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रविवार, 23 अक्तूबर 2011

दोहा सलिला: गले मिले दोहा यमक- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:

गले मिले दोहा यमक-

संजीव 'सलिल'
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ना-ना को हाँ-हाँ समझ, नाना करते खेल.
अश्रु बहाकर डालती, नातन नाक नकेल..
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भाव-अभाव न सह सके, कविता घटता चाव.
भाव पहुँच में हो 'सलिल', होता तभी निभाव..
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ताव दिखाकर डालते, क्यों प्रिय! आप प्रभाव?
ताव फटे पल में 'सलिल', सह नहिं सके तनाव..
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मनभावन पाऊँ कुँवर, विनय कर रही कौर.
मुँह में पाऊँ स्वाद नव, जब संग खाऊँ कौर..
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बुरा बौराकर रहे, बार-बार क्यों खीझ?
गौर हाथ न आ रहीं, मन व्याकुल है रीझ..
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अनगढ़ से गढ़ता रहा, नवाकार करतार.
कुम्भकार कर जोड़ता, दैव! दया कर तार..
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आते ही हरतालिका, करती हैं उपवास.
जाँच रहीं हर तालिका, होकर श्रमित उदास..
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भाग एक के चार कर, तब हो रोटी पाव.
बिन बोले चुप चाव से, खाले रोटी-पाव..
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हाव-भाव से ही 'सलिल', अभिनय हो सम्प्राण.
हाव-हाव मत कर लगे, जग=जीवन निष्प्राण..
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माँग भरो की माँग सुन, रहे कुँवारे भाग.
पीछा करें कुमारियाँ, परख सकें अनुराग..
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पर में भर ताकत उड़ो, पर का कर दो त्याग.
हिकमत पर कर भरोसा, पर से कह दो भाग..
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