आंच पर हाइकु

हरीश प्रकाश गुप्त के हाइकु
-- करण समस्तीपुरी
हाइकु हिंदी साहित्य में अभिनव आयातित पद्य विधा है। यह जापान से बरास्ते अंग्रेजी भारत आयी है। हाइकु का उद्गम स्थल जापान है। जापान में सतरहवी शताब्दी में 5-7-5 नाद वाले तीन पंक्तियों की कविता लिखने का प्रचलन हुआ। आरंभिक अवस्था में इसके प्रथम चरण में प्राकृतिक सौंदर्य/घटना या ऋतु-वर्णन होता था और अंत में उसे किसी सामजिक सन्दर्भ से जोड़ दिया जाता था। जापानी हाइकु की एक विशेषता यह थी कि यह सामान्य क्षैतिज पंक्ति में न होकर तीन उदग्र रेखाओं में लिखा जाता था। आशु-कविता की यह शैली हैकाई कहलाती थी। हैकाई का बहु-वचन होक्कू शब्द-विकास के दौर से गुजर कर कालांतर में हाइकु हो गया।
हाइकु की खोज करने का श्रेय मासाओका शिकी को जाता है। उन्नीसवी शताब्दी में उन्होंने ही सर्वप्रथम इसे हाइकु की संज्ञा दी थी और इसे विश्व साहित्य धरातल पर प्रतीष्ठित करने का श्रेय प्रसिद्द जापानी कवि बासोहो को है। अंग्रेजी में वर्ड्सवर्थ सरीखे कवियों ने हाइकु पर कलम चलाई है तो भारतीय साहित्य में हाइकु को प्रतिष्ठा दिलाई कवीन्द्र रवीन्द्र नाथ टैगोर ने।
गागर में सागर भर लाना हाइकु की मूल-भूत विशेषता है फिर भी यह विधा हिंदी साहित्य में वह स्थान नहीं बना पायी है, जिसकी यह अधिकारी है। शायद हिंदी साहित्य अभी भी प्रबंध के मोह से नहीं निकल पाया है।
वर्तमान हिंदी हाइकुकारों में चर्चित श्री हरि प्रकाश गुप्त की हाइकु कुछ रचनाओं की चर्चा करें. प्रथम हाइकु है:
भरा उदधि
हुआ मधु विस्फोट
फूटी कविता ।
हुआ मधु विस्फोट
फूटी कविता ।
सागर का उदर जब भर जाता है तो इसमें ज्वालामुखी विस्फोट (सुनामी) होता है और फिर एक नया सृजन। उसी प्रकार हृदय में भावनाओं के आवेग से मधु (आनंददायी) विस्फोट होता है जिस से कविता रूपी लावा का जन्म होता है। वर्डस्वर्थ ने भी कहा है, "Poetry is the spontenious overflow of powerfull minds." इसमें कविता के निर्माण प्रक्रिया को समुद्र के ज्वालामुखी-विस्फोट से जोड़ कर कवि ने हाइकु के स्वाभावगत धर्म का पालन भी किया है। हालांकि दो विपरीत प्रकृति और प्रभाव वाले उपमा और उपमानो को कवि ने बहुत ही सहजता और सुन्दरता के साथ जोड़ा है।
दूसरा हाइकु है,
उतर गई
अन्तस में, नैनन
पढ़ कविता ।
पढ़ कविता ।
काव्य के प्रभाव का इन तीन पंक्तियों से विशद वर्णन क्या होगा ? कविता वह जो मन की ऑंखें खोल दे। वेद के 'तमसो मा ज्योतिर्गमय....' का प्रथम सोपान। काव्यानंद अंतर्मन को उजियार कर देता है।
एक और हाइकु है,
रात निठल्ली
सोई, दिन ने थक
बेबस ढोई ।
इसमें कवि ने वर्ग-भेद को उजागर किया है।
गली-गली में
घूमा, ठहरा, सोचा
लेकिन कहाँ ?
इस हाइकु में कवि चलायमान जीवन की नश्वरता का संकेत किया है, तो
गली में शाम
नुक्कड़ में रोशनी
मीना बाजार ।
गुप्तजी के हाइकु शल्यगत सौन्दर्य से परिपूर्ण और गहन अर्थ से आप्लावित हैं। किसी भी पद में मात्र-दोष नहीं है। इन पदों की एक और खासियत यह कि यह एक दूसरे से बिलकुल स्वतंत्र हैं।नुक्कड़ में रोशनी
मीना बाजार ।
उपर्युक्त हाइकु में कवि ने स्थान-भेद अथवा दृष्टि भेद से एक ही बात के अलग-अलग मायने बताया है। गली में जब शाम होती है तो नुक्कर पर बत्ती जल जाती है। वहाँ छिट-पुट रौशनी हो जाती है और ऐश्वर्या और विलासिता का प्रतीक मीना बाज़ार गुलजार हो जाता है। वक़्त एक ही है पुनश्च यह अंतर उस स्थान विशेष की हैसियत से आता है।
हाइकू-- हरीश प्रकाश गुप्त
भरा उदधि
हुआ मधु विस्फोट
फूटी कविता ।
उतर गई
अन्तस में, नैनन
पढ़ कविता ।
मेरी कविता
मेरे मन का गीत
सुर संगीत
रात निठल्ली
सोई, दिन ने थक
बेबस ढोई ।
अचल बिंदु
के इर्द-गिर्द घूम
रहा बेसुध ।
गली-गली में
घूमा, ठहरा, सोचा
लेकिन कहॉं?
कुत्ता ले भागा
रोटी, नुक्कड़ वाले
भिखमंगे की ।
दरक गया
शीशे-सा जब देखा-
सच, सपना।
शीशे में देखा
चेहरा, अपना या
कुछ उनका ।
गली में शाम
नुक्कड़ में रोशनी
मीना बाजार ।
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