एक कविता:
बाजे श्वासों का संतूर.....
संजीव 'सलिल'
*
मन से मन हिलमिल खिल पायें, बाजे श्वासों का संतूर..
सारस्वत आराधन करते, जुडें अपरिचित जो हैं दूर.
*
कहते, सुनते, पढ़ते, गुनते, लिखते पाते हम संतोष.
इससे ही होता समृद्ध है, मानव मूल्यों का चिर कोष...
*
मूल्यांकन करते सहधर्मी, टीप लिखें या रहकर मौन.
लिखें न कुछ तो मनोभावना, किसकी कैसी जाने कौन?
*
लेखन नहीं परीक्षा, होना सफल नहीं मजबूरी है.
अक्षर आराधन उपासना, यह विश्वास जरूरी है..
*
हर रचना कुछ सिखला जाती, मूल्यांकक होता निज मन.
शब्दब्रम्ह के दर्शन होते, लगे सफल है अब जीवन..
*
अपना सुख ही प्रेरक होता, कहते हैं कवि तुलसीदास.
सधे सभी का हित, करता है केवल यह साहित्य प्रयास..
*
सत-शिव-सुंदर रहे समाहित, जिसमें वह साहित्य अमर.
क्यों आवश्यक हो कि तुरत ही, देखे रचनाकार असर..
*
काम करें निष्काम, कराता जो वह आगे फ़िक्र करे.
भाये, न भाये जिसे मौन हो, या सक्रिय हो ज़िक्र करे..
*
सरिता में जल आ बह जाता, कितना कब वह क्या जाने?
क्यों अपना पुरुषार्थ समझकर, नाहक अपना धन माने??
*
यंत्र मात्र हर रचनाधर्मी, व्यक्त कराता खुद को शब्द.
बिना प्रेरणा रचनाधर्मी, हमने पाया सदा निशब्द..
*
माया करती भ्रमित जानते हम, बाकी अनजान लगे.
नहीं व्यक्त करते जो उनके, भी मन होते प्रेम-पगे..
*
जड़ में भी चेतना बसी है, घट-घट में व्यापे हैं राम.
कहें कौन सा दुख ऐसा है, जिसमें नहीं रमे सुखधाम??
*
देह अदेह विदेह हो सके, जिसको सुन वह लेखन धन्य.
समय जिलाता मात्र उसीको, जो होता सर्वथा अनन्य..
*
चिर नवीन ही पुरा-पुरातन, अचल सचल हो मचल सके.
कंकर में शंकर लख मनुआ, पढ़ जिसको हो कमल सखे..
*
घटाकाश या बिंदु-सिंधु के बिम्ब-प्रतीक कहें जागो.
शंकाओं को मिल सुलझाओ, अनजाने से मत भागो..
राम हराम विराम न हो, अभिरान और अविराम रहे.
'सलिल' साथ जब रहे सिया भी, तभी पिया गुणग्राम रहे..
*
माया-छाया अगर निरर्थक तो विधि उनको रचना क्यों?
अगर सार्थक हर आराधक, कहें दूर हो बचता क्यों??
*
दीप्ति तभी देता है दीपक, तले पले जब अँधियारा.
राख आवरण ओढ़ बैठता, सबने देखा अंगारा..
*
सृजन स्वसुख से सदा साधता, सर्व सुखों का लक्ष्य सखे.
सत-चित-आनंद पाना-देना, मानक कवि ने 'सलिल' रखे..
*
नभ भू सागर की यात्रा में, मेघ धार आगार 'सलिल'.
निराकार-साकार अनल है, शेष जगत-व्यापार अनिल..
*
बाजे श्वासों का संतूर.....
संजीव 'सलिल'
*
मन से मन हिलमिल खिल पायें, बाजे श्वासों का संतूर..
सारस्वत आराधन करते, जुडें अपरिचित जो हैं दूर.
*
कहते, सुनते, पढ़ते, गुनते, लिखते पाते हम संतोष.
इससे ही होता समृद्ध है, मानव मूल्यों का चिर कोष...
*
मूल्यांकन करते सहधर्मी, टीप लिखें या रहकर मौन.
लिखें न कुछ तो मनोभावना, किसकी कैसी जाने कौन?
*
लेखन नहीं परीक्षा, होना सफल नहीं मजबूरी है.
अक्षर आराधन उपासना, यह विश्वास जरूरी है..
*
हर रचना कुछ सिखला जाती, मूल्यांकक होता निज मन.
शब्दब्रम्ह के दर्शन होते, लगे सफल है अब जीवन..
*
अपना सुख ही प्रेरक होता, कहते हैं कवि तुलसीदास.
सधे सभी का हित, करता है केवल यह साहित्य प्रयास..
*
सत-शिव-सुंदर रहे समाहित, जिसमें वह साहित्य अमर.
क्यों आवश्यक हो कि तुरत ही, देखे रचनाकार असर..
*
काम करें निष्काम, कराता जो वह आगे फ़िक्र करे.
भाये, न भाये जिसे मौन हो, या सक्रिय हो ज़िक्र करे..
*
सरिता में जल आ बह जाता, कितना कब वह क्या जाने?
क्यों अपना पुरुषार्थ समझकर, नाहक अपना धन माने??
*
यंत्र मात्र हर रचनाधर्मी, व्यक्त कराता खुद को शब्द.
बिना प्रेरणा रचनाधर्मी, हमने पाया सदा निशब्द..
*
माया करती भ्रमित जानते हम, बाकी अनजान लगे.
नहीं व्यक्त करते जो उनके, भी मन होते प्रेम-पगे..
*
जड़ में भी चेतना बसी है, घट-घट में व्यापे हैं राम.
कहें कौन सा दुख ऐसा है, जिसमें नहीं रमे सुखधाम??
*
देह अदेह विदेह हो सके, जिसको सुन वह लेखन धन्य.
समय जिलाता मात्र उसीको, जो होता सर्वथा अनन्य..
*
चिर नवीन ही पुरा-पुरातन, अचल सचल हो मचल सके.
कंकर में शंकर लख मनुआ, पढ़ जिसको हो कमल सखे..
*
घटाकाश या बिंदु-सिंधु के बिम्ब-प्रतीक कहें जागो.
शंकाओं को मिल सुलझाओ, अनजाने से मत भागो..
राम हराम विराम न हो, अभिरान और अविराम रहे.
'सलिल' साथ जब रहे सिया भी, तभी पिया गुणग्राम रहे..
*
माया-छाया अगर निरर्थक तो विधि उनको रचना क्यों?
अगर सार्थक हर आराधक, कहें दूर हो बचता क्यों??
*
दीप्ति तभी देता है दीपक, तले पले जब अँधियारा.
राख आवरण ओढ़ बैठता, सबने देखा अंगारा..
*
सृजन स्वसुख से सदा साधता, सर्व सुखों का लक्ष्य सखे.
सत-चित-आनंद पाना-देना, मानक कवि ने 'सलिल' रखे..
*
नभ भू सागर की यात्रा में, मेघ धार आगार 'सलिल'.
निराकार-साकार अनल है, शेष जगत-व्यापार अनिल..
*
7 टिप्पणियां:
आ०सलिल जी,
अच्छी रचना...बधाई!
सादर--"आरसी"
आ० संजीव जी,
अति सुन्दर कविता के लिए बधाई
विजय निकोर
आदरणीय आचार्य जी
मोहक रचना ! हर मुक्तक सुन्दर !
सादर
प्रताप
आदरणीय आचार्य जी ,
यथार्थ का अति सुन्दर प्रयोग
शब्द हर मन पर छोड़ें छाप
नमन मेरा स्वीकार हो जाय
लेखन की कला जानते आप
लेखन नहीं परीक्षा, होना सफल नहीं मजबूरी है.
अक्षर आराधन उपासना, यह विश्वास जरूरी है..
अचल वर्मा
माया-छाया अगर निरर्थक तो विधि उनको रचना क्यों?
अगर सार्थक हर आराधक, कहें दूर हो बचता क्यों??
आपने रचता लिखना चाहा है ,
शायद ये टंकण त्रुटि ही है , या मैं गलत हूँ ?
अचल वर्मा
सलिल जी,
पढ़ कर दिल में ख़्याल उठा कि--
अगर आप होते न तो मंच शायद
न इतना प्रकाशित, लबेरँग होता
निम्न पद विशेष सुंदर हैं--
हर रचना कुछ सिखला जाती, मूल्यांकक होता निज मन.
शब्दब्रम्ह के दर्शन होते, लगे सफल है अब जीवन..
*
सत-शिव-सुंदर रहे समाहित, जिसमें वह साहित्य अमर.
क्यों आवश्यक हो कि तुरत ही, देखे रचनाकार असर..
*
काम करें निष्काम, कराता जो वह आगे फ़िक्र करे.
भाये, न भाये जिसे मौन हो, या सक्रिय हो ज़िक्र करे..
*
सरिता में जल आ बह जाता, कितना कब वह क्या जाने?
क्यों अपना पुरुषार्थ समझकर, नाहक अपना धन माने??
*
दीप्ति तभी देता है दीपक, तले पले जब अँधियारा.
राख आवरण ओढ़ बैठता, सबने देखा अंगारा..
--ख़लिश
आ० आचार्य जी,
अति सुंदर प्रेरक पद | हर पद उत्कृष्ट विशेषता संजोये है |
विशेष -
लेखन नहीं परीक्षा, होना सफल नहीं मजबूरी है.
अक्षर आराधन उपासना, यह विश्वास जरूरी है..
*
हर रचना कुछ सिखला जाती, मूल्यांकक होता निज मन.
शब्दब्रम्ह के दर्शन होते, लगे सफल है अब जीवन..
साधुवाद,
सादर,
कमल
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