एक रचना:
कम हैं...
--संजीव 'सलिल'
*
जितने रिश्ते बनते कम हैं...
अनगिनती रिश्ते दुनिया में
बनते और बिगड़ते रहते.
कुछ मिल एकाकार हुए तो
कुछ अनजान अकड़ते रहते.
लेकिन सारे के सारे ही
लगे मित्रता के हामी हैं.
कुछ गुमनामी के मारे हैं,
कई प्रतिष्ठित हैं, नामी हैं.
कोई दूर से आँख तरेरे
निकट किसी की ऑंखें नम हैं
जितने रिश्ते बनते कम हैं...
हमराही हमसाथी बनते
मैत्री का पथ अजब-अनोखा
कोई न देता-पाता धोखा
हर रिश्ता लगता है चोखा.
खलिश नहीं नासूर हो सकी
पल में शिकवे दूर हुए हैं.
शब्द-भाव के अनुबंधों से
दूर रहे जो सूर हुए हैं.
मैं-तुम के बंधन को तोड़े
जाग्रत होता रिश्ता 'हम' हैं
जितने रिश्ते बनते कम हैं...
हम सब एक दूजे के पूरक
लगते हैं लेकिन प्रतिद्वंदी.
उड़ते हैं उन्मुक्त गगन में
लगते कभी दुराग्रह-बंदी.
कौन रहा कब एकाकी है?
मन से मन के तार जुड़े हैं.
सत्य यही है अपने घुटने
'सलिल' पेट की ओर मुड़े हैं.
रिश्तों के दीपक के नीचे
अजनबियत के कुछ तम-गम हैं.
जितने रिश्ते बनते कम हैं...
*
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
कम हैं...
--संजीव 'सलिल'
*
जितने रिश्ते बनते कम हैं...
अनगिनती रिश्ते दुनिया में
बनते और बिगड़ते रहते.
कुछ मिल एकाकार हुए तो
कुछ अनजान अकड़ते रहते.
लेकिन सारे के सारे ही
लगे मित्रता के हामी हैं.
कुछ गुमनामी के मारे हैं,
कई प्रतिष्ठित हैं, नामी हैं.
कोई दूर से आँख तरेरे
निकट किसी की ऑंखें नम हैं
जितने रिश्ते बनते कम हैं...
हमराही हमसाथी बनते
मैत्री का पथ अजब-अनोखा
कोई न देता-पाता धोखा
हर रिश्ता लगता है चोखा.
खलिश नहीं नासूर हो सकी
पल में शिकवे दूर हुए हैं.
शब्द-भाव के अनुबंधों से
दूर रहे जो सूर हुए हैं.
मैं-तुम के बंधन को तोड़े
जाग्रत होता रिश्ता 'हम' हैं
जितने रिश्ते बनते कम हैं...
हम सब एक दूजे के पूरक
लगते हैं लेकिन प्रतिद्वंदी.
उड़ते हैं उन्मुक्त गगन में
लगते कभी दुराग्रह-बंदी.
कौन रहा कब एकाकी है?
मन से मन के तार जुड़े हैं.
सत्य यही है अपने घुटने
'सलिल' पेट की ओर मुड़े हैं.
रिश्तों के दीपक के नीचे
अजनबियत के कुछ तम-गम हैं.
जितने रिश्ते बनते कम हैं...
*
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
5 टिप्पणियां:
sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com eChintan ने आपकी पोस्ट " एक रचना: कम हैं... --संजीव 'सलिल' " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
आ० आचार्य जी,
अति सटीक एवम सामयिक |
साधुवाद !
सादर,
कमल
जितने रिश्ते बनते कम हैं.....
आचार्य जी,
रिश्तों की व्याख्या बहुत ही खूबसूरती से किया है आपने, मुझे तो लगता है कि इस विषय पर जितना लिखा जाय वही कम है, एक खुबसूरत गीत का रसास्वादन सुबह सुबह मिला, आभार आपका |
//हम सब एक दूजे के पूरक
लगते हैं लेकिन प्रतिद्वंदी.
उड़ते हैं उन्मुक्त गगन में
लगते कभी दुराग्रह-बंदी.
कौन रहा कब एकाकी है?
मन से मन के तार जुड़े हैं.
सत्य यही है अपने घुटने
'सलिल' पेट की ओर मुड़े हैं.
रिश्तों के दीपक के नीचे
अजनबियत के कुछ तम-गम हैं.//
आदरणीय आचार्य जी!
इस रचना के माध्यम से आज के दौर के रिश्तों की बहुत ही यथार्थपरक व्याख्या की है आपने! इस हेतु कृपया हार्दिक बधाई स्वीकार करें !
सादर:
जिस शांत बहाव से, आचार्यवर, संबंधों की मधुरता और उसके हिलोड़ों को आपने स्वर दिया है उसपर कुछ कहना रचना-स्वर की आवृति को नम करना होगा. इस कविता पर मेरी सादर बधाइयाँ स्वीकारें.
behed khoobsurat shabdo se saji hui behtareen rachna
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