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शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

दशहरा और कवि दरबार

दशहरा और कवि दरबार 
१. रावण का पुतला                                                           --सन्तोष कुमार सिंह
*
ज्यों ही राम ने, रावण के पुतले में तीर मारा।
पुतला हँसा, फिर दहाड़ा।
बोला, ओ वनवासी राम।
छोड़ दो, मुझे प्रतिवर्ष, संहारने वाले काम।।
मैं मानता हूँ, पहले तुम बहुत बलवान थे।
हम भी वीर थे, ऊँचे अरमान थे।।
तुम्हारा भाई लक्ष्मन, वफादार था।
किन्तु मेरा भाई विभीषण, गद्दार था।।
इसीलिए तुम्हारे हाथों तब, मैंने मौत पाई थी।
या यूँ कहो, घर के भेदी ने ही, लंका ढहाई थी।।
लेकिन आज पासा उल्टा हो गया है।
सोने की लंका का सोना देखकर,
हर लक्ष्मन मेरे पक्ष में हो गया है।।
 
एक बात और,
पहले मै एक था, आज हैं हजारों रावण।
अत्याचारी, भ्रष्टाचारी, तो कोई बलात्कारी रावण।।
हर नगर मे, हर ठाँव में।
हर शहर में, हर गाँव में।
यहाँ तक कि, संसद और विधानसभाओं में भी,
मुखोंटों के अन्दर रावण पा जाओगे।
तुम अकेले रह गये हो राम,
किस-किस रावण को मार पाओगे?
 
मैं तो पुतला हूँ।
कितने भी तीर मार कर शेखी बघारो।
मैं तो तब ही वीर मानूँगा,
जब किसी जीवित रावण में भी एक तीर मारो।।
 
मन में गदगद राम, बिलबिला गए।
सच्चाई के धरातल पर आ गए।।
किन्तु उन्होंने बदला नहीं इरादा।
तुरन्त ही अपना लक्ष्य साधा।।
रावण का पुतला हो गया ढेर।
वनवासी फिर से हो गया शेर।।
अन्त में राम की प्रतिमूर्ति ने कहा,
तेरे जैसे रावणों के, 
जब-जब बढ़ेंगे आसुरी काम।
तब-तब संहारने आयेंगे, 
मेरे जैसे राम, मेरे जैसे राम------
*
२. मेले की थी रेलम-पेल
महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश

*  
मेले की थी रेलम-पेल
हमने देखा अद्भुत खेल

जब रघुवर ने मारा तीर
रावण बोला हो गंभीर

मैं तो हूँ केवल पुतला
पाओगे क्या मुझे जला

कहते खुद को बहुत बली
अन्याय पर विजय मिली

रावण फिरते आज अनेक
मार सके न कोई एक

सिर्फ़ दशानन था तब मैं
सहस्रानन हूँ अब मैं

कोई करता चोरी है
कोई रिश्वतखोरी है

कोई चारा खाता है
कोई नोट बनाता है

कोई चीर हरण करता
कोई काला धन भरता

सब मेरे ही भाई हैं
मुझसे आतताई हैं

इनको मारो तो जानूँ
राम ख़लिश फिर मैं मानूँ.

प्रेरणा—
संतोष कुमार जी की कविता—“रावण का पुतला”:

ज्यों ही राम ने, रावण के पुतले में तीर मारा।
पुतला हँसा, फिर दहाड़ा।
बोला, वनवासी राम।
छोड़ दो, मुझे प्रतिवर्ष, संहारने वाले काम।।
*
३. रावण रहेगा सर्वदा.
 प्रताप सिंह
*                                                                                                       
 
रावण कभी भी तो न मारा जा सका
बस गात ही खंडित हुआ था  
वाण से श्रीराम के.
वह प्रतिष्ठत है युगों से मनुज के भीतर,  
सदा पोषित हुआ 
आहार, जल पाकर
निरंकुश  कामनाओं,  इन्द्रियों का.
 
राम कोई चाप लेकर
खड़ा भी होता अगर है 
लक्ष्य सारा-  
मारना रावण सदा ही दूसरे का. 
स्वयं का रावण विहँसता 
खड़ा अट्टहास करता, दसो मुख से  
सहम जाता राम 
धन्वा छूट जाती  है करों से.     
 
यत्न सारा   
विफल होता ही रहा
संहार का दससीस के.  
बस प्रतीकों पर चलाकर वाण  
है अर्जित किया उल्लास के कुछ क्षण मनुज ने.
 
किन्तु जब तक राम सबके 
उठ खड़े होते नहीं संहार को
प्रथम अपने ही दशानन के,
सतत उठती रहेगी गूँज अट्टहास की, 
सहमते यूँ ही रहेंगे राम
विहँसता रावण रहेगा सर्वदा.  
*

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