मुक्तिका
देखो
संजीव 'सलिल'
*
रात के गर्भसे, सूरज को उगा कर देखो.
प्यास प्यासे की 'सलिल' आज बुझा कर देखो.
हौसलों को कभी आफत में पजा कर देखो.
मुश्किलें आयें तो आदाब बजा कर देखो..
मंजिलें चूमने कदमों को खुद ही आयेंगी.
आबलों से कभी पैरों को सजा कर देखो..
दौलते-दिल को लुटा देंगे विहँस पल भर में.
नाजो-अंदाज़ से जो आज लजा कर देखो..
बात दिल की करी पूरी तो किया क्या तुमने.
गैर की बात 'सलिल' खुद की रजा कर देखो..
बंदगी क्या है ये दुनिया न बता पायेगी.
जिंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो.
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देखो
संजीव 'सलिल'
*
रात के गर्भसे, सूरज को उगा कर देखो.
प्यास प्यासे की 'सलिल' आज बुझा कर देखो.
हौसलों को कभी आफत में पजा कर देखो.
मुश्किलें आयें तो आदाब बजा कर देखो..
मंजिलें चूमने कदमों को खुद ही आयेंगी.
आबलों से कभी पैरों को सजा कर देखो..
दौलते-दिल को लुटा देंगे विहँस पल भर में.
नाजो-अंदाज़ से जो आज लजा कर देखो..
बात दिल की करी पूरी तो किया क्या तुमने.
गैर की बात 'सलिल' खुद की रजा कर देखो..
बंदगी क्या है ये दुनिया न बता पायेगी.
जिंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो.
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23 टिप्पणियां:
आदरणीय सलिलजी,
आपकी प्रस्तुत मुक्तिका के बंद इतर की बात करते दीख रहे हैं. जिस वातावरण का निर्माण हो रहा है उसमें आपके शब्द और पाठक के मध्य दूसरा कोई नहीं दीखता.
पहला बंद ही मुग्धकारी है. रात के गर्भ से सूरज का उगना पढ़ने भर से मनस-पटल में घूम जाता है महा-शून्य के गर्भ-अंतर में ऊर्जा का तड़ितवत् कंपित होना और उसका कालबद्ध रुपांतरण होना, यानि इस ब्रह्मांड के चलायमान होने का मूल ! और प्रकृति का विस्तार .. प्यासे को तृप्ति की प्रक्रिया ! वाह-वाह !! क्या कथ्यात्मकता है !
मुश्किलें आयें तो आदाब बजा कर देखो -- क्या अंदाज है !
दौलते-दिल को लुटा देंगे विहँस पल भर में.
नाजो-अंदाज़ से जो आज लजा कर देखो..
-- स्मित-स्मित-सुन्दर मुखारविन्द.. :-))))
गैर की बात 'सलिल' खुद की रजा कर देखो.. सही है..
आखिरी बंद का फ़लसफ़ा तो ठीक उसी स्वर में खुलता दीख रहा है जिस स्वर में रैदास से लेकर कबीर से लेकर रहीम से लेकर सभी सूफियानी कलमों ने कहा है.
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति. सादर...
सौरभ जी!
आपने मुक्तिका की आरम्भिका की द्विपदी की सार्थक सम्यक समीक्षा कर इसकी भाव-भूमि सभी के लिये सुलभ करदी... आभार.
आप जैसे सुहृदय पाठक को पाना सौभाग्य की बात है.
सादर ..
मूलतः तो मैं पाठक ही हूँ आचार्यजी. रचनाकर्म की धृष्टता तो मैं आप सभी के सानिध्य में आ करने लगा हूँ.. :-)))
सौरभ जी!
मूलतः हर पाठक एक रचनाकार भी होता है... आपकी अध्यवसाय वृत्ति, निरंतर सीखने और सिखाने की ललक असाधारण है. आपका रचना कर्म पूरी गंभीरता और ईमानदारी से किया गया अनुष्ठान है जिसकी सफलता असंदिग्ध है.
आदरणीय,
किन्तु मैं तो कहूँगा कि मूलतः हर पाठक हृदय से भावुक होता है. पाठ्य-रचनाओं की भावनाओं के अनुरूप उनके संसार में उतरता और विचरता है.
किन्तु, रचनाकार होना भावुकता से आगे संप्रेषणीय़ता के मानकों पर उतरना भी हुआ करता है न. अन्यथा आदिशिव को अनवरत साधना करने की और शब्द को मात्रिक अवलियाँ देने हेतु प्रयासों की आवश्यकता ही क्या थी ? अक्षर ब्रह्म ही तो हैं. ब्रह्म कभी कार्मिक भी होता है क्या? यह तो प्रकृति (शक्ति) का हुआ आवश्यक प्रयास ही होता है जिसके कारण अक्षर प्रभावी बनते हैं. यह प्रकृति ही न रचनाकारों को उद्वेलित कर प्रयासरत कराती है.
अब संचित-कर्म के अनुसार रचनाकारों की जैसी ग्राह्यता होती है वैसा ही या अपनी समझ के अनुसार उससे आगे का वे प्रारब्धिक प्रयास करते हैं. कुछ छिछले में उछलते-कूदते हैं और कुछ गहरे में पैठ लम्बी-लम्बी पौरते हैं. :-)
शायद में तथ्य साझा कर पाया. सादर...
पढ़कर कोई भी मंत्रमुग्ध हो सकता है ............. बस यही कह सकता हूँ .........
अनुपम ......... अतुलनीय ........ नमन आचार्य जी
आदरणीय सलिल जी
प्रणाम !
बहुत अच्छी रचना है आपकी …
बधाई !
आपकी गुणग्राहकता को नमन.
योगराज प्रभाकर
बेहतरीन प्रस्तुति आचार्य सलिल जी, पढ़कर दिल को सुकून पहुँचा ! साधुवाद स्वीकारें मान्यवर !
योगराज जी!
आपको रचना रुची तो मेरा लेखन सार्थक हो गया.
Arvind Chaudhari
क्या बात है आदरणीय सलिल जी !
ख़ूबसूरत ग़ज़ल....
मंजिलें चूमने कदमों को खुद ही आयेंगी.
आबलों से कभी पैरों को सजा कर देखो..
आपकी रचना का यह सब से उत्तम शेअर है, बधाई स्वीकार करें.
रवि भाई!
आपकी गुणग्राहकता को नमन.
बंदगी क्या है ये दुनिया न बता पायेगी.
जिंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो.
वाह !
बहुत ही खुबसूरत मुक्तिका, ग़ज़ल के लिहाज़ से मकता अंतिम शेर के रूप में आता है, बधाई आचार्य जी इस खुबसूरत प्रस्तुति हेतु |
बागी जी!
बहुत-बहुत धन्यवाद.
Ambarish Srivastava
//बंदगी क्या है ये दुनिया न बता पायेगी.
जिंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो.//
धन्य आचार्य जी दे दी है यहाँ प्यारी ग़ज़ल,
भाव अनमोल भरे दिल में बसा कर देखो.
आदरणीय आचार्य जी !
इस अमूल्य मुक्तिका के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें !
अम्बरीश जी!
आप जैसे सुधी पाठक को पाकर रचना और रचनाकार दोनों धन्यता अनुभव करते हैं.
Ambarish Srivastava
आपका हार्दिक स्वागत है ! सादर :
धर्मेन्द्र कुमार सिंह
हर अश’आर आपके जीवनानुभव से परिपूर्ण है। बधाई कम है इस ग़ज़ल के लिए, नमन स्वीकार कीजिए
आपके औदार्य के प्रति नतमस्तक हूँ.
Sanjay Mishra 'Habib'
आनंद है आपकी यह पेशकश आद सलील सर,
रात के गर्भ से सूरज उगाना.... वाह वाह ...
मुश्किल पड़ने पर आदाब बजाना... सचमुच मुश्किलें आसान कर देती हैं....:))
शानदार पेशकश के लिए सादर बधाई स्वीकारें...
Rajendra Swarnkar
एक और गौहर !
जय हो आचार्य सलिल जी !
siyasachdev
खुबसूरत ग़ज़ल के दिली मुबारकवाद
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