स्पष्ट करे की इस पंक्ति में कौन सा अलंकार है,
मानो नभ से आ गये, तारे भू पर आज. -भ्रांतिमान (ये आप ने लिखा है)
लेकिन मुझे यहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार प्रतीत हो रहा है| शंका का उचित समाधान करें|

उत्प्रेक्षा : जब एक वस्तु को दूसरी वस्तु मान लिया जाए.
नेत्र मानो कमल हैं.
वही शब्द फिर-फिर फिरे, अर्थ और ही और.
सो यमकालंकार है, भेद अनेकन ठौर..
रचना के सम्बन्ध में पाठक तभी पूछता है जब वह रचना से कहीं न कहीं जुड़ता है. आपके प्रश्न मेरे लिये पुरस्कार के समान हैं.
निम्न दोहों की प्रथम और द्वितीय पंक्तियों में कही गई बातों के बीच कोई तारतम्य ढूँढने में मैं असफल रहा. थोड़ा प्रकाश डालिए तो समझ सकूँ ---

तेज हुई तलवार से, अधिक कलम की धार.
धार सलिल की देखिये, हाथ थाम पतवार..
यहाँ तलवार, कलम तथा पानी की धार की तेजी की चर्चा है कि तलवार की धार से कलम (शब्द) की धार अधिक तेज होती है जबकि पानी की धार की तेजी पतवार से ही अनुमानी जा सकती है. धार शब्द का प्रयोग तलवार की धार, शब्द की मारक शक्ति तथा पानी के बहाव के तेजी के विविधार्थों में किया गया है.
चित कर विजयी हो हँसा, मल्ल जीत कर दाँव.
चित हरि-चरणों में लगा, तरा मिली हरि छाँव..
इस दोहे में 'चित' शब्द के दो अर्थों सीधा पटकना तथा चित्त का प्रयोग है. पहलवान दाँव का सफल प्रयोग कर स्पर्धी को चित पटक कर जीत गया किन्तु भव के पार तो तब जा सका जब प्रभु चरणों में चित लगाया.

खा ले व्यंजन गप्प से, बेपर गप्प न छोड़.
तोड़ नहीं वादा 'सलिल', ले सब जग से होड़..
गप्प=झट से, जल्दी से, झूठी बात.
धो-खा पर धोखा न खा, सदा सजग रह मीत.
डग-मग डग मग पर रहें, कर मंजिल से प्रीत..
यहाँ धोखा तथा डग मग को दो अर्थों में प्रयोग किया गया है.
कली छोड़कर फूल से, करता भँवरा प्रीत.
देख बे-कली कली की, बे-अकली तज मीत..
यहाँ कली और फूल के सामान्य अर्थ तो हैं ही, पुत्री और पुत्र के विशिष्टार्थ भी हैं. यहाँ समासोक्ति अलंकार है. कली की एकाधिक आवृत्ति एक अर्थ में होने से यमक भी है.
इन दोहों में दोनों पंक्तियाँ किसी एक प्रसंग से जुड़ी नहीं हैं.
अलंकारों के प्रयोग में दोनों पंक्तियों का एक प्रसंग से जुड़ा होना अनिवार्य होना मेरी जानकारी में नहीं है.

इस पंक्ति में --
धो-खा पर धोखा न खा, सदा सजग रह मीत..... धोकर खाने और धोखा खाने में कोई सामंजस्य नहीं लग रहा है. या फिर आप कुछ और कहना चाहते हैं ?

इस दोहे की दूसरी पंक्ति का अर्थ नहीं समझ पा रहा हूँ--

सज न, सजन को सजा दे, सजा न पायें यार.

बरबस बरस न बरसने, दें दिलवर पर प्यार.. मुख्यतः "बरस" के प्रयोग का अर्थ नहीं समझ में आ रहा है.

आपसे सविनय निवेदन है कि उक्त पर प्रकाश डालें तो मैं भी दोहों का आनंद ले सकूँ.
इस पंक्ति में --
धो-खा पर धोखा न खा, सदा सजग रह मीत..... धोकर खाने और धोखा खाने में कोई सामंजस्य नहीं लग रहा है. या फिर आप कुछ और कहना चाहते हैं ?

इस दोहे की दूसरी पंक्ति का अर्थ नहीं समझ पा रहा हूँ--

आशीष यादव ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी,
आज आपसे से बहुत कुछ सिखने को मिला| आपने बहुत सारी शंकाओं का समाधान कर दिया|


मानो नभ से आ गये, तारे भू पर आज.


मुझे अभी भी इसमें का अलंकार समझ में नहीं आ रहा है|

प्रणाम

sanjiv salil ने कहा…

आपकी रूचि स्वागतेय है.
भ्रांतिमान: जब सादृश्य के कारण उपमेय में उपमान का भ्रम हो अर्थात उपमेय को भूल से उपमान मान लिया जाए. यहाँ निश्चय है.
पेशी समझ माणिक्य को वह विहग देखो ले चला.

उत्प्रेक्षा : जब एक वस्तु को दूसरी वस्तु मान लिया जाए या एक वस्तु में दूसरी वस्तु की सम्भावना की जाए. यहाँ अनिश्चय है.
नेत्र मानो कमल हैं. उत्प्रेक्षा की पहचान वाचक शब्द मनो, मनु, मनहुँ, जनु, सा, जैसा आदि .

मानो नभ से आ गये, तारे भू पर आज.
मुझे यहाँ निश्चय की प्रतीति हुई इसलिए मैंने भ्रांतिमान अलंकर की उपस्थिति का नुमन किया.

इस सन्दर्भ में अन्य पाठकों के मत मिलें तो चर्चा रोचक और उपयोगी होगी.