ॐ
मुझमें मैं मरता गया
दोहा शतक
शशि त्यागी
जन्म तिथि व स्थान: २८ मार्च १९५९, नई दिल्ली।
आत्मजा: स्व. श्रीमती जयवती-स्व. श्री उमराव सिंह त्यागी।
जीवन साथी: श्री गिरीश त्यागी।
काव्य गुरु का नाम: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'।
शिक्षा: एम. ए. हिन्दी, बी. एड, गायन प्रभाकर, बोम्बे आर्ट।
संप्रति: अध्यापिका दिल्ली पब्लिक स्कूल, मुरादाबाद।
लेखन विधा: दोहा, कविता, गीतिका , मुक्तक, कविताएँ , हाइकु, पिरामिड, चोका, लेख, साहित्य-ध्वन्यांकन आदि।
प्रकाशित कार्य: साझा संकलन- वर्ण पिरामिड- अथ से इति,शत हाइकुकार -शताब्दी वर्ष, ताँका की महक, अंतर्राष्ट्रीय ई मैगजी़न "प्रयास" कनाडा से प्रकाशित पत्रिका में रचनाएँ।
उपलब्धि: भारत रत्न श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी द्वारा कविता हेतु प्राप्त बधाई पत्र,पिरामिड भूषण,सारस्वत सम्मान, सारस्वत सम्मान, सर्व भाषा" सम्मान, छंद मुक्त श्री, मंच उद्घोषिका, हिन्दी काव्य रत्न"सम्मान, काव्य धारा - काव्य श्री" सम्मान आदि ।
संपर्क: ३८ अमरोहा ग्रीन, जोया मार्ग, अमरोहा २४४२२१ उत्तर प्रदेश।
चलभाष: ९०४५१७२४०२।
ईमेल: shashityagi283@gmail.com
*
कुछ पल सभी बिताइए, जीवन संगी संग।।
सेवा करने के लिए, किसको दें आदेश।।
शशि जी सामान्यत: अमिधा में बात कहती हैं। इसका कारण उनका बाल-शिक्षा से जुड़ाव है। प्रकृति से जुड़े घटनाक्रम को सम्यक बिंब-प्रतीकों के द्वारा व्यक्त करना उनका वैशिष्ट्य है।
धर्म बचने हो गए, गुरु गोविंद सहाय।। ६
पाँचों प्यारों ने गही, हाथों में तलवार।
सिक्ख समर्पण झलकता, धर्म हेतु हर बार।। ७
सदा गवाही दे रहा, जलियाँवाला बाग।
आज़ादी की बलि चढ़ा, देश धर्म अनुराग।। ८
डायर निर्दय दनुज था, अत्याचार अशेष।
सत्य प्रमाणित कर रहे, कारतूस-अवशेष।। ९
आजादी की नींव हैं, त्याग-शौर्य-बलिदान।
आजादी अनमोल है, नौजवान लें जान।।१०
घोर कलयुगी काल में, हीरे-मोती मान।
मनभावन सुख दे सदा, अविकारी संतान।। ११
नोंक-झोंक लगती भली, जीवन साथी-साथ।
इक दूजे को छेड़ते, ले हाथों में हाथ।। १२
हँसी-ठिठोली ही भली, बिखरे हों सब रंग।
कुछ पल सभी बिताइए, जीवन संगी संग।। १३
हँस घर आए अतिथि का, खूब कीजिए मान।
स्नेह-कीर्ति से घर चले, यही लीजिए जान।। १४
जीवन में उल्लास हो, रख मन में विश्वास।
निश्चित ही फल मिलेगा, जिसको जिसकी आस।।१५
अंग-अंग में प्रभु रमा, शुचि गंगा माँ गाय।
नित इनकी सेवा करो, मन कोमल हो जाय।। १६
जून माह घर यों लगे, ज्यों शीतल जल कूप।
तन को शीतलता मिले, मन के हो अनुरूप।। १७
धरती-अंबर डोलते, अंधड़ करता भीत।
घड़ा भरे दुष्कर्म का, फूटे यह है रीत।। १८
पढ़ा-लिखा संतान को, भेज दिया परदेस।
सेवा करने के लिए, किसको दें आदेश।। १९
पढ़-लिखकर उन्नति करे, करे देश हित काम।
क्षेत्र सभी विकसित करे, करे देश का नाम।।२०
पूजा को दो हाथ जुड़, दृग से अश्रु बिखेर।
रीति-नीति जाने बिना, मगन हुए हरि-टेर।।
गाया करती गीत- 'मैं, पूजूँगी निज मात।
दयानंद-बिटिया नहीं, पत्थर पूजूँ तात'।।
माना घूँघट में सहज, छिप जाती है लाज। लुकी-छिपी कलियाँ विहँस, झुक जातीं किस काज।। आभारी प्रभु की सदा, गुरु-दर्शन पा धन्य।
हम लघु गुरु-सानिन्ध्य में, गुरुता गहें अनन्य।।
रह जिनके सत्संग में, लघुता हो न प्रतीत।
वही युग-पुरुष, धन्य हम, शीश झुकाएँ नीति।।
निशि-दिन सुमिरन कीजिए, लीजै हरि का नाम।
हरख-हरख जस गाइए, सुधरें बिगड़े काम।। ३१
विकल प्रतीक्षा कर रहे, अमलतास के पेड़।
कब लाओगे घट भरे, पूछे प्यासी मेड़।। ३२
बिन बरसे मत खींचना, इंद्रधनुष की रेख।
मानव-मन पुलकित हुआ, अंबर मेघा देख।। ३३
रूठे सुजन मनाइए, बढ़े प्रीत दिन-रैन।
तम में दीप जलाइए, भरें ज्ञान से नैन।। ३४
मीठी वाणी जग सुने, मन में लेकर हर्ष।
बचपन में सुन-पढ़-गुने, जो वह दे उत्कर्ष।। ३५
कन्या भ्रूण बचाइए, बेटी घर की शान।
मुख डुबोय जल पी रहा, करके सोच विचार।
मुख से फेन निकालता,सागर तट तक धाय।
गरमी के मौसम भली,लगे यह सूझबूझ।
पानी की पूर्ति करे,खरबूजा तरबूज़।।
हाथ पेड़ को काटते,तब कुल्हाड़ी रोय। आरी कहती पेड़ से,मेरा दोष न कोय।।
ऐसी ज़िंदगी जिए घुल गयी सबाब में,
पीड़ा से भरा हुआ पैमाना आप थे ।
गुनगुना रही ज़मी और गा रहा है जहाँ,
गीत सदा चाहत के गूँजेंगे यहाँ-वहाँ,
आदमी सा आदमी दिखता अब यहाँ नही,
नीरज जीवन संगीत छोड़ गए तुम कहाँ ।
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मुझमें मैं मरता गया
दोहा शतक
शशि त्यागी
जन्म तिथि व स्थान: २८ मार्च १९५९, नई दिल्ली।
आत्मजा: स्व. श्रीमती जयवती-स्व. श्री उमराव सिंह त्यागी।
जीवन साथी: श्री गिरीश त्यागी।
काव्य गुरु का नाम: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'।
शिक्षा: एम. ए. हिन्दी, बी. एड, गायन प्रभाकर, बोम्बे आर्ट।
संप्रति: अध्यापिका दिल्ली पब्लिक स्कूल, मुरादाबाद।
लेखन विधा: दोहा, कविता, गीतिका , मुक्तक, कविताएँ , हाइकु, पिरामिड, चोका, लेख, साहित्य-ध्वन्यांकन आदि।
प्रकाशित कार्य: साझा संकलन- वर्ण पिरामिड- अथ से इति,शत हाइकुकार -शताब्दी वर्ष, ताँका की महक, अंतर्राष्ट्रीय ई मैगजी़न "प्रयास" कनाडा से प्रकाशित पत्रिका में रचनाएँ।
उपलब्धि: भारत रत्न श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी द्वारा कविता हेतु प्राप्त बधाई पत्र,पिरामिड भूषण,सारस्वत सम्मान, सारस्वत सम्मान, सर्व भाषा" सम्मान, छंद मुक्त श्री, मंच उद्घोषिका, हिन्दी काव्य रत्न"सम्मान, काव्य धारा - काव्य श्री" सम्मान आदि ।
संपर्क: ३८ अमरोहा ग्रीन, जोया मार्ग, अमरोहा २४४२२१ उत्तर प्रदेश।
चलभाष: ९०४५१७२४०२।
ईमेल: shashityagi283@gmail.com
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शशि त्यागी जी अध्यापिका और गृह-स्वामिनी है। उनके व्यक्तित्व में विनम्रता, शालीनता, अनुशासन और आदर्श का सम्मिलन होना स्वाभाविक है। उन्हें भली-भांति विदित है कि भारतीय समाज के जीवन मूल्य श्रेष्ठ और अनुकरणीय हैं। भारतीय परिवारों को पश्चिमी शिक्षा प्रणाली द्वारा किये जा रहे मूल्य-ह्रास से बचने के लिए वे परिवारजनों को एक साथ समय बिताने और हँसी-ठिठोली करने का परामर्श ठीक ही देती हैं।
हँसी-ठिठोली ही भली, बिखरे हों सब रंग। कुछ पल सभी बिताइए, जीवन संगी संग।।
केवल भौतिक विकास को सब कुछ मानने की भूल का दुष्परिणाम निम्न दोहे में इंगित है-
पढ़ा-लिखा संतान को, भेज दिया परदेस। सेवा करने के लिए, किसको दें आदेश।।
धन, शिक्षा और शक्ति की अधिष्ठात्री नारी को मानकर उसका और कन्या का पूजन करने के बाद भी भारत में कन्या-भ्रूण हत्या की कुप्रथा है। शशि जी कन्या को सुख-समृद्धि का पर्याय मानकर उसकी रक्षा हेतु आव्हान करती हैं -
कन्या भ्रूण बचाइए, बेटी घर की शान।
घर खुशहाली लाइए, सुख-समृद्धि पहचान।।
सरस-सरल प्रसाद गुण संपन्न भाषा शशि जी का वैशिष्ट्य है। सामयिक विसंगतियों के अन्वेषण और निराकरण के प्रति वे सजग हैं। उर्वरकों का अत्यधिक प्रयोग किये जाने के कारण फसलों में घातक रसायन बढ़ने का उपाय जैविक खाद का उपयोग आवश्यक है-
ज़हरीली फसलें हुईं, भले बढ़ा उत्पाद।
जीवन-रक्षा के लिए, अब दो जैविक खाद।।शशि जी सामान्यत: अमिधा में बात कहती हैं। इसका कारण उनका बाल-शिक्षा से जुड़ाव है। प्रकृति से जुड़े घटनाक्रम को सम्यक बिंब-प्रतीकों के द्वारा व्यक्त करना उनका वैशिष्ट्य है।
दिन मारा-मारा फिरे, रोती दुखिया रात।
ऊषा-संध्या मौन हैं, करें न मन की बात।।
हिंदी पद्य की विविध विधाओं में हाथ आजमा रही शशि जी के दोहे भाषिक प्रवाह संपन्न हैं। लय की समझ उनमें है। उनका शब्द-भण्डार समृद्ध है। उनकी दोहा यात्रा अबाध गति से बढ़कर हिंदी वांग्मय को समृद्ध करेगी।*
मन में तू ही तू रमा, लागी मन में टेर।
मुझमें मैं मरता गया, लगी नहीं कुछ देर।।१
धीरज धारण कीजिए, धर मन में संतोष।
सहसा ही भर सकेगा, जीवन रूपी कोष।।२
सच को धारण कीजिए, सच है ईश समान।
भोले बालक चिन दिए, मुगलों ने ली हाय।
तर जाए भव सिंधु भी, बाकी ईश-विधान।।३
झूठ कभी मत बोलना, झूठ कुकर्म समान।
अपने मन में तोलकर, करना विष का पान।।४
झूठ न मन को सोहता, नहीं झूठ का काम।
कलयुग के बाजार में, बिकता है बिन दाम।।५
धर्म बचने हो गए, गुरु गोविंद सहाय।। ६
पाँचों प्यारों ने गही, हाथों में तलवार।
सिक्ख समर्पण झलकता, धर्म हेतु हर बार।। ७
सदा गवाही दे रहा, जलियाँवाला बाग।
आज़ादी की बलि चढ़ा, देश धर्म अनुराग।। ८
डायर निर्दय दनुज था, अत्याचार अशेष।
सत्य प्रमाणित कर रहे, कारतूस-अवशेष।। ९
आजादी की नींव हैं, त्याग-शौर्य-बलिदान।
आजादी अनमोल है, नौजवान लें जान।।१०
घोर कलयुगी काल में, हीरे-मोती मान।
मनभावन सुख दे सदा, अविकारी संतान।। ११
नोंक-झोंक लगती भली, जीवन साथी-साथ।
इक दूजे को छेड़ते, ले हाथों में हाथ।। १२
हँसी-ठिठोली ही भली, बिखरे हों सब रंग।
कुछ पल सभी बिताइए, जीवन संगी संग।। १३
हँस घर आए अतिथि का, खूब कीजिए मान।
स्नेह-कीर्ति से घर चले, यही लीजिए जान।। १४
जीवन में उल्लास हो, रख मन में विश्वास।
निश्चित ही फल मिलेगा, जिसको जिसकी आस।।१५
अंग-अंग में प्रभु रमा, शुचि गंगा माँ गाय।
नित इनकी सेवा करो, मन कोमल हो जाय।। १६
जून माह घर यों लगे, ज्यों शीतल जल कूप।
तन को शीतलता मिले, मन के हो अनुरूप।। १७
धरती-अंबर डोलते, अंधड़ करता भीत।
घड़ा भरे दुष्कर्म का, फूटे यह है रीत।। १८
पढ़ा-लिखा संतान को, भेज दिया परदेस।
सेवा करने के लिए, किसको दें आदेश।। १९
पढ़-लिखकर उन्नति करे, करे देश हित काम।
क्षेत्र सभी विकसित करे, करे देश का नाम।।२०
पूजा को दो हाथ जुड़, दृग से अश्रु बिखेर।
रीति-नीति जाने बिना, मगन हुए हरि-टेर।।
हवन हुआ घर में सदा, जब तक माँ में श्वास।
मैं आहुति देती रही, पूजा भाव न ख़ास।।
मैं आहुति देती रही, पूजा भाव न ख़ास।।
अंतर्मन में ही किया, मैंने दीप्त चिराग।
सहज-सरल जीवन जिया, सह अनुराग-विराग।।
सहज-सरल जीवन जिया, सह अनुराग-विराग।।
कष्ट सहे हँसकर नगर, कभी न मानी हार।
माथ टिकाया चाह बिन, नहीं किसी दर-द्वार।।
जो पाया झेला विहँस, मन ने चुप रह आप। मात-पिता-गुरुवर चरण, पा मिटा आप सब ताप।।
मन की मन में ही रखी, सच्ची-सीधी बात।
बचपन में माँ थी गुरु, ज्यों दीपक में बात।।माथ टिकाया चाह बिन, नहीं किसी दर-द्वार।।
जो पाया झेला विहँस, मन ने चुप रह आप। मात-पिता-गुरुवर चरण, पा मिटा आप सब ताप।।
गाया करती गीत- 'मैं, पूजूँगी निज मात।
दयानंद-बिटिया नहीं, पत्थर पूजूँ तात'।।
माना घूँघट में सहज, छिप जाती है लाज। लुकी-छिपी कलियाँ विहँस, झुक जातीं किस काज।। आभारी प्रभु की सदा, गुरु-दर्शन पा धन्य।
हम लघु गुरु-सानिन्ध्य में, गुरुता गहें अनन्य।।
रह जिनके सत्संग में, लघुता हो न प्रतीत।
वही युग-पुरुष, धन्य हम, शीश झुकाएँ नीति।।
निशि-दिन सुमिरन कीजिए, लीजै हरि का नाम।
हरख-हरख जस गाइए, सुधरें बिगड़े काम।। ३१
विकल प्रतीक्षा कर रहे, अमलतास के पेड़।
कब लाओगे घट भरे, पूछे प्यासी मेड़।। ३२
बिन बरसे मत खींचना, इंद्रधनुष की रेख।
मानव-मन पुलकित हुआ, अंबर मेघा देख।। ३३
रूठे सुजन मनाइए, बढ़े प्रीत दिन-रैन।
तम में दीप जलाइए, भरें ज्ञान से नैन।। ३४
मीठी वाणी जग सुने, मन में लेकर हर्ष।
बचपन में सुन-पढ़-गुने, जो वह दे उत्कर्ष।। ३५
कन्या भ्रूण बचाइए, बेटी घर की शान।
घर खुशहाली लाइए, सुख-समृद्धि पहचान।। ३६
सुत-वधु होतीं सुता सम, इनको दो सम्मान।
सेतु मानिए देहरी, करें नहीं अपमान।।३७
बेटी को माता-पिता, दें अधिकाधिक मान।
देस पराये आ गयी, रखी पल-पल ध्यान।।३८
मुगलों ने घूँघट दिया, शिक्षा का कर नाश।
पढ़ी-लिखी नारी हुई, अनपढ़ सत्यानाश।।३९
झाँसी-रानी ने रखा, घूँघट कोसों दूर।
घर-घर दुर्गा चाहिए, नहीं चाहिए हूर।।४०
लंबा घूँघट काढ़ के, नैना रही तरेर ।
ले चल बाहर घुमाने, अगर चाहता खैर।।४१
कपटी को क्या देखता, अपने मन को देख।
कपट न मन पर छा सके, खींच लक्ष्मण रेख।।४२
मानव करता क्रोध जब, बुद्धि तुरत हो भ्रष्ट।
साध न पाता मनुज यदि, खुद को खुद दे कष्ट।।४३
नया जमाना आ गया, नारी करती काम।
नव युग में छा रहा है, अब नारी का नाम।।४४
दिन मारा-मारा फिरे, रोती दुखिया रात।
ऊषा-संध्या मौन हैं, करें न मन की बात।।४५
इकलौती संतान से, बहुत लड़ाया लाड़।
ज्ञानी हो वह इसलिए, माँ ने तोड़े हाड़।।४६
मीठा जल मिलता नहीं, अगर न गहरा कूप।
मन में गहराई रखें, बनना यदि मनु-भूप।।४७
सब जन मिलकर बैठिए, खुश रहिए दिन-रात।
हँस बोलें सँग-साथ रह, करिए मन की बात।।४८
सुख में सब साथी मिले, है यह जग की रीत।
बुरे समय में साथ दे, जो वह सच्चा मीत।।४९
करो भूल-वश भी नहीं, नारी का अपमान।
मानें सदा समान ही, तब पाएँ सम्मान।।५०
अमरोहा के आम भी, होते हैं कुछ खास।
रास न आए जो रखें, खींच उसी की रास।।५१
मिटा रहा मधुमेह नित, जीवन के अरमान। जीभ चटोरी हो गई, कड़वी हुई ज़ुबान।।५२ ज़हरीली फसलें हुईं, भले बढ़ा उत्पाद। जीवन-रक्षा के लिए, अब दो जैविक खाद।। ५३ हाथ जोड़ विनती करे, वृक्ष मनुज मत काट। क्षुधा मिटा कर छाँह दे, विटप टेप जब बाट।।५४ मानव-मन कपटी हुआ, दया न किंचित शेष। पौध लगाए; वृक्ष हो, काटे पीर अशेष।।५५ तप्त सूर्य तपती धरा, तृषित विकल अति त्रस्त। बाट जोहती मेघ की, आ-बरसे हो मस्त।। ५६ सूरज उदय जब भी हुआ, किया तिमिर का नाश। जो जागृत संजीव हो, फैले ज्ञान प्रकाश।। ५७ चुनरी में तारे जड़े, ओढ़े थी जो रात। सोने का रथ देखकर, चली गई वह प्रात।।५८
मिटा रहा मधुमेह नित, जीवन के अरमान। जीभ चटोरी हो गई, कड़वी हुई ज़ुबान।।५२ ज़हरीली फसलें हुईं, भले बढ़ा उत्पाद। जीवन-रक्षा के लिए, अब दो जैविक खाद।। ५३ हाथ जोड़ विनती करे, वृक्ष मनुज मत काट। क्षुधा मिटा कर छाँह दे, विटप टेप जब बाट।।५४ मानव-मन कपटी हुआ, दया न किंचित शेष। पौध लगाए; वृक्ष हो, काटे पीर अशेष।।५५ तप्त सूर्य तपती धरा, तृषित विकल अति त्रस्त। बाट जोहती मेघ की, आ-बरसे हो मस्त।। ५६ सूरज उदय जब भी हुआ, किया तिमिर का नाश। जो जागृत संजीव हो, फैले ज्ञान प्रकाश।। ५७ चुनरी में तारे जड़े, ओढ़े थी जो रात। सोने का रथ देखकर, चली गई वह प्रात।।५८
दावत में आए सभी, ख़ास रहे या आम।
खास-खास ने ख़ास चख, दिए आम को आम।।५९
पात दिया तालाब फिर, ताने भवन-मकान।
बरसाती पानी भरा, डूबी हाय! दुकान।।६०
हाथ जोड़ जग कर रहा, अच्छे दिन की आस।
राम-राज होगा कभी, रखो अटल विश्वास।।६१
आया समय प्रयास का, भारत बने अखण्ड।
बन जाएगा विश्व-गुरु, सब श्रम करो प्रचण्ड।।६२
घने मेघ की छाँव में, झिलमिल करता ताल।
खिले कमल पुलकित हुआ, हर्षाया तत्काल।।६३
तन-मन को दूषित करे, जीवन करे खराब।
साँसों का दुश्मन विकट, गुटका, नशा शराब।।६४
आतंकी ही खेलते, खूनी होली रोज़।
कैसे इनका नाश हो, इसका हल मिल खोज।।६५
दुश्मन घुसकर कर रहे, सरहद भीतर वार।
सेना को दो छूट अब, तभी मिटेगी रार।।६६
गरज-गरज घन बज रहे, आते सावन रात।
साजन है परदेश में, यादों की बरसात।।६७
जलती बाती पूछती, तुम क्यों रोए मोम।
मनबसिया की पीर लख, रो; हो जाऊं होम।। ६८
सूरज रथी चमक रहा,सूरज के ही साथ ।
रथ पर बैठ उदित हुआ,रश्मि डोर ले हाथ।।६९
बचपनवाले खेल सब, कहाँ खो गए आज।
घर के अंदर खेलते,वायु को मोहताज।।७०
झूठ बिना गाड़ी चला, जाना यद्यपि दूर।
भरम टूट ही जाएगा, होकर चकनाचूर।।७१
ईश्वर ने जल दिया है, बिन माँगे; बिन मोल।
कैसी मानव सभ्यता, बेचे जल ले मोल।।७४
रक्षा करिए जीव की, रखिए सबका ध्यान।
स्वामी-भक्त सदा रहे, धोखा करे न श्वान।।७२
बचपन अब भोला नहीं, सरल नहीं आचार।
दुर्व्यसनों में पड़ करे, दानव सा व्यवहार।।७३ईश्वर ने जल दिया है, बिन माँगे; बिन मोल।
कैसी मानव सभ्यता, बेचे जल ले मोल।।७४
खड़े एक ही ध्वज तले, संविधान है एक।
कदम बढ़ाएँ साथ हम, रखें इरादे नेक।।७५
प्यासा व्याकुल हो फिरे, करता सोच-विचार।
हाथ बिना दुख भोगता, है अपंग लाचार।।७६
शांत चित्त से वह मिले, मन में जिसका वास।
निशि-दिन उसे पुकार ले, ईश मिलन की आस।।७७
दया-क्षमा न बिसारिए, होती जन से भूल।
ईश-मगन हो जाइए, कट जाएंगे शूल।।७८
जैसी संगति बैठिए, वैसा हो व्यवहार।
संतन के ढिग बैठिए, प्रभु के हों दीदार।।७९
माया के जंजाल में, मन मत भटका मीत।
राम-नाम नित सुमिरकर, भव से तर कर प्रीत।।८०
श्यामा प्रिय घनश्याम को, ब्रज की शोभा श्याम।
अधर मधुर मुरली धरी, सुने धेनु अविराम।।८१
बच्चा-बच्चा देश का, रोज़ करेगा योग।
तन-मन में बल-सत्यता, रहे न आए रोग।।८२
बदला औरँगजे़ब का, काम और अंदाज।
वह था गर्दन काटता, यह बलदानी आज।।८३
था न अनाड़ी; बन चला, नीरज सीधी चाल।
गीतों में रमता गया, खप जीवन-जंजाल।।८४
गीतों में रमता गया, खप जीवन-जंजाल।।८४
भूल नहीं पाए कभी, पीड़ा दुःख संताप।
हर गुबार; हर कारवां, करता आज विलाप।।८५
अब न आदमी; आदमी, बाकी केवल पीर।
नीर पूछता है कहाँ, नीरज हुआ अधीर।। ८६
नीर पूछता है कहाँ, नीरज हुआ अधीर।। ८६
सर्प सरीखी दौड़ती, झटपट बुल्लेट रेल।
भारत आगे बढ़ रहा, देखो रेलम-पेल।। ८७
मुरली सुन राधा चलीं, बैठी यमुना तीर।
कान्हा की छवि देखतीं, कालिंदी के नीर।।८८
जग का उद्गम प्रेम है, जिससे उपजे सृष्टि ।
जीवन के इस चक्र में, यही सत्य की दृष्टि।।८९
हमें सुहाते अब नहीं, प्रेम-प्रीत के गीत।
घर-घर में पल-पुस रही, राजनीति की रीत।।९०
पल-पल गाय पुकारती, हे गिरिधारी श्याम!।
अपलक देखे जहाँ भी, वहीं दिख रहे श्याम।।९१
पिता और गुरु धन्य हैं, जो दिखलाते राह ।
बिन उनके आशीष के, जीवन बनता आह ।।९२
जनगण अब भी कर रहा, राम राज की आस।
करे आचरण राम सा, होगा तभी विकास।।९३
बदली-बदली सी लगी, बदली गीले नैन।
तपित पथिक को छाँव दे, सैनिक-सुमिरे सैन।।९४
सहज मार्ग ही सरल है, देखूँ नैना मूँद।
गुरु-हरिकृपा सुमिर भरें, नयन अश्रु की बूँद। ९५
गरमी के मौसम भली,लगे यह सूझबूझ।
पानी की पूर्ति करे,खरबूजा तरबूज़।।
मधुमेह नित बुझा रहा,जीवन के अरमान।
जीभ चटोरी हो गई, कड़वी हुई ज़ुबान।।
ज़हरीली खेती हुई,बढ़ा अधिक उत्पाद।
बच जाए जीवन करो,प्रयोग जैविक खाद।।
हाथ जोड़ विनती करे,कहे न काटो मोय।
क्षुधित की क्षुधा को हरे,विटप फलित जब होय।।
हाथ पेड़ को काटते,तब कुल्हाड़ी रोय।
आरी कहती पेड़ से,मेरा दोष न कोय।।
मानव अब कपटी भया,मन में दया न को
***
झर-झर नैना बरसते,लगी ईश की आस।
दे दर्शन सिय-राम जी, करें ह्रदय में वास।।९६
अपनी संस्कृति-सभ्यता, सब दुनिया में श्रेष्ठ।
अपनी संस्कृति-सभ्यता, सब दुनिया में श्रेष्ठ।
छोटे रहें दिलार पा, मान पा रहे ज्येष्ठ।।९७
तन-मन झूला झूलता, माया मिली न राम।
'शशि' जग मन को थाम ले, हल होंगे सब काम।। ९८
सैनिक सीमा पर खड़ा, हरदम सीना तान।
तनिक न बैरी से डरे, मसले चींटी मान।। ९९
आतंकी इस देश से, कभी न लेना बैर।
करा देंगे वीर तुझे, तुरत जहन्नुम सैर।।१००गरमी के मौसम भली,लगे यह सूझबूझ।
पानी की पूर्ति करे,खरबूजा तरबूज़।।
मधुमेह नित बुझा रहा,जीवन के अरमान।
जीभ चटोरी हो गई, कड़वी हुई ज़ुबान।।
ज़हरीली खेती हुई,बढ़ा अधिक उत्पाद।
बच जाए जीवन करो,प्रयोग जैविक खाद।।
हाथ जोड़ विनती करे,कहे न काटो मोय।
क्षुधित की क्षुधा को हरे,विटप फलित जब होय।।
हाथ पेड़ को काटते,तब कुल्हाड़ी रोय।
आरी कहती पेड़ से,मेरा दोष न कोय।।
मानव अब कपटी भया,मन में दया न को
***
मुख डुबोय जल पी रहा, करके सोच विचार।
हाथ जल में डुबो रहा, अंजुलि को लाचार।।
भोला बालक कर रहा,पशुवत है लाचार।
खुद ही अनुभव कर रहा, पशुओं का आचार।।
देखकर मन द्रवित हुआ,रोग का कर उपचार।
पर पीड़ा अवगत हुआ,कर उस पर उपकार।।
राम-नाम रसना रटे,हिय लगन लग जाय।
राम नाम की नाव से, यह जीवन तर जाय।।
हर पल हरि का भजन कर,मन को मत भटकाय।
राम नाम जो जन जपे,भव सागर तर जाय।।
मन को हल्का राखिए,भजे राम ही राम।
भव सागर तर जाइए,हिय धर हरि का नाम।।
लकुटि कमरिया लै चले,दौड़े ग्वाल-बाल।
मधुर मुरलिया हाथ में,हिय पहनी बनमाल।।
सिर पर धर मटकी धरी, दधि लिए चली नार।
कंकड़ से फोड़ मटकी, भीगे चुनरी हार।।
यशोदा के घर-आँगना,घुटरुनि चले श्याम।
कंचन सी चमके धरा,सजा नंद कौ धाम।।
कण बालू के सोखता, अपनी प्यास बुझाय।।
हाथ पेड़ को काटते,तब कुल्हाड़ी रोय। आरी कहती पेड़ से,मेरा दोष न कोय।।
भोला बचपन खेलता, माटी में मुस्काय।/मुस्कात।
रज स्वदेश की चूमता, तनिक युवा हो जाय/जात।।
बैठ अकेला ताकता, भौंकत रहे श्वान।
चोरों से रक्षा करता, रखे घर का ध्यान।।
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पीड़ा से भरा हुआ पैमाना आप थे ।
गुनगुना रही ज़मी और गा रहा है जहाँ,
गीत सदा चाहत के गूँजेंगे यहाँ-वहाँ,
आदमी सा आदमी दिखता अब यहाँ नही,
नीरज जीवन संगीत छोड़ गए तुम कहाँ ।
लँगड़ा खासा बिक रहा,चौंसा बिकता आम।
आम की दावत में रखे,खास सभी थे आम।।
आम-आम चिल्ला रहा,जन-मन भाता खास।
खास सभी को सोहता,आम ही बिकता खास।।
मुंबई के अल्फाँसो, ठेले सजते खास।
चाकू से कटते रहे, जो थे खासम खास।।५६
आप मेरे आदरेय गुरुवर हैं, मैं अबोध शिष्या ! अकिंचन
मैं ईश्वर की आभारी हूँ जो इस विराट विश्व में आप के दर्शन हुए और मेरी लेखनी भी धन्य हुई।आपका बड़प्पन है जो आप हमें बड़ा होने का अभास करा रहें । जिसके सानिध्य में कोई स्वयं को छोटा न समझे वही बड़ा है ,वही महान है, वही युग पुरुष है ।
आप मेरे आदरेय गुरुवर हैं, मैं अबोध शिष्या ! अकिंचन
मैं ईश्वर की आभारी हूँ जो इस विराट विश्व में आप के दर्शन हुए और मेरी लेखनी भी धन्य हुई।आपका बड़प्पन है जो आप हमें बड़ा होने का अभास करा रहें । जिसके सानिध्य में कोई स्वयं को छोटा न समझे वही बड़ा है ,वही महान है, वही युग पुरुष है ।
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फूल खिलते ही फ़िज़ा महक जाती है,
सुमनों के खिलने से ऋतुएँ हर्षाती हैं।
सुमनों के खिलने से ऋतुएँ हर्षाती हैं।
बहारों की प्रतीक्षा में शीत गात कंपाती है,
कोहरे की चादर भी खुद उतर जाती है।
कोहरे की चादर भी खुद उतर जाती है।
ऋतुराज में तब पुष्पों से बहार आती है।
प्रकृति नटी भी खुलकर खिलखिलाती है।
प्रकृति नटी भी खुलकर खिलखिलाती है।
भला पर्दों में कौन रखता है खिले सुमनों को
खिले गुमचों से फिज़ाओं को महक जाने दो।
खिले गुमचों से फिज़ाओं को महक जाने दो।
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